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Channel: जन्नत टॉकिज
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लकीर-हबीबी लांघने की असफल कोशिश-"बहादुर कलारिन"

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'बहादुर कलारिन'मूलतः छत्तीसगढ़ी लोक कथा का हबीब तनवीर द्वारा नाट्य रूपांतरण है | इस नाटक को नया थियेटर की मशहूर और भारतीय रंगजगत की बेहतरीन अभिनेत्रियों में शुमार 'फ़िदा बाई'के गुजर जाने के बाद हबीब तनवीर ने इस नाटक को करना बंद कर दिया,उनका मानना था कि बहादुर कलारिन की किरदार की जितनी परतें हैं वह सबके बस की बात नहीं,इसलिए फ़िदा बाई के चले जाने के बाद मैंने यह नाटक बंद कर दिया | हबीब साहब के रंगकर्म को नजदीक से जाने वाले यह बखूबी जानते हैं कि बहादुर कलारिन भले ही चरणदास चोर जितना मशहूर न हुआ हो पर यह नाटक हबीब तनवीर के दिल के काफी करीब था | इस नाटक को कुछ वर्ष पहले रायपुर में कुछ रंगकर्मियों ने खेलने की कोशिश की थी,पर उनका यह प्रयास एक कमजोर प्रयास बनकर रह गया बहादुर कलारिन का नाटकीय तनाव इसकी जान है और इसको सँभालने के लिए कुशल निर्देशन और दक्ष अभिनेताओं की मांग करता है | २९ जुलाई को दिल्ली के कमानी सभागार में संगीत नाटक अकादमी के सौजन्य से दर्पण लखनऊ की टीम ने इस नाटक को अवधि-हिंदी मिश्रित जबान में श्री उर्मिल कुमार थपलियाल के निर्देशन में खेला | अवधी और हिंदी के मेल,लोक-संगीत का प्रयोग तथा रंग-छंगा की मंचीय उपस्थिति कराकर थपलियाल जी ने नाटक के लोक तत्वों को भरसक जीवित करने की कोशिश की पर यह बात कहावत में ही अच्छी लगती है कि तबियत से पत्थर उछाला जाये तो आसमान में सुराख हो सकता है | हबीब तनवीर ने जो लकीर खींच दी है वह लकीर लांघना सबके बूते की बात नहीं है | थपिलियाल इससे अछूते नहीं रह सके | बहादुर कलारिन की इस प्रस्तुति में रूपांतरण करते हुए एक बड़ी गलती तो यही पर उभर कर सामने आ जाती है जब राजा के मरने के बाद के दृश्य में सीधे शादियों का दृश्य प्रस्तुत कर दिया जाता है | इस नाटक में जिस इन्सेस्ट की ओर इशारा है और जिस वजह से यह कहानी ईडिपस कॉम्प्लेक्स के साथ एक महान दुखांत की जमीन तैयार करती है,वह दर्पण की प्रस्तुति से गायब दिखा | जबकि मूल कथानक में राजा की मृत्यु पश्चात विलाप करती बहादुर पहली बार अपने जवान होते बेटे 'छछान'के गले लगती है और छ्छान के मन में पहली बार इन्सेस्ट का मनोरोग अपनी ही माँ के प्रति जागता है | बाकी की कसर छ्छान बने अभिनेता ने पूरी कर दी | ग्रामीणों के अभिनय में नैसर्गिकता का अभाव साफ़ दिखा
बहादुर के किरदार को दबंग और चंचल दिखाने में भी साफ़ कमी रही और इसी वजह से राजा या छ्चान वाले गंभीर दृश्यों में भी दर्शकों को हंसी आ रही थी | जब गंभीर अभिनय क्षण पर दर्शकों को आप बाँध न सकें तो इसके मायने यह हुआ कि या तो निर्देशक अपनी किस्सा बयानी ठीक नहीं रख सका है अथवा अभिनेताओं ने किरदार गहराई से नहीं किया | जबकि पहली बार जब बहादुर कलारिन कोरबा के खुले मंच पर खेला और कारखाने के कामगारों और देहातियों द्वारा देखा गया तब यह ट्रेजेडी शुरू से आखिर तक सन्नाटें में देखी गयी थी | इसकी वजह साफ़ है कि नाटक के क्रियाव्यपार में प्रेक्षकों को अनुभव की तीव्रता और गहराई दिखाई दी | वैसे भी रंगमंच की अपेक्षा का वास्तविक अर्थ नाटक के मंच पर अभिनेताओं के माध्यम से दृश्य रूप में मूर्त हो सकने की क्षमता और दर्शकों को बाँध लेने के सामर्थ्य से जुड़ा है | इस दृष्टि से भी थपलियाल अपनी इस प्रस्तुति में असफल रहे
मूल बहादुर कलारिन में गीतों की योजना उसके कथा विस्तार को ताकत देती है | 'अईसन सुन्दर नारी के ई बात ,कलारिन ओकर जात / चोला माटी का हे राम एकर का भरोसा / होगे जग अंधियार,राजा बेटा तोला का होगे-जैसे गीत इस ट्रेजेडी को एक सार्थक ऊँचाई देते हैं पर अवधी भाषा (बोली) की यह प्रस्तुति इस ओर से भी निराश करती है | लोक आख्यान 'बहादुर कलारिन'का नाट्य रूप तैयार करते समय नाटककार हबीब तनवीर के सामने 'राजा ईडिपस'की कथा थी,तो दूसरी ओर इन्सेस्ट का मनोरोग भी | इन्सेस्ट की इसी मनोवृति ने इस नाटक को त्रासद रूप दिया क्योंकि उन्होंने इस नाटक के कथानक के सफल बुनावट के लिए मनोविज्ञान के इसी आदिपक्ष 'ईडिपस कॉम्प्लेक्स'और आत्मरति ग्रंथि यानि 'न्यूरोसिस कॉम्प्लेक्स'के सिद्धांत को अपनाया है और जब यह दृश्य नाटककार-निर्देशक के मन में साफ़ हो तो नाटक का कथानक मंच पर खुलकर प्रेक्षकों के सामने आता है पर अफ़सोस लगभग डेढ़ घंटे का समय लेकर भी अवधी की बहादुर न तो अपने साथ जोड़ सकी न उसकी ट्रेजेडी बाँध सकी और बाकि की कसर अभिनेताओं ने पूरी कर दी | ऐसे में निर्देशक-रूपान्तरकार उर्मिल थपलियाल जी पर ही जवाबदेही आती है क्योंकि हबीब तनवीर के पसंदीदा नाटकों को जब भी कोई मंच पर लेकर आएगा उसे हबीब द्वारा खींची लकीर से बार-बार झूझना होगा | ऐसे में भी दर्पण समूह की जिम्मेदारी बढ़ गयी थी क्योंकि तुलना तो अवश्यम्भावी थी और थपलियाल जी, दर्पण समूह इस कथा को अपने प्रयोगों से मंच पर ईमानदारी से रख न सका | कुल मिलाकर निराशाजनक अनुभव रहा और एक वाक्य में कहें तो नाटक नौटंकी बन गया (यहाँ नौटंकी का अभिधात्मक अर्थ न लें )





बेवजह का कुकुरहांव "आरक्षण"पर

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आरक्षण रिलीज हो चुकी है और पिछले हफ्ते तक जो सम्मानीय बंधू इसके विपक्ष में हल्ला बोल किये हुए थे और सर- फुटौव्वल पर आमादा थे,उन्हें अब तक तो यह मालूम पड़ गया होगा कि यहाँ मामला वैसा नहीं था,जैसा उन्होंने अंदाजा लगाया था

याने खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली बात आरक्षण पर सोलह आने फिट बैठती है
आरक्षण देखकर यह लगता हैं कि जिस शख्स का नाम प्रकाश झा है,क्या उसकी क्रियेटिविटी को दीमक लगने लगे हैं ? क्या ये वही फिल्मकार है जिसने दामुल,मृत्युदंड जैसी फिल्में दी थी ? पता नहीं हमारा सिनेमा एक ख़ास किस्म के आदर्शवादिता को क्यों ढ़ोता है
फिल्म का नायक आदर्शवादी प्रिंसिपल प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन ) आरक्षण के पक्ष में बोलकर और सच के पक्ष में खडा होने की वजह से अपने पद और संस्थान से निकाल दिया जाता है
उसके दलित स्टुडेंट और फिल्म के दूसरे नायक दीपक कुमार(सैफ अली खान) उसके साथ आकर उसके तबेला स्कूल को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर सँभालते हैं और यहाँ से यह फिल्म अपने मूल मुद्दे से भटक जाती है
आरक्षण का जरूरी मुद्दा कहीं और चला जाता है
फिल्म प्राईवेट कोचिंग और प्राईवेट शिक्षा संस्थानों की पैरेरल व्यवस्था की ओर चल देती है
बीच-बीच में फिल्म कहीं-कहीं वर्गभेद के मुद्दे को छूती है पर वह आरक्षण के मुद्दे से कतई मेल नहीं करता
आरक्षण की जितनी भी डिबेट प्रकाश झा से या उनकी समझ से संभव थी,उतनी उन्होंने पहले हाफ में रख छोड़ी है
कायदे से फिल्म के जिस हिस्से से आरक्षण समर्थक वर्ग को दिक्कत होनी चाहिए उस ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा
फिल्म का एक दृश्य है कि दलित शिक्षक और नायक दीपक कुमार ,अपने शिक्षक प्रभाकर आनंद के मामले में अपने इलाके के दलित नेता से सहयोग मांगता है पर वह शिक्षा मंत्री ( सौरव शुक्ला)के आगे बिक जाता है इतना ही नहीं वह अपनी कुर्सी के सपने के लालच में उस सवर्ण मंत्री और प्रतिनायक मिथिलेश सिंह (मनोज बाजपेयी ) के आगे मिमियाने वाले अंदाज़ में चित्रित हुआ है
क्या निर्देशक इसको दिखा कर इस वर्ग को यह सन्देश देना चाहता था कि देखो आपके वर्ग का प्रतिनिधि कितनी संकीर्ण सोच (फिल्म में जिसे मंद बुद्धि कहा गया है ) का है या यह कि दलितों और उनकी स्थिति में अब तक अधिक बदलाव ना होने के पीछे उनके द्वारा चुने गए इसी तरह के प्रतिनिधि रहे हैं,जो अपने को दलितों का सच्चा हितैषी और प्रतिनिधि बताते रहे हैं ? यह फिल्म प्रच्छन्न रूप से आरक्षण के आर्थिक आधार पर दिए जाने के तर्क की पैरवी करता दिखता है
एक बड़ा इरिटेटिंग पात्र पंडित छात्र का है जिसे अपनी फीस तक के लिए जूझना पड़ता है | यह पात्र पूरी फिल्म में जिस हिंदी का प्रयोक्ता दिखा है वैसी हिंदी पता नहीं प्रकाश झा ने किस हिन्दुस्तान में सुनी है

सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि वह कैरेक्टर इंजीनियरिंग पढना चाहता है और बाद में पढता भी है
आरक्षण फिल्म के गरियाने वालों को खासकर वह दृश्य भी याद रखना चाहिए जब दलित नायक दीपक कुमार थाने में बंद है तब उसकी जमानत उसी का सवर्ण अमीर साथी सुशांत सेठ (प्रतीक बब्बर) ही कराता है
अब प्रश्न उठता है कि क्या जब भी जमानत जैसे काम या ऐसे ही अन्य काम जिनमें सिफारिश या पैसों की बात होनी है वह बिना सवर्णों के सहयोग के नहीं होगी ? दलितों का उद्धार या उत्थान सवर्णों का ही मुहताज/कृपापात्री रहेगा ?इस बात को महज फ़िल्मी प्रयोग या सहज स्वाभाविक मानकर नहीं चला जा सकता
आरक्षण देखते हुए कई दफे यह लगता है गोया प्रकाश झा ने बाघ और बकरी (इसे अभिधार्थ ना लें )के एक ही घाट पर पानी पीने के कपोलकल्पित रामराज्य को ही फिल्म में उतारने की कोशिश की है
फिल्म का नायक प्रभाकर आनंद कोचिंग शिक्षा व्यवस्था को अपने तबेला स्कूल (एक आदर्श अवधारणा )के माध्यम से ध्वस्त कर देना चाहते हैं और यह इसी तरह के रामराज्य को बनाने की गांधीवादी कोशिश लगती है पर यह पूरा प्रकरण फिल्म का सबसे बोरिंग और लम्बा खींच गया दृश्य है
कायदे से प्रकाश झा ने फिल्म आरक्षण के शीर्षक के साथं न्याय तो नहीं ही किया है
ना तो यह फिल्म आरक्षण की पैरवी करती दिखती है न ही मुखालफत
यह मध्यममार्गी फिल्म है अगर हम यह मान लें कि यह फिल्म आरक्षण के इर्द-गिर्द है
इस फिल्म के शीर्षक से इसका जुड़ाव बस इतना सा है कि फिल्म में दिखाए गए संस्थान का प्रिसिपल आरक्षण के पक्ष में बोलने की वजह से मुसीबत में फंसा दिया जाता है
ध्यान से देखा जाये तो यह प्रिंसिपल इस स्टेटमेंट से पहले ही शिक्षामंत्री जी के भांजे और एक ट्रस्टी महोदय के नजरों में पहले ही खटक रहा होता है
आरक्षण के पक्ष में बोलना महज़ उसके ताबूत की आखरी कील होता है
लब्बोलुआब यह कि यह फिल्म प्रकाश झा की अब तक कि सबसे कमजोर और भटकी हुई फिल्म है और सही कहें तो यह झा का कमर्शियल स्टंट मात्र है,जिसका महज शीर्षक देखकर ही आरक्षण समर्थकों ने बेवजह का कुकुरहांव (इसे भी कृपया अभिधार्थ न लें )मचा दिया
दरअसल यह वैसा ही मानो जब बच्चे को चम्मच में शहद डाल कर चटाई जाए और बच्चा शहद छोड़कर चम्मच को ही दाँतों से पकड़ ले
हाँ ! झा के ट्वीट के खिलाफ मैं भी हूँ
(बहरहाल,फिल्म के एक छोटे दृश्य में भोपाल रंगमंच के बेमिसाल एक्टर आलोक चटर्जी और नया थियेटर के हिमांशु त्यागी को देखा सुखद है पर यह मेरी व्यक्तिगत राय इन कलाकारों के लिए है फिल्म से इसका कोई लेना देना हैं )



सामा-चकेबा - मिथिलांचल की गौरवशाली परंपरा

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'(लोक संस्कृति  की समृद्ध विरासत  बिहार  की भूमि में सदा-सर्वदा से गहरे विद्यमान रही है | आज का नवयुवक एक तरफ तो उत्तर औपनिवेशिक  समय में मज़बूरी वश अपनी सांस्कृतिक जड़ों  से कटता जा रहा है  या कटने को विवश है  तो दूसरी तरफ हमारी लोक परंपरा पर भी खतरे की तलवार लटक ही है | इसके पीछे निश्चित ही बाज़ार और उसकी शक्तियां हैं पर बिहार की सांकृतिक छवि को जन-जन तक और विशेषकर युवाओं तक पहुँचाने का जिम्मा बिहार के संस्कृति मंत्रालय ने उठाया है | हमें उनके इस प्रयास को सराहना चाहिए | उन्होंने बिहार की सांकृतिक पहचान बनाते कुछ लोक परम्पराओं पर अपनी पुस्तिका 'बिहार विहार'निकाली है जिसमे  इन कला रूपों का परिचयात्मक विवरण है | यहाँ मिथिलांचल की गौरवशाली परम्परा 'सामा-चकेबा'पर उसीसे एक अंश  साभार ...)


सामा चकेबा'एक प्रकार का 'कंपोजिट'आर्ट है | इसमें मिटटी की बनी अनगढ़ मूर्तियाँ,बाँस के हस्तशिल्प,लिखियार,मिथिला पेंटिंग,गायन,सांस्कारिक अनुष्ठान,नृत्य,अभिनय आदि सब कुछ एक साथ रूपाकार होता है,जो इसे बेहद आकर्षक दृश्यात्मकता प्रदान करता  है | दैनन्दिनी के कार्य से निवृत  होने के बाद कार्तिक मास के सिहरन वाली रात के दूसरे प्रहर में दुग्ध धवल चांदनी में यह 'खेल'प्रारम्भ होता है तथा अमूमन तीसरे प्रहर तक चलता है |  हर रात,तालाब(नदी),बाग़-बगीचे,खेत-खलिहान,मंदिर और ग्राम प्रदक्षिणा का इसमें कार्यक्रम चलता है | इस पूरे खेल के दौरान ननद-भौजाई की चुहलबाजी और हँसी-मजाक वातावरण को जीवंत  बनाये रखते हैं | पद्म पुराण की एक पौराणिक कथा से भी 'सामा-चकेबा'को जोड़ा जाता है | इस कथा में श्रीकृष्ण के दरबार के एक पात्र (चूड़क)की नजर उनकी पुत्री'समा'(श्यामा)पर रहती है | पर सामा 'चारुवाक'नामक युवक से प्यार करती है | प्रेमांध चूड़क श्रीकृष्ण के पास इसकी चुगलखोरी करता है | श्रीकृष्ण शाप देते हैं और सामा-चारुवाक पक्षी बन जाते हैं | बहन के शापित  होने की खबर भाई साम्ब को लगती है | वह श्रीकृष्ण से अनुनय-विनय करता है पर श्रीकृष्ण राजधर्म की आड़ लेकर उसके आग्रह को ठुकरा देते हैं | साम्ब शिव की आराधना में घनघोर तपस्या करते हैं  | शिव प्रसन्न होते हैं तथा मुक्ति का मार्ग बताते हैं | इस मार्ग का अनुसरण कर साम्ब महिलाओं को संगठित करते हैं | श्रीकृष्ण झुकते हैं और सामा-चारुवाक शाप-मुक्त होते हैं |स्त्री के संगठित प्रतिरोध,राज प्रशासन के झुकने,भाई के बहन के प्रति अटूट प्रेम और चुगलखोरों को सजा-यही उत्स है 'सामा-चकेबा'पर्व का | इस पूरे कथानक का बेहद रोचक अभिनय इस पर्व में होता है | आज भी मिथिलांचल के गाँवों में स्त्रियाँ 'सामा-चकेबा'खेलती हैं | कला  मर्मज्ञों ने इसके कथा सूत्र की रोचकता,आकर्षक दृश्यात्मकता,गीत-संगीत-नृत्य और इसके पारंपरिक स्वरुप को देखते हुए इसे परिमार्जित कर पारंपरिक 'लोकनृत्य'के रूप में विकसित किया है | इसका बहुआयामी स्वरुप,गायन की विविधता,प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम,भाई-बहन के स्नेहिल सम्बन्ध,चुगलखोरों(समाज विरोधियों)के प्रति सामूहिक-संगठित विरोध,लोक कल्याण की भावना,संस्कारों का प्रशिक्षण,जैसे अनेक खण्डों में बांटकर इसे समझने का प्रयास किया है | इसीलिए इस बहुआयामी लोकनृत्य में शेष बातें एक जैसी होने पर भी प्रदर्शनकारी दल के विचार चिंतन के आधार पर इसकी व्याख्या बदल जाती है | यही इस लोकनृत्य की निजता और विशेषता भी है |   

सलवा जुडूम के मुल्क में बस्तर बैंड...

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बस्‍तर हम सब जानते हैं. पर उस बस्‍तर का अर्थ परेशान करता है. मुन्‍ना पांडे ने बस्‍तर का एक दूसरा अर्थ हमारे सामने रखा है: बस्‍तर बैंड. लोक परंपरा की जीवंत मिसाल. ठेठ देसी. अगर कुछ गौरवशाली हो सकता है परंपराओं में, तो बस्‍तर बैंड बेशक उनमें से एक है. मुमकिन है, हिंदुस्‍तान के मुख्‍तलिफ हिस्‍सों में और भी ऐसी कलाएं मिसाल बनने की स्थिति में आ पहुंची होंगी. उन्‍हें फिर से जीवंत बनाना हमारे समय की बड़ी चुनौतियों में से एक है. तय है कि इमदादों से ये काम नहीं होगा. इमदाद धरोहर बना सकते हैं, दीर्घाओं में कलाओं की नुमाइश लगा सकते हैं, या फिर म्‍युजियम में कैद कर सकते हैं. जरूरत इन परंपराओं को पुनर्जीवित करने की है, डायनमिक बनाने की है. दिलचस्‍पी और इच्‍छाशक्ति जरूर इस दिशा में कारगर साबित हो सकते हैं. बहारें वापस आ सकती हैं. बहरहाल, सरोकारियों से गुजारिश है कि वे इस दि शा में कुछ सकारात्‍मक पहल लें. वोलंटियर करें. पहले चरण में दस्‍तावेजीकरण का काम तो हो ही सकता है. ये पता तो चले कि हमारी लोक कलाओं में कितने रंग थे, कितने रह गए और कितने रह जाएंगे. अगले दौर में उनके पुनर्जीवन के रास्‍ते पर साझा प्रयास भी किया जाएगा. फिलहाल बस्‍तर बैंड से जान-पहचान करें.

आम आदमी बस्तर का नाम सुनते ही किस तरह की तस्वीर अपने मन में बनाता होगा,इसकी कल्पना सहज की जा सकती है | पर यह तस्वीर का वह पहलू है जिसकी निर्मिति हमारे प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने रची-गढ़ी है | छत्तीसगढ़ के वनों में अनेक संस्कृतियाँ अपने मूल रूप में मौजूद हैं, जिनपर अभी उपभोक्ता संस्कृति ने जाल नहीं फेंका या यह कि अभी तक हमारे वन-प्रांतरों की यह अनमोल धरोहर अभी तक इससे अछूती रह गयी है यह राहत की भी बात है | इसकी बड़ी वजह वहाँ तक इस भोगवादी मानसिकता की पहुँच का न होना भी रहा हो सकता हैं | बहरहाल, बस्तर बैंड बस्तर का एक सांगीतिक चेहरा है और अपने रूप, दृश्यात्मकता और प्रदर्शन  से यह

अहम साजिंदे
बहुत चौकाने वाली भी है | ‘बस्तर बैंड’ की संकल्पना स्व.हबीब तनवीर के नया थियेटर और छत्तीसगढ़ के सक्रिय रंगकर्मी अनूप रंजन की है | अनूप ने बस्तर के लगभग सभी कबीलों में घूम-घूमकर अब लुप्त हो चुके अथवा प्रयोग में नहीं आने वाले कई वाद्य-यंत्रों को इकट्ठा करके प्रदेश के राजकीय संग्रहालय को सौंपा है | अनूप बताते हैं कि ‘बाद में मुझे अहसास हुआ कि ये जो वाद्य यन्त्र धीरे-धीरे प्रयोग से हटते जा रहे हैं और इनके बजाने वाले भी कम होते जा रहे हैं ऐसे में इनको म्यूजियम की शोभा बढाने के बजाये प्रयोग में लाया जाए तथा इनको जो बजा सकते हैं उनकी खोज की जाए |’बस्तर बैंड में बस्तर के लगभग सभी कबीलों के चालीस से भी अधिक सदस्य और इतने ही वाद्य शामिल हैं | अनूप अपने इस प्रयास के पीछे की प्रेरणा हबीब साहब के कामों से मिली भी बताते हैं | इस बैंड का प्रत्येक सदस्य तीन-चार वाद्य यन्त्र बजाने में सक्षम है | मौखिक ध्वनियों, लकड़ी और तारों से बने बाजों, थापों, नृत्य आदि एक किस्म का जादू पैदा करते हैं और हमें ऐसा लगता है गोया सभ्यता के पहले चरण में आ गए हों और तमाम किस्म की बौद्धिक जुगालियों से निर्मित यह समाज अभी इस क्षण कहीं है ही नहीं | बस्तर की जितनी भी जनजातियाँ हैं उनकी परम्पराएं भी एक दूसरे से अलहदा हैं मसलन,घोटूल,मूरिया,दण्डामी,माड़िया इत्यादि आदिम जनजातियों के वाद्य यन्त्र और परम्पराएं तक अलग है बावजूद इसके अनूप रंजन ने इसे एक मंच पर बड़े ही जतन से ऐसे संयोजन से उतारा है कि सभी मिलकर छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत का एक समृद्ध और मुकम्मल तस्वीर उपस्थित करते हैं |
बस्तर के आदिवासी ‘लिंगों देव’को अपना संगीत गुरु मानते हैं | उनकी मान्यता है कि इन वाद्य यंत्रों की रचना लिंगों देव ने ही की थी | ‘लिंगों पेन’ वा  ‘लिंगों पाटा’ अथवा ’लिंगों देव’ के गीतों में इन वाद्य यंत्रों का जिक्र मिलता है | यह बैंड बस्तर की सदियों से चली आ रही आदिम जीवन की लोक जीजिविषा और परंपरा का ध्वज वाहक है | अनूप रंजन बताते हैं,

थिरकने से रोकना मुश्किल
‘मेरे आदिवासी वाद्य यंत्रों के संग्रहण के शौक ने पता नहीं कब जूनून का रूप अख्तियार कर लिया | लगभग दस बरस के इस श्रमसाध्य,खर्चीले बैंड का जूनून सन 2004 में अपनी शक्ल अख्तियार कर पाया | जिसकी पच्चीसवीं प्रस्तुति इस अगस्त माह में दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुई और इस बेमिसाल प्रस्तुति ने दिल्ली के सांस्कृतिक हलकों में लोक सौंदर्य की जड़ीभूत सौन्दर्याभीरूची को झंकझोर दिया | छत्तीसगढ़ के इस जनजातीय संगीत जिसमें गीत, संगीत, नृत्य सभी कुछ है कि प्रस्तुति दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ गेम्स में भी हो चुकी है |’
जो वाद्य यंत्र आपको इस दुनिया से किसी और दुनिया में हमें आसानी से लेकर चले जाते हैं, उनके नाम उतने ही दुरूह हैं| इन वाद्य यंत्रों में, गोगा ढोल,मिरगिन ढोल,सियाडी बाजा, बेदुर, सुलुड,  चिटकुल, उजीर, किकिड, तेहंडोर, गोती, नरपराय, गुटापराय, चरहा, दुसिर, मुंडा, तपकी, अकुम, तोड़ी, तुडबड़ी, नंगूरा, धुरवा ढोल, माडिया ढोल आदि हैं |
साथ ही अगर हम इस बैंड के सदस्यों पर ध्यान दे तो इसमें कोया समाज या कोइतोर समाज के मुरिया, दण्डामी, मुंडा, मोहरा, भतरा, लोहरा, परजा, हलबा, मिरगिन, अदबा आदि समाजों के पारंपरिक और विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत किए जाने वाले संस्कारिक गीत-संगीत-नृत्य को उसकी सामूहिकता में सम्मिलित किया गया है | बस्तर बैंड प्रकृति का संगीत है और ऐसे प्रयासों की सराहना होनी चाहिए | इतना ही नहीं, यह बैंड अपने सांगीतिक प्रयासों से हमारे तथाकथित शहराती और विकसित समाजों के सोच से परे बस्तर की उस तस्वीर को सामने लाता है जहाँ इस विकसित समाज ने उसे बारूदी ढेर पर बैठा विस्फोटक ज्वलनशील जगह बना दिया है | जब आज पूँजी आधारित व्यवस्था ने बस्तर को आदिवासियों,उनकी जमीनों, खनिजों और संसाधनों के दोहन की ही जगह बना दी है, ऐसे में यह बैंड बस्तर की सांस्कृतिक पहचान को सामने लाता है, जिसको देखने का अवकाश किसी के पास नहीं है या कोई देखना ही नहीं चाहता | बस्तर बैंड देखते हुए हो सकता है आपको कुछ अनूठी चीज़ न मिले पर यह बैंड अपने वाद्ययंत्रों, नृत्यों, गीतों और प्रस्तुतियों से आपको रोमांचित करता है, इसमें कोई दो-राय नहीं | बस्तर बैंड बस्तर के आदिम संगीत का प्रतिनिधि है | बस्तर माने केवल नक्सल, पुलिस और बारूद ही नहीं होता |
पूरी टीम

(www.sarokar.net पर आज (23/8/11)प्रकाशित ) ...

इश्क और बेबसी का बयान : रॉकस्टार

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'रॉकस्टार'देखते हुए अनजाने में ही हंगेरियन पोएट 'लजेलो झावोर'की याद आती रहती है | झावोर के 'ग्लूमी सन्डे'ने दिल टूटने के बाद जो तान छेड़ी,उसके प्रभाव में कईयों ने अपनी जान गंवाई | यहाँ 'इरशाद कामिल'ने फिर 'बेबसी का बयान'दर्ज किया है तो वहाँ लजेलो ने 'नाऊ द टीयर्स आर माई वाइन एंड ग्रीफ इज माई ब्रेड/ईच सन्डे इज ग्लूमी ,व्हिच फील्स मी विद डेथ 'रचा था | यहाँ तमाम बन्धनों और अडचनों में 'जार्डन'के गीत है उधर इस ग्लूमी गीत को बीबीसी ने प्रतिबंधित कर दिया था | दर्द दोनों ही ओर अपने उच्चतम स्तर  पर है | 'रॉकस्टार'आपको इरशाद कामिल जैसा समर्थ गीतकार देता है वहीँ रहमान के संगीत ने फिर से रहमान द जीनियस को सिद्ध किया है | इम्तियाज़ के निर्देशन ने अपनी नींव  और पुख्ता की है तो मोहित चौहान चौकाते हैं | इम्तियाज़ अली,इरशाद कामिल,ए.आर.रहमान,मोहित चौहान,रणवीर कपूर की मेहनत का सम्मिलित सुखद परिणाम है -रॉकस्टार | थियेटर से बाहर आते-आते फिल्म के कई दृश्य दिल पर छप चुके होते हैं और एक हल्की-सी  हूक दिल में बाकी रह जाती है | बस एकमात्र कमजोरी सेकेण्ड हॉफ में कुछ एडिटिंग का है पर यह भी बड़ी दिक्कत नहीं पैदा करती क्योंकि 'नादान परिंदों'के घर आने की आवाज़ 'माईग्रेशन'के सम्बन्ध में 'चिट्ठी आई है 'से अब तक की दूरी भी तय करती है और इसलिए परेशान नहीं होने देती | इम्तियाज़ इरशाद के साथ मिलकर साहित्य को सिनेमा में बड़ी बारीकी से बुनते है | अली की यह फिल्म रूमी और जायसी की कविताई की सीढ़ी के सहारे 'इश्क हकीकी से इश्क मजाजी'की अंतहीन यात्रा तय करने की कोशिश है |     

महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय

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[ भोजपुरी समाज में जब भी किसी सांस्कृतिक शख्सियत की बात पूछी जाती है,लोग बड़े गर्व से भिखारी ठाकुर का नाम लेते हैं | यह अच्छी बात है,इससे इनकार नहीं परन्तु यह उतनी ही दुखद बात है कि,भोजपुरी समाज के एक और बड़े रत्न 'महेंद्र मिश्र 'पता नहीं क्यों लोगों को याद नहीं हैं | अगर कुछ लोगों को महेंद्र मिश्र याद भी हैं तो उनका विस्तृत विवरण उन्हें नहीं मालूम | हालांकि रवीन्द्र भारती ने 'कंपनी उस्ताद'नामक नाटक लिख कर और संजय उपाध्याय ने इसे मंचित कर इस अनभिज्ञता को काफी हद तक कम किया है | इस बीच मुझे महेंद्र मिश्र पर एक लेख बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की 'परिषद् पत्रिका '(अप्रैल २००७ से मार्च २००८)में डॉ. सुरेश कुमार मिश्र का 'महेंद्र मिश्र :जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय 'नाम से मिला | उस लेख को आप सभी सुधीजनों के लिए ज्यों का त्यों साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ | इस लेख को ब्लॉग जगत में आप पाठकों के समक्ष लाने का कोई व्यावसायिक प्रयोजन नहीं है,अपितु सांस्कृतिक चाहना है ,जो संभवतः एक जागरूक भोजपुरी भाषी होने के नाते ही उपजी है | उम्मीद है डॉ.सुरेश मिश्र जी इस स्थिति को समझेंगे | लेख किस स्तर का है इसे प्रबुद्ध वर्ग देखें पर यहाँ इसे प्रस्तुत करने का उद्देश्य मात्र मिश्र जी के बारे में जानकारी मुहैया करना है |- मोडरेटर जन्नत टाकिज ]

महेंद्र मिश्र या महेंदर मिसिर का नाम बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोकगीतकारों में सर्वोपरि है | वे लोकगीत की दुनिया के सम्मानित बादशाह थे | उनकी रचित'पूरबी'वहाँ-वहाँ तक पहुँची है,जहाँ-जहाँ भोजपुरी सभ्यता,संस्कृति एवं भोजपुरी भाषा पहुँची है |'हद्द छाड़ी बेहद्द भया' | मारीशस,फिजी,सूरीनाम तक उनकी पूरबी तथा अन्य गीत पहुँच चुके हैं | इतनी व्याप्ति का कारण यह रहा है कि,उनका कृतित्व अनेक विरोधी रचना-तत्वों से बना था और वे सिर्फ गायक ही नहीं,अपितु आशुकवि,संगीतकार,कीर्तनकार,प्रवचनकर्ता और धर्मोपदेशक भी थे | अपनी पूरी जिंदगी में उन्होंने कभी दूसरों द्वारा रचित गीत नहीं गया | हमेशा स्वरचित गीत ही गाते रहे |

जिस समय हिंदी की संत काव्य परंपरा के अंतिम कवि श्रीधर दस,धरनी दास और लक्ष्मी सखी आदि की रचनायें बिहार और उत्तर प्रदेश की भोजपुरी भाषी जनता में गूँज रही थी और भोजपुरी मिट्टी को काव्य और आध्यात्म की सौंधी खुशबू से जीवंत बना रही थी,उसी समय महेंद्र मिश्र की रचनायें भी समाजोद्धार एवं राष्ट्रीयता के आन्दोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज करा रही थीं | समाज के प्रति एक सजग साहित्यकार की भूमिका का निर्वाह करते हुए श्री मिश्र जी ने हिंदी में भी लिखा,भोजपुरी में भी लिखा और हिंदी-भोजपुरी मिश्रित काव्य-भाषा का निर्माण किया | यह तत्कालीन युग-धर्म की माँग थी | यह उनके लेखन का एक प्रयोगमय पक्ष ही कहा जायेगा कि,उन्होंने सिर्फ भोजपुरी भाषा में नहीं लिखा | संभवतः उनके समक्ष एक विराट क्षेत्र उपस्थित था,जो ना सिर्फ खड़ी बोली जानता था,न सिर्फ भोजपुरी बल्कि दोनों भाषाओं का प्रयोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में करता था और आज भी करता है |

महेंद्र मिश्र को लिखित-अलिखित भोजपुरी लोकगीतों की एक लम्बी और समृद्ध परंपरा मिली थी, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने एक विशाल वांग्मय की रचना की | मगर भोजपुरी भाषी जनता के भोजपुरिया संस्कारों ने उनके गुणों को कम ही स्वीकृति दी | उनके जीवन और साहित्य के सम्बन्ध में अनेक अप्रमाणिक घटनाओं को जोड़कर एक मनोहर और रोमांचक वायवीय मिथक का निर्माण किया जाता रहा | इसका परिणाम हुआ कि,उनका वास्तविक जीवन-वृत्त और सम्पूर्ण कवि-कर्म गौण एवं विलुप्त होता गया | कभी-कभी तो कल्पित घटनाओं का इतना सुन्दर,मोहक वितान खड़ा किया गया कि, ऐसा प्रतीत होने लगता है कि,वे ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं, कोई मिथकीय पात्र हैं |

वस्तुतः,महेंद्र मिश्र भोजपुरी भाषा और साहित्य को उर्ध्वमुखी दिशा प्रदान करने वाले, उसमें काव्य और आध्यात्म के माध्यम से गंभीर जीवन दर्शन का पुट भरने वाले और अश्विनी कुमारों की तरह जीवन को जीने वाले एक जागरूक कवि थे | तन-मन से एक समर्पित गायक और प्रसंग तथा अवसर के अनुरूप कविता रच लेने की सारस्वत क्षमता के कारण उनकी कविता में गेयता का स्थान सर्वोपरि है | बिलकुल वैसे ही जैसे तुलसी,सुर,निराला और महादेवी वर्मा में है और जैसे उनके रचनाओं के काव्य और संगीतात्मकता को अलग नहीं किया जा सकता |
                                                                                               
{ शेष अगली कड़ी में....}

महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय (दूसरा भाग)

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गतांक से आगे...

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महेंद्र मिश्र का जन्म सारण जिला (बिहार) के मुख्यालय छपरा से १२ किलोमीटर उत्तर स्थित जलालपुर प्रखंड से सटे एक गाँव कांही मिश्रवलिया में १६ मार्च,१८८६ को मंगलवार को हुआ | कांही और मिश्रवलिया दोनों गाँव सटे हैं | बीच में एक नाला अथवा नारा था,जिसके किनारे कांही पर होने के कारण इस गाँव का नाम कांही मिश्रवलिया कहा जाने लगा | इस गाँव में अन्य जातियों के लोग भी थे पर ब्राह्मणों की जनसँख्या अधिक थी,आज भी है | ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण-मिश्र पदवीधारी लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के लगुनही धर्मपुरा से आकर बस गये थे | संभवतः रोज़ी-रोटी और शांति की तलाश में ये लोग पश्चिम से पूर्व की तरफ बढ़े थे | गाँव में आकर बसने वाले प्रथम व्यक्ति का पता नहीं चलता पर महेंद्र मिश्र के छोटे भाई श्री बटेश्वर मिश्र जो आज भी जीवित हैं,की बात मानें तो उस प्रथम व्यक्ति की पाँचवीं पीढ़ी में महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ था |

मिश्र जी के परिवार के सदस्य बताते हैं कि महेंद्र मिश्र का जन्म किसी शिवभद्र दास साधु के आशीर्वाद से हुआ था और उसी साधु की इच्छानुसार बालक का नाम महेंद्र हुआ | स्वाभाविक है, ऐसी घटना का कोई प्रमाण नहीं है | महेंद्र मिश्र के पिता का नाम था - शिवशंकर मिश्र | संपन्न परिवार के थे | छपरा के तत्कालीन जमींदार हलिवंत सहाय के वसूली क्षेत्र (असूलात) के एक छोटे जमींदार थे तथा दोनों में गहरी मित्रता थी | शिवशंकर मिश्र हलिवंत सहाय के पुजारी नहीं थे - जैसा कुछ लोगों ने कल्पना कर लिया है | संतान होने की दीर्ध प्रतिक्षोपरांत पत्थर पर दूब की तरह महेंद्र मिश्र का जन्म हुआ |

इस समय मिश्रवलिया में एक संस्कृत पाठशाला चलता था | लेकिन महेंद्र मिश्र के बालमन से उस नियमित और रटंत संस्कृत शिक्षा से विद्रोह करते हुए कभी उसे मन से स्वीकार नहीं किया | उनके आचार्य थे पंडित नान्हू मिश्र जो विद्वान पंडितों की श्रेणी में आते थे | पाठशाला उन्हीं के दरवाजे पर चलता था | गाँव के बीच में एक जोड़ा मंदिर था जहाँ हनुमान जी का अखाड़ा था | मंदिर के प्रांगण में हमेशा रामायण मण्डली द्वारा गायन-वादन होता था | अखाड़े में हमेशा कुश्तियाँ होती रहती थीं | रामायण मण्डली का प्रभाव,संगीत के प्रति आकर्षण और कुश्ती के रोमांच ने महेंद्र मिश्र को शिक्षा के अखाड़े से बाहर कर दिया | रामायण सुनने और गाने की अभिरुचि बढ़ी तो फिर बढती ही गयी | कालान्तर में वे बढ़िया घोड़ा रखने के शौक़ीन बने छरहरे बदन के पहलवान बने और सजीले गठीले बदन वाले कड़क मूँछ के जवान बने |

घर के लोगों की विशेष कोशिश से वे उन्हीं पंडित नान्हूँ मिश्र की पाठशाला में वे जाने लगे | वहाँ अध्ययन कम ही हुआ,श्रवण और मनन अधिक हुआ | जिस समय पंडित जी संस्कृत के जिज्ञासु और शास्त्री-आचार्य के छात्रों को अभिज्ञान शाकुंतलम,रघुवंशम और ऋतु संहारम आदि का प्रबोध कराते उस समय वे चुपचाप सबकुछ सुनते | कुछ समझते,कुछ नहीं समझते | इस तरह संस्कृत साहित्य के भक्ति-काव्य,श्रृंगार-काव्य और प्रकृति-वर्णन की परम्परा से उनका परिचय हुआ | वातावरण ने असर दिखाया | उनके भीतर जो कवि-गीतकार सुषुप्त पड़ा था,आँख मलते अंगड़ाईयाँ लेने लगा | अध्ययन के स्थान पर सरस्वती-पुत्र ने गुनगुनाना सीखा | बुद्धि और भाव देखकर लोगों ने कहना शुरू किया इस बालक की जिह्वा पर सरस्वती का स्थान है | काव्यशास्त्रीय भाषा में जिसे 'प्रतिभा'कहा गया है,वही ईश्वरीय प्रतिभा दृष्टिगोचर होने लगी | विधिवत कोई विद्यालयी उपाधि उन्हें प्राप्त हुई,इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता | उनके सम्पूर्ण लेखन में आये तत्सम शब्दों का प्रयोग,यत्र-तत्र संस्कृत में उद्धृत संस्कृत के श्लोक तथा विधिवत पौराणिक प्रसंग आदि सिद्ध करते हैं कि,किसी न किसी रूप में संस्कृत साहित्य से वे परिचित अवश्य थे |

जिस समय शिवशंकर मिश्र का निधन हुआ उस समय बाबू हलिवंत सहाय का सितारा गर्दिश में था | उनके पट्टीदार लोगों से संपत्ति पर हक़ के लिए उनका मुकदमा चल रहा था | हलिवंत सहाय विधुर थे,इस बीच उनको एक सलाहकार और विश्वस्त व्यक्ति की जरुरत थी | मुजफ्फरपुर की एक प्रसिद्ध गायिका और नर्तकी की बेटी ढेलाबाई का अपहरण कर छपरा लाने में वे महेंद्र मिश्र की भूमिका से परिचित हो चुके थे | फलतः हलिवंत सहाय ने उन्हें अपनी पूरी संपत्ति का ट्रस्टी बना दिया था | असल में महेंद्र मिश्र उनके अन्तरंग सखा,एक मात्र शुभचिंतक अभिभावक और सलाहकार बन चुके थे | हलिवंत सहाय ने ढेलाबाई को अपनी पत्नी का सम्मानित दर्ज़ा प्रदान कर दिया तथा चल बसे | उनके पट्टीदारों ने उनकी नई पत्नी को उनकी पत्नी मानने से इनकार कर दिया तथा उसको भगाकर सारी संपत्ति से बेदखल करना चाहा तो महेंद्र मिश्र ने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए ढेलाबाई की मदद की | चूँकि न्यायालय द्वारा सारी संपत्ति जब्त कर ली गयी थी,महेंद्र मिश्र अपनी छोटी जमींदारी की आय से उनकी मदद भी करते थे |
                                                                   
                                                                  
शेष अगली पोस्ट में...

महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय ( भाग-३)

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गतांक से आगे ...

...सारे देश में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा जा रहा था । जमींदारी प्रथा ध्वस्त हो रही थी । देश की राजनीति के क्षितिज पर गांधी जी का उदय हो चुका था और वे रामकृष्ण परमहंस,आर्य समाज, ब्रह्म समाज,गोखले और तिलक की समतल की गयी भूमि पर विराट जन जागरण पर आधारित स्वतंत्रता संग्राम की नींव दे चुके थे । अधिकाँश उद्योगपति एवं बड़े-बड़े जैम्नदार ऊपर से गांधी के साथ मगर हृदय से साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ हो गए थे ।

महेंद्र मिश्र भी एक छोटे जमींदार थे । उन्हें लगा कि वे न तो अपने परिवार के प्रति जिम्मेवार रह गए हैं न अपने जमींदार मालिक स्वर्गीय हलिवंत सहाय के प्रति ही और न ढेलाबाई की ही ठीक से सहायता कर रहे हैं । उनकी प्रथम पत्नी अपने मायके (तेनुआ) की संपत्ति पर ही रहती थी,सुन्दर भी नहीं थी,पारिवारिक जीवन भी तनावपूर्ण ही चल रहा था हालंकि उन्हीं पत्नी परेखा देवी से उनके पुत्र हिकायत मिश्र का जन्म हो चुका था संगी साथियों,गुनी कलाकारों और देश को समर्पित युवा क्रांतिकारियों का सहायता द्वार भी बंद हो रहा था । उन्होंने एक निर्णय लिया और चल पड़े कलकत्ता । महेंद्र मिश्र ने सिर्फ देना सिखा था,लेना और माँगना उनके शब्दकोष में थे ही नहीं । इसका कारण था बचपन से लेकर यौवन तक उन्होंने अभाव तो जाना ही नहीं था । पूरा यौवन काल हलिवंत सहाय के दरबार में,दरबारी संस्कृति में,सामंती परिवेश में तथा नजाकत-नफासत से पूर्ण साफ़-सुथरी जीवन शैली में बीता था । पहली बार अर्थाभाव महसूस हुआ था । शायद यही कारण है कि,उनका सम्पूर्ण कवी-कर्म सामंती-परिवेश और रीतिकालीन दरबारी संस्कृति के प्रभाव से मुक्त होकर आम आदमी के अभाव और संघर्षपूर्ण जीवन से पूरी तरह साहचर्य स्थापित नहीं कर सका ।

कलकत्ता उस समय राष्ट्र की सभी औद्योगिक,राजनितिक एवं सांस्कृतिक उथल-पुथल का जीवित केंद्र था । भोजपुरी क्षेत्र के हजारों लोग कलकत्ता जाते और जीविकोपार्जन करते थे । महेंद्र मिश्र का उनसे आमदरफ्त था ।  बंगाली समाज की सोच और उनके सामाजिक,राजनीतिक जीवन दर्शन से वे पूर्ण परिचित भी थे । बंगाली युवकों की रगों में राष्ट्रभक्ति की जो तस्वीर,जो गर्मी और समर्पण की भावना उन्होंने इस यात्रा में महसूस किया तथा विक्टोरिया मैदान में नेताजी का उत्तेजक भाषण सुना उससे उनका मन बेचैन हो गया कि राष्ट्र के लिए कुछ होना चाहिए ।(*साक्षात्कार - श्री जनार्दन मिश्र,ग्राम-कांही,दिनांक-२०-९-१९९९)

एक दिन किसी अंग्रेज अफसर ने जो खूब भोजपुरी और बांग्ला भी समझता था,इनको 'देशवाली'समाज में गाते देखा । उसने इनको नृत्य-गीत के एक विशेष स्थान पर बुलवाया । ये गए । बातें हुईं ।वह अँगरेज़ उनसे बहुत प्रभावित हुआ । इनके कवि की विवशता,हृदय का हाहाकार,ढेलाबाई के दुखमय जीवन की कथा,घर परिवार की खस्ताहाली तथा राष्ट्र के लिए कुछ करने की ईमानदार तड़प देखकर उसने इनसे कहा- तुम्हारे भीतर कुछ ईमानदार कोशिशें हैं । हम लन्दन जा रहे हैं । नोट छापने की यह मशीन लो और मुझसे दो-चार दिन काम सीख लो । यह सब घटनाएँ १९१५-१९२० के आस-पास की हैं ।

महेंद्र मिश्र नोट छापने की मशीन लेकर मिश्रवलिया लौट आये । नोट बनाने का काम गुप्त रूप से शुरू हुआ । अब घर की रईसी लौटने लगी । छोटे भाई युवक हो रहे थे । पारिवारिक खर्च के अतिरिक्त अब उनकी इतनी सामर्थ्य भी हो चुकी थी कि असहाय ढेलाबाई की मदद भी कर सकें । ढेला का मुक़दमा ठीक से देखा जाने लगा । रिश्तेदार सम्बन्धियों का सेवा-सत्कार पहले की तरह जमींदारी ठाट से होने लगा । दरवाजे पर दो-दो हाथी झूमने लगे । सोनपुर मेला से सबसे महंगे घोड़े दरवाजे पर आने लगे ।(*साक्षात्कार-श्री दारोगा सिंह,ग्राम-मझवलिया । ये घोड़ों के शौक़ीन तथा प्रसिद्ध घुड़सवार थे। दिनांक-४-५-१९९६) हनुमान जी की पूजा शानदार ढंग से होने लगी । पहलवानों के झुण्ड के झुण्ड उतरने लगे तथा ज्ञात-अज्ञात स्थानों के साधू-महंथ आने लगे । अनगिनत पहलवान और बदमाश दिन-रात कसरत करते तथा भोजन माँग-माँगकर पड़े रहते । अनेक अज्ञात लोग आते और सुबह ही चल देते । यह सिर्फ महेंद्र मिश्र को पता होता था कि कौन क्या है,कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा तथा उसे क्या देना है । जो भी गरीब,असहाय एवं जरूरतमंद आता उसकी मिश्र जी खूब मदद करते । दिन-रात गीत-गवनई की महफ़िल गुलजार रहती तथा स्वयं भी छपरा,मुजफ्फरपुर,पटना,कलकत्ता तथा पश्चिम नें बनारस,ग्वालियर और झाँसी तक के गायकों के पास वे पहुँचकर गाते और संगीत में संगत करते उनकी गायन-वादन कला दिन रात निखरती गई । संगीत में उनकी रूचि बहुत गहरी थी और उनकी इस रूचि को देखकर कहा जा सकता है कि संगीत और काव्य सृजन उनके रोम-रोम में बसा था । तात्पर्य यह कि लक्ष्मी और सरस्वती की साधना चलने लगी । अनेक क्रांतिकारी युवक मिश्रवलिया आने लगे तथा मिश्र जी उनकी भरपूर आर्थिक मदद करते । गांधी जी के आह्वान पर आयोजित होने वाले धरना,जूलूस-पिकेटिंग आदि कार्यक्रमों में भाग लेने वाले सत्याग्रहियों के भोजन आदि का सम्पूर्ण व्यय भार वहन करते ।(*साक्षात्कार-श्री नथुनी मिश्र,ग्राम- संवरी बाजार । ये महेंद्र मिश्र के अभिन्न मित्र थे । दिनांक - ४ -५-१९९६) गाँव-ज्वार में घूम-घूमकर पंचायती करते । दूसरी तरफ,सम्पूर्ण उत्तरी भारत में जाली नोटों की  भरमार हो गयी । तब अंग्रेजी सरकार के खुफिया विभाग के कान खड़े हुए । उस समय छपरा मुफस्सिल थाना के अंतर्गत ही जलालपुर था । थाना को मालूम था कि नोट कहाँ छपते हैं पर थाना की मिलीभगत थी,इसीसे किसी को सीधा पता नहीं चलता था । हलिवंत सहाय का मित्र-सहायक जानकार भी थाना चुप लगा जाता था । नोट छापने के काम में चिरांद के गंगा पाठक आदि कई लोग शामिल थे । इन सबके बीच उनकी संगीत-साधना चलती रही ।  

शेष अगले अंक में ...

 

महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय (भाग-४)

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इस बात में कोई संदेह नहीं कि कभी महेंद्र मिश्र हलिवंत सहाय के रंगीन मुजरा महफ़िल में भी गाते थे और कभी-कभी नर्तकियों-गायिकाओं के निवास पर भी जाकर गायन वादन  में संगत करते थे । पर इस शौक का मूल कारण उनका संगीत प्रेम ही था । उनके इस संगीत प्रेम की तुलना उसी प्रकार हो सकती है जैसे जयशंकर प्रसाद संगीत  प्रेम के वशीभूत होकर बनारस की प्रसिद्ध गायिका सिद्धेश्वरी बाई के पास जाते थे अथवा भारतेंदु हरिश्चंद्र बंगाली विदुषी गायिकाओं मल्लिका और माधवी के कोठे पर जाते तथा कविता लिखने एवं संगीतमय कविता लिखने की प्रेरणा प्राप्त करते थे अथवा जैसे रीतिकाल के महाकवि घनानंद सुजान के साहचर्य अपनी भावयित्री-कारयित्री प्रतिभा के विन्यास के लिए कोमलता,प्रेरणा और गंभीर प्रेम की अभिव्यंजना-शक्ति प्राप्त करते थे ।

अगर महाकवि प्रसाद के सरस मधुमय गीतों की तरलता और मोहकता के पीछे और भारतेंदु काव्य की मसृणता के पीछे तथा घनानंद की ईमानदारी-भरी प्रेमाकुल कविताओं की रसवता के पीछे उपर्युक्त विदुषी गायिकाओं का अवदान माना जा सकता है तो महेंद्र मिश्र की काव्य की सरसता और पूर्वी गीतों की तरल अनुभूतियों के पीछे कतिपय गायिकाओं के अवदान तथा प्रेरणा-पुष्प को सहज स्वीकार किया जा सकता है ।

मिश्र जी को बोध था कि एक बुद्धिजीवी और एक साहित्य सर्जक का समाज और राष्ट्र के प्रति क्या कर्तव्य होता है । उनका हृदय खीचता था संगीत के महफ़िलों के आरोह-अवरोह और तरन्नुम की तरफ । उनका मस्तिष्क खींचता था राष्ट्रीय आन्दोलनों तथा उसमें शरीक हजारों लाखों व्यक्तियों की सेवा और त्याग की तरफ । कवि की विवशता थी कि वह इन दोनों में से किसी को छोड़ नहीं सकता था । उसके लिए एक श्रद्धा थी,दूसरी इड़ा । जिस तरह  दिनकर की पारिवारिक विवशता थी अंग्रेजों की गाडी पर चढ़कर अंग्रेजी अंग्रेजी सरकार की प्रशंसा के गीत गाना,बहुत कुछ वही विवशता महेंद्र मिश्र के साथ भी थी-परिवार,समाज और राष्ट्र की सेवा के समानांतर संगीत एवं कविता का सृजन करना । दिनकर और महेंद्र मिश्र की मजबूरी एक-सी थी क्योंकि दोनों देश के लिए कुछ करना तो चाहते थे पर दोनों अपने परिवार की वास्तविक माली हालात से टूटे हुए भी थे । महेंद्र मिश्र दोनों कार्य सधे हाथों से करते रहें । जो कवि लिख सकता था "एतना बता के जईह कईसे दिन बीती राम"- तथा "केकरा पर छोड़ के जईब टूटही पलानी,केकरा से आग मांगब,केकरा से पानी"वह आदमी समाज की घोर दरिद्रता,घोर संकट और यथार्थ जीवन से खूब परिचित था,इसमें कोई संदेह नहीं ।

सामाजिक मूल्यों पर कोई दुष्प्रभाव पड़े-ऐसा कोई कार्य महेंद्र मिश्र ने यावज्जीवन नहीं किया । महेंद्र मिश्र के परिवार के सदस्य तथा सैकड़ों बुजुर्ग आज भी गर्व के साथ कहते हैं कि महेंद्र मिश्र सम्पूर्ण अंग्रेजी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने के लिए नोट छापते थे । इस कथन पर सहज ही विश्वास हो जाता है क्योंकि उनका एक अधूरा गीत इस आशय को ही ध्वनित करता है-
"हमरा नीको ना लागे राम गोरन के करनी 
 रुपया ले गईले,पईसा ले गईलें,ले सारा गिन्नी 
 ओकरा बदला में दे गईले ढल्ली के दुअन्नी ।"(*अखिल भारतीय साहित्य सम्मलेन के तीसरे अधिवेशन,सिवान के अवसर पर प्रकाशित ब्रजभूषण तिवारी का निबंध ।पृ-९८)

वहीँ विश्वनाथ सिंह (बिहार स्वतंत्रता सेनानी संघ के अध्यक्ष ) तथा प्रसिद्ध स्वंत्रता सेनानी श्री तपसी सिंह (चिरांद,सारण ) के एक लेख में भी मिश्र जी द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद करने की बात कही गयी है ।(*अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के चौदहवें अधिवेशन,मुबारकपुर,सारण.१९९४ के अवसर पर प्रकाशित लेख 'इयाद के दरपन में'। संपादक श्री राजगृही सिंह तथा व्यास मिश्र ।) बाबू रामशेखर सिंह(सांसद,छपरा)जो स्वयं भी स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं,बताते हैं कि उनका घर स्वतंत्रता सेनानियों का अड्डा था और महेंद्र मिश्र हमेशा उनके घर पर पहुँचते रहते थे तथा उनके पिता तथा चाचा श्री दईब दयाल सिंह आदि के साथ हमेशा राजनीतिक घटनाओं पर बातचीत करते रहते थे ।(*साक्षात्कार-श्री रामशेखर सिंह,कांग्रेसी सांसद एवं स्वतंत्रता सेनानी । साक्षात्कारकर्ता-अविनाश नागदंश ।"सारण वाणी"के महेंद्र मिश्र विशेषांक में प्रकाशित । सम्पादक श्री शालिग्राम शास्त्री । पृ.-७१) मिश्रवलिया के आसपास के अनेक वृद्ध व्यक्ति साक्षात्कार के समय बताते रहे हैं कि महेंद्र मिश्र गुप्त रूप से क्रांतिकारियों एवं स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद होने वाले परिवारों को मुक्तहस्त सहायता किया करते थे । रामनाथ पाण्डेय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास "महेंदर मिसिर"में स्वीकार किया है कि, महेंद्र मिश्र अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि शोषक ब्रिटिश हुकूमत की अर्थव्यवस्था को धराशायी करने और उसकी अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे ।(*'महेंदर मिसिर'उपन्यास । लेखन श्री रामनाथ पाण्डेय ।"आपन सफाई "पृष्ठ- ट से ठ )

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महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय (भाग - ५)

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सन १९२०ई. के जुलाई अगस्त माह में पटना के सीआईडी सब-इन्स्पेक्टर जटाधारी प्रसाद को नोट छापने वाले व्यक्ति का पता लगाने की जिम्मेवारी सौंपी गई । उनके साथ सुरेन्द्रनाथ घोष भी लगे । जटाधारी प्रसाद ने भेष और नाम बदल लिया । वे हो गए गोपीचंद और महेंद्र मिश्र के घर नौकर बनकर रहने लगे । धीरे-धीरे गोपीचंद उर्फ़ गोपीचनवा महेंद्र मिश्र का परम विश्वस्त नौकर हो गया । इसी की रिपोर्ट पर ६ अप्रैल १९२४ ई. की चैत की अमावस्या की रात में एक बजे महेंद्र मिश्र के घर डीएसपी भुवनेश्वर प्रसाद के नेतृत्व में दानापुर की पुलिस ने छापा मारा । पुलिस की गाड़ियाँ उनके घर से एक किलोमीटर की दूरी पर रहीं । पाँचों भाई और गोपीचनवां मशीन के साथ नोट छापते पकड़े गए । पर गनीमत थी कि महेंद्र मिश्र नोट छापने के समय सोये थे और दूसरे लोग नोट छाप रहे थे । महेंद्र मिश्र पकड़े गए । उनका मुकद्दमा हाईकोर्ट तक गया । लोअर कोर्ट से सात वर्ष की सजा हुई थी महेंद्र मिश्र को,जो बाद में महज तीन वर्ष की रह गई । जेल जाते समय गोपीचंद उर्फ़ जटाधारी प्रसाद ने अपनी आँखों में आँसू भरकर मिश्र जी से कहा - बाबा,हम ड्यूटी से मजबूर थे पर हमें इस बात की बड़ी प्रसन्नता हुई है कि,अपने देश के लिए बहुत कुछ किया और देश के लिए ही जेल जा रहे हैं । जब मिश्र जी के कंठ से कविता की दो पंक्तियाँ - "पाकल पाकल पनवाँ खियवले गोपीचनवां, पिरतिया लगाके भेजवले जेलखानवां "- निकली तो गोपीचंद ने उनके पाँव पकड़ लिए और उसने भी वही निम्न पंक्तियाँ सुनाई - " नोटवा जे छापी गिनियाँ भजवल हो महेंदर मिसिर,ब्रिटिश के कईलन हलकान हो महेंदर मिसिर,सगरी जहनवाँ में कईल बड़ा नाम हो महेंदर मिसिर,पड़ल बा पुलिसवा से काम हो महेंदर मिसिर ।"गोपीचंद ने कहा - हमें अफ़सोस है कि,अपने मन में भी देश सेवा का एक सपना था वह पूरा नहीं हो सका,कारण मेरी सरकारी नौकरी थी । पर आप महान हैं कि,आपने देश के लिए बहुत कुछ किया । महेंद्र मिश्र बक्सर सेन्ट्रल जेल भेजे गए पर वे जेल में बहुत कम दिन ही रहे । जेल में भी संगीत और कविता की रसधार बहाते रहते थे और उनके इसी गुण पर मुग्ध होकर तत्कालीन जेलर ने उन्हें अपने डेरे पर रख लिया । जेलर की पत्नी एवं बच्चों को वे सरस स्वरचित भजन एवं कविता सुनाते तथा सत्संग करते । वहीँ पर भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य और उनका गौरव-ग्रन्थ "अपूर्व रामायण"रचा गया ।

यह ध्यातव्य है कि,महेंद्र मिश्र को काव्य-संगीत सृजन की कला किसी विरासत में नहीं मिली थी । जो भी उनके द्वारा सृजित हुआ,स्वतःस्फूर्त था । वे अति सामाजिक व्यक्ति थे । जहाँ रहते विभिन्न दृष्टान्तों एवं घटनाओं से सबको हँसाते रहते और किसी भी समाज पर छा जाते । दृष्टांत,चुटकुले,दोहे तथा कहावतों से वातावरण को सजीव बना देते थे । हाजिर-जवाबी तथा वाकपटु में वे अद्वितीय थे । ज्यादातर वे तबला,हारमोनियम बजाते । जेल से छूटकर घर आने के बाद वे कीर्तन तथा रामकथा एवं कृष्णकथा सुनाते । राधेश्याम रामायण तथा उसके तर्ज़ उन्हें बहुत प्रिय थे । नौटंकी शैली में उनका कीर्तन बहुत प्रभावशाली होता । तबला,हारमोनियम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा वाद्य-यन्त्र नहीं था,जिसे वे नहीं बजाते थे तथा पूरे अधिकार से बजाते थे । यह भी ध्यान योग्य है कि,उनका कोई भी संगीत गुरु नहीं था,कोई रहा भी हो तो उसकी चर्चा उन्होंने कहीं नहीं की है । संभवतः सब कुछ उनकी स्व-साधना से उपलब्ध था । प्रारम्भिक दिनों को छोड़ दें तो उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्षपूर्ण एवं करूण रहा था । ऊपर से वह भले ही हास्य-विलासपूर्ण जीवन जीते रहे,उनके भीतर एक कोमल और अत्यंत ही संवेदनशील कवि था । मूलतः वे साहित्यप्रेमी और सौहार्दप्रेमी कलाकार थे । वैसे भी कहा जाता है कि,जिसने अभाव, संघर्ष और पीड़ा को आत्मसात नहीं किया हो, जिसके स्वयं के भीतर विरह की बाँसुरी न बजी हो,वह कविता तो लिख ही नहीं सकता । महेंद्र मिश्र ने प्रेम और सौहार्द को भोगा और जिया था,यही कारण है कि,उनकी श्रृंगारिक कविताओं में एक प्रकार की रोमांटिक संवेदना है । प्रेम की कोमलता है । काम की भूख और मानसिक द्वंद्व है तो भक्तिपरक रचनाओं में मानव नियति की चिंता भी है ।


   
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महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय ( भाग - ६ )

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गतांक से आगे ...

...रामचरित मानस और रामायण उन्हें बहुत कंठाग्र था । जिस तरह तुलसी ने पांडित्य संस्कृत का त्याग कर अवधी भाषा का प्रयोग किया और रामकथा को जन-जन तक पहुँचाया,उसी प्रकार महेंद्र मिश्र ने भोजपुरी भाषा में कथावाचक शैली में जीवन भर रामकथा का प्रचार-प्रसार किया । जब वे रामकथा का कीर्तन करते तो २०-२० हजार श्रोता मन्त्रमुग्ध हो उनको रात भर सुनते रहते । यही कारण है कि महेंद्र मिश्र की कविताओं को सुनने जानने की उत्कंठापूर्ण लालसा सुदूर अंचलों प्रान्तों तक की जनता में रही है । प्रसाद गुण और माधुर्य गुण से पुष्ट उनकी भाषा मानो आत्मा के लिए प्रकाश की खोज करती रही है । रामकथा के इस व्याख्याता सर्जक को राम काव्य परंपरा का प्रमुख कवि माना जाना चाहिए ।

अंतिम समय में वे मात्र आठ दिन बीमार रहे । आँख की रौशनी,मनुष्य को पहचानने की क्षमता तथा कविता से प्रेम उनके अंतिम क्षण तक बने रहे । २६ अक्टूबर १९४६ ईस्वी को मंगलवार की सुबह में बिहाग गाना और भैरवी की तान उठाना थम गया । छपरा में सम्मानित शिवमंदिर में कवि ने अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया ।

महेंद्र मिश्र का रचना काल १९१०-१९३५ हिंदी साहित्य का छायावादी काल था पर संभवतः उन्होंने छायावादी साहित्य से कोई सम्बन्ध नहीं रखा । यह उनकी कोई सीमा रही होगी । सरथ ही यह देखकर भी आश्चर्य होता है कि उनके सम्पूर्ण काव्य में राष्ट्रभक्ति परक अंग्रेज़ विरोधी रचनायें मात्र एक कविता को छोड़कर नहीं मिलती । जिस प्रकार छायावादी साहित्य में भी तत्कालीन राष्ट्रीय आन्दोलनों की अनूगूंज बहुत कम सुनाई पड़ती है उसी प्रकार महेंद्र मिश्र का काल भी राष्ट्रीयता परक कविताओं से बिल्कुल कटा-कटा है । कारण चाहे जो रहे हों ।

एक तथ्य और विचारणीय है कि महेंद्र मिश्र ने अपने लिए अपना मंच स्वयं निर्मित किया । उन्होंने कभी भी नाच,नौटंकी या लोक नाटक से स्वयं को नहीं जोड़ा । उनके रचना काल में (१९१०-१९३५ तक) छोकड़ा नृत्य,पुरुष नृत्य या लोक नाटकों को समाज आदर की दृष्टि से नहीं देखता था । आम जनता की रूचि और संस्कार का परिष्कार करने हेतु उन्होंने भिखारी ठाकुर को सिखाया कि भजनों,आध्यात्मिक प्रसंगों तथा कीर्तन आदि द्वारा समाजोद्धार करना भी राष्ट्रभक्ति का ही एक रूप है । महेंद्र मिश्र के बहुत से मौलिक एवं कल्पित प्रसंगों तथा गीतों की धुन की नींव पर भिखारी ठाकुर ने अपने लोक नाटकों की शानदार ईमारत खड़ी की ।

तत्कालीन युग की आम जनता की रुग्ण मानसिकता,कलात्मक रूचि के ह्रास,नैतिकता बोध की कमी और सामाजिक मान्यता को ध्यान में रखकर विचार किया जाये तो यह सिद्ध होता है कि मिश्र जी द्वारा गायिकाओं,कलाकारों एवं नर्तकियों आदि से घनिष्ट सम्बन्ध रखने के मूल में उनकी सामाजिक सुधार की तीव्र भावना ही कार्य कर रही थी । समाज में फैले कुरीतियों तथा गलत चीजों के प्रति उनके मन में विद्रोह का भाव था । कुलटा स्त्री,बेमेल विवाह और भ्रष्ट आचरण से सम्बंधित उनकी अनेक कवितायें इस कथन का प्रमाण हैं । अपनी रचनाओं से उन्होंने भोजपुरी भाषा,साहित्य और समाज की जो सेवा की वह अपूर्व है । उनकी कविताओं में कहीं भी भदेसपन नहीं है,ठेठपन का आग्रह नहीं है,गंवारूपन नहीं है । यही विशेषताएं हैं कि उनकी रचनाओं को लोक कंठ ने कभी विस्मृत नहीं किया । उनकी कवितायें पुस्तकाकार नहीं मिलीं,तो वे कंठ से कंठ तक ही विस्तार पाती रहीं । इस प्रकार वे संगीत की वाचिक परंपरा को पोषित करती रहीं ।

भोजपुरी के एक विद्वान आलोचक महेश्वराचार्य का यह कथन बिल्कुल उचित लगता है कि "जो महेंदर न रहितें त भिखारी ठाकुर ना पनपतें । उनकर एक एक कड़ी ले के भिखारी भोजपुरी संगीत रूपक के सृजन कईले बाडन । भिखारी के रंगकर्मिता कलाकारिता के मूल बाडन महेंदर मिश्र जेकर ऊ कतहीं नाम नईखन लेले । महेंदर मिसिर भिखारी ठाकुर के रचना-गुरु,शैली गुरु बाडन । लखनऊ से लेके रंगून तक महेंदर मिसिर भोजपुरी के रस माधुरी छींट देले रहलन,उर्वर बना देले रहलन,जवना पर भिखारी ठाकुर पनप गईलन आ जम गईलन हाँ ।"(भोजपुरी सम्मलेन पत्रिका में श्री महेश्वराचार्य का निबंध । फ़रवरी १९९० ,पृष्ठ-३१.) आज भी महेंदर मिश्र के साथी समकालीन बुजुर्ग आ भिखारी ठाकुर के जीवित समाजी लोग बताते हैं कि "पूरी बरसात भिखारी ठाकुर महेंद्र मिश्र के दरवाजे पर बिताते थे तथा महेंद्र मिश्र ने भिखारी ठाकुर को झाल बजाना सिखाया ।"(भिखारी ठाकुर के समाजी भदई राम,शिवलाल बारी और शिवनाथ बारी से साक्षात्कार । साक्षात्कारकर्ता -डॉ.सुरेश कुमार मिश्र एवं डॉ.रवीन्द्र त्रिपाठी । दिनांक २३-५-१९९२ ।) महेंद्र मिश्र का "टुटही पलानी"वाला गीत ही भिखारी ठाकुर के "बिदेसिया"की नींव बन गया ।"(महेश्वराचार्य का वही लेख । पृष्ठ-३३)

महेंद्र मिश्र के गीतों में आम जन का प्रेम,आम जन की पीड़ा,संघर्ष भोजपुरी जीवन का इतिहास और भोजपुरी संस्कृति के प्रति सजग दृष्टि मिलती है । उनकी एक महान देन है "पुरबी"उनके पहले पुरबी गीत भी था,इसका पता नहीं चलता । उनको भोजपुरी भाषी जनता "पुरबी का जनक"मानती है । उनके पुरबी गीतों की काफी नकलें करने की कोशिशें हुई,पर असल असल रहा । इधर एक विद्वान ने संत साहित्य परम्परा का गहन विश्लेषण कर दिखलाया है कि महेंद्र मिश्र के पहले भी निर्गुणिया संतों ने पुरबी नाम से कई पद लिखा है ।(महेंद्र मिश्र और पूर्वी लेखन की परंपरा । लेखक-डॉ.विनोद कुमार सिंह ।"सारण वाणी"के महेंद्र मिश्र विशेषांक में प्रकाशित । पृष्ठ-१६-२२) पर उनमें और महेंद्र मिश्र के पुरबी गीतों में पर्याप्त अंतर है । मिश्र जी के पुरबी गीतों की तासीर ही कुछ अलग है । महेंद्र मिश्र के पुरबी गीत न तो किसी परंपरा की उपज हैं,न नक़ल हैं,न उनकी नक़ल ही संभव है ।...


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महेंद्र मिश्र : जीवन एवं सांस्कृतिक परिचय (अंतिम भाग)

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गतांक से आगे (अंतिम भाग)...
भोजपुरी के किसी कवि गीतकार की तुलना में महेंद्र मिश्र का शास्त्रीय संगीत का ज्ञान अधिक व्यापक एवं गंभीर रहा है | उन्होंने कविता और संगीत के रिश्ते पर विचार किया जैसे सूरदास, निराला एवं प्रसाद ने किया | उनकी कविता सिद्ध करती है कि कविता में संगीत का तत्व होना कितना आवश्यक है | खासकर आज, जब मंचीय कवियों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है और कविता का संगीत अथवा लय से रिश्ता लगभग समाप्त हो रहा है, उनकी कविता का महत्व बहुत बढ़ जाता है | वे जानते थे कि जिस तरह नाटक अभिनेयता के कारण ही सम्पूर्णता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार कविता भी सांगीतिक तत्वों के साहचर्य से ही खिलती है और वास्तविक भावक के हृदय तक संप्रेषित होती है | उन्होंने व्याख्यान तथा कीर्तन का मंच भी अपनाया और जीवन भर कविता लिखते रहे | उनके गीत अर्थ और अनुभव की अनेक धाराओं को खोलने वाले हैं और वे सहज ही अक्षर और ध्वनि के बीच संगीत खोज लेते हैं | यही कला उनको एक समर्थ कवि-गीतकार के रूप में उपस्थापित करती है |
मिश्र जी की चिंता में हैं मानवीय भाव जगत के विभिन्न व्यापार, जिनमें संयोग की चिंता बहुत कम है, वियोग की मार्मिकता अधिक बेधक है | आज वैश्वीकरण और हाई-टेक-संस्कृति की भाषा की आपाधापी में मुख्यतः कविता और उसकी संवेदनशीलता का तेजी से क्षरण हो रहा है | घोर बौद्धिक युग का अवतार हुआ है और मानव की जड़ीभूत हो रही संवेदना उसे मानव रहने देगी,इसमें संशय हो रहा है | महानगरीय संस्कृति और उपभोक्तावादी जीवन-पद्धति के दौर में मानव को मानव बने रहने देना एक भीषण चुनौती है | एक साहित्यकार की संवेदनशीलता ही इस संकट की घड़ी में मानव के साथ है | ऐसी कविता जो छू सके, कहीं चित को शीतलता और शांति प्रदान कर सके - महेंद्र मिश्र की लेखनी से निकलती है | उनकी कविता सहज रूप से कहीं छूती है भीतर कुछ महसूस कराती है और सचमुच कविता कही जाने की अधिकारी है |
मिश्र जी द्वारा प्रणीत गीतों बीसों काव्य-संग्रहों की चर्चा उनके "अपूर्व रामायण"तथा अन्य स्थानों पर आई है | महेंद्र मंजरी, महेंद्र विनोद, महेंद्र दिवाकर, महेंद्र प्रभाकर, महेंद्र रत्नावली, महेंद्र चन्द्रिका, महेंद्र कुसुमावती, अपूर्व रामायण सातों कांड, महेंद्र मयंक, भागवत दशम स्कंध, कृष्ण गीतावली, भीष्म बध नाटक आदि की चर्चा हुई है | पर इनमें से अधिकाँश आज अनुपलब्ध हैं | एकाध प्रकाशित हुए और शेष आज भी अप्रकाशित हैं | मेरा अनुमान है कि ये छोटे-छोटे काव्य-संग्रह रहे होंगे और उनके गायक मित्रों द्वारा ले लिए गए अथवा सम्यक रख-रखाव के अभाव में काल कवलित हो गए | उनके अन्वेषण का कार्य शिथिल ही है | कवि ने अपने अपूर्व रामायण के अंत में अपना परिचय एक स्थल पर दिया है, जो सर्वाधिक प्रामाणिक परिचय है -
"मउजे मिश्रवलिया  जहाँ  विप्रन के ठट्ट बसे,
सुन्दर सोहावन  जहाँ  बहुते  मालिकाना  है |
गाँव के पश्चिम  में विराजे  गंगाधर नाथ ,
सुख  के  स्वरुप  ब्रह्मरूप  के  निधाना  हैं |
गाँव  के  उत्तर  से  दखिन  ले  सघन  बांस ,
पूरब  बहे  नारा  जहाँ  कान्ही  का सिवाना  है |
द्विज  महेंद्र  रामदास पुर के ना  छोड़ो  आस,
सुख दुःख  सब सह  करके  समय  को बिताना  है |"
 (अपूर्व रामायण  तारीख  ०३-०५-१९२९ मंगलवार को  समाप्त  हुआ  |) 
दरबारी संस्कृति एवं सामन्ती वातावरण में रहकर भी महेंद्र मिश्र दरबारीपन से अलग रहे | हलिवंत सहाय जैसे वैभव विलासी के दरबार में रहकर भी उन्होंने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में एक भी कविता नहीं लिखी हैं | रीति काव्य परम्परा का प्रभाव उनके साहित्य पर है तथापि राधा कृष्ण के प्रेम चित्रण के नाम पर नख-शिख-वर्णन, काम-क्रीड़ा-दर्शन, शब्द-चातुरी अथवा दोहरे अर्थ वाले वाक्यों का प्रयोग उन्होंने नहीं किया है | वे मूलतः संस्कारी भक्त थे, जिन पर राम भक्ति काव्य-परंपरा एवं कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा का ही विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है | अगर तुलसी ने राम भक्ति भव्य प्रसाद निर्मित किया है तो महेंद्र मिश्र ने भी शीतल राम मडैया खड़ा करने की कोशिश की है | उनकी कृष्ण भक्ति की कविताओं की अपेक्षा राम भक्ति की कविताओं में भक्ति तत्व अधिक हैं | ऐसा शायद इसलिए भी हुआ है कि वे हनुमान के परम भक्त थे | असल में महेंद्र मिश्र का युग ही ऐसा था | उसके पूर्व भोजपुरी साहित्य का सृजन तो कम हुआ ही था और उस युग का हिंदी साहित्य भक्ति और श्रृंगार की मिली-जुली परंपरा का निर्वाह जिस प्रकार भारतेंदु ने किया उसी प्रकार महेंद्र मिश्र ने भी किया | उनका हृदय भक्ति के रस से डूबा हुआ था पर उनकी संगीत साधना श्रृंगार एवं प्रेम से सिक्त थी | अपने जीवन का अधिकांश उन्होंने अपने सुख-वैभव में व्यतीत किया था, अतएव उनका रस प्रेमी हृदय उनकी रचनाओं में स्वतः अभिव्यक्त हो गया है | यहाँ यह भी स्मरणीय है कि उनकी साधनाओं कहीं भी बौद्धिक आध्यात्मिकपन नहीं है बल्कि आनंद की सरिता में अवगाहन की कोशिश है | उनकी रचनाओं का आधार श्रृंगारिक पर मूल भावना भक्तिमय ही है | उन्होंने भोजपुरी एवं खासकर पूरबी गीतों का अद्भुत परिमार्जन किया है |
महेंद्र मिश्र वस्तुतः इन्द्रधनुषी रचनाकार हैं | उनकी कविताओं ने अगर अपनी पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाई हैं, तो अवश्य ही उनमें कुछ वैशिष्ट्य रहा है | उन्होंने अपनी रचनाओं से भोजपुरी भाषा एवं साहित्य को समृद्धि प्रदान की है | रचनाकार का काम है रचना करना | रचना की सार्थकता और सामर्थ्य तय करना पाठकों का काम है तथा महेंद्र मिश्र की रचनाओं की सामर्थ्य को बेशक आम जनता ने तो तय कर दिया है | संस्कृत के आचार्य मम्मट ने एक स्थल पर लिखा है - "कविता की रस माधुरी तो कोई सहृदय पाठक ही जान पाता है न कि उसका रचयिता कवि | जैसे भवानी के भ्रू-विलास के सौंदर्य को भवानी-भर्ता शंकर ही जानते हैं न कि उनके जनक हिमालय |"(कविता  रसमाधुर्य  कर्विवेति  न  तत् कवि | भवानी  भृकुटीर्भंग  भवो  वेति  न  भूधर : ||"
मम्मट का कथन तो यहाँ तक स्वीकारता है कि स्वयं कवि से भी उच्च स्थान है, रसग्राही रसज्ञ पाठक का, जो कितनी ही अर्थ-छटाओं और भाव-भूमियों का तरल स्पर्श करता रस विभोर हो रस प्राप्त करता रहता है.........यही उनका स्थाई मूल्यांकन है | "भोजपुरी-काव्य में उनका वही स्थान है, जो मैथिली-काव्य में विद्यापति का |"(महेंद्र मिश्र की आध्यात्मिक चेतना : रमानाथ पाण्डेय | कविवर महेंद्र मिश्र के गीत संसार पृ.२३,सं.-डॉ.सुरेश कुमार मिश्र )

लोकनाट्य सांग

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[जन्नत टॉकीज पर लोक नाट्य रूपों के बारे में  एक इन्फोर्मेटिव(सूचनात्मक) टिप्पणी  की पहली कड़ी में हरियाणा के लोक नाट्य सांग के बारे में चंद बातें ]

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हरियाणा का लोकनाट्य ‘सांग’ नाटक के किसी शास्त्रीय रूप और बंधन से पूरी तरह नहीं जुड़ता | श्री जगदीश चंद्र प्रभाकर “सांग को प्राचीनतम नाम ‘संगीतक’ मानते हैं | उनका मानना है कि ‘संगीतक’ से ‘सांगीत’ और ‘सांगीत’ से ‘सांग’ शब्द विकसित हुआ|"(देखें,हरियाणा पुरातत्व,इतिहास,संस्कृति एवं लोकवार्ता,पृष्ठ-२०६).जबकि सुरेश अवस्थी ने नौटंकी, संगीत, भजन, निहालदे और स्वांग को समानार्थी मानते हुए, स्वांग को इसका प्राचीनतम रूप माना है |”(भारतीयनाट्य साहित्य,डॉ.नगेन्द्र,पृष्ठ-४१०).सांग की उत्पत्ति का सन्दर्भ चाहे जो हो, पर इतना तय है कि यह हरियाणा के जनसमुदाय की सांस्कृतिक पहचान है | जैसे कि हर प्रदेश का लोकनाट्य उसका सांस्कृतिक दस्तावेज़ होता है, वैसे ही सांग भी हरियाणा का सांस्कृतिक दस्तावेज़ है |

सांग खुले आसमान के नीचे, चौतरफा दर्शकों से घिरा लोकरंजन और लोकरुचि का क्षेत्र है | इसके कलाकर अभिनय कुशल, संगीत विशेषज्ञ तथा दर्शकों को नृत्य-संगीत और भाव-सम्प्रेषण के साथ बाँधकर रखते हैं | ‘सांग’ में पंडित लखमीचंद की प्रसिद्धि बहुत है, इन्हें ‘सांग सम्राट’ की उपाधि से अभिहित किया जाता है | पंडित लखमीचंद सांग में कई प्रमुख भूमिकाएं स्वयं निभाते थे | हरिश्चंद्र सांग में “उनका अभिनय इतना अचूक होता था कि हजारों दर्शक सांग देखने के बाद आँसू लिए घर लौटते थे | यही तो लोक कविता और लोक नाट्य की सबसे बड़ी खूबी है कि दर्शक पात्रों के साथ ही जीते हैं |”(पंडित लखमीचंद ग्रंथावली,श्रीकृष्णचन्द्र शर्मा, पृष्ठ-१९.)

सांग में भी मंच की सज्जा साधारण ही होती है | यह मंच पर किसी बड़े तामझाम को नहीं अपनाता, लोक पोषित इन नाट्य-रूपों में इसकी सम्भावना भी अधिक नहीं है, वरना यह भी अभिजन का कृत्रिम मंच बन जायेगा | तब इन नाट्य रूपों की सहजता भी समाप्त हो जायेगी | इस नाट्य में मुख्य कलाकार अपने साथियों और प्रयोग में आने वाले वाद्य-यंत्रों के साथ मंच पर ही बैठता है और पात्र मंच पर ही घूम-घूमकर अभिनय करते हैं | राजेंद्र स्वरुप वत्स लिखते हैं-“यद्यपि उपलब्ध सांगों में हिंदी के नाटकों की तरह देशकाल व वातावरण का सृजन करने के उद्देश्य से वेशभूषा, आभूषण इत्यादि के संबंध में कोई लिखित निर्देश नहीं मिलते, फिर भी समस्त विश्वस्त सूचकों से लखमीचंद की सांग मंचन कला के बारे में प्राप्त सूचना के आधार पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि लखमीचंद अपनी सहज बुद्धि व अनुभव के बल पर वेशभूषा, आभूषण इत्यादि के माध्यम से वांछित देशकाल व वातावरण का सृजन कर लेते थे |”(सांग सम्राट पं.लखमीचंद,पृष्ठ-२३४.)

सांग में गीत-संगीत-नृत्य का संयोजन एवं उत्कृष्ट अभिनय उसके प्रभाव में वृद्धि कर देता है | सांग का अभिनेता हाव-भाव, चुहल, छेड़छाड़, आंगिक क्रियाओं से दर्शकों को अपने से जोड़ता है | सांग में मूल कथा के बीच में एक पात्र ‘भांड’ या ‘नकलची’ आता है, जो अपने क्रियाकलापों से दर्शकों का मनोरंजन भी करता है और मुख्य कथा में सहयोग भी देता है | अमूमन सांग का अभिनेता अपने हाव-भाव,चुहल,छेड़छाड़,वाक्-पटुता और आंगिक क्रियाओं से दर्शकों को अपने साथ जोड़ता है पर इस प्रयास में उसके संकेत कभी-कभी अश्लील भी हो जाते हैं| परन्तु यह बस उस लोक के भीतर पैठने के क्रम में हुआ अभिनय होता है, अतः सांग प्रेमी जनता इसकी परवाह नहीं करती | सांग में समस्त मंचीय क्रियाव्यापार पुरुषों द्वारा निभाया जाता रहा है,हालांकि देवीशंकर प्रभाकर ने अपने शोध-पत्र  में लिखा है "हरियाणा में कुछ ऐसी सांग मंडलियाँ भी काम करती रही हैं,जिनमें सभी औरतें काम करती थी | ये सांग मंडलियाँ यमुना के खादर में खेल खेलती थीं | इनमें कलायत की सरदारी, गंगरू की नरनी और इंद्री की बाली थीं|' (देखें,डॉ.केशवानंद ममगई, हरिगंधा,नवम्बर-८७-फरवरी-८८,पृष्ठ-७३.)पंडित लखमीचंद के अलावे सांग के कुछ चर्चित कलाकारों में मांगेराम,किशनलाल भाट,पंडित दीपचंद,पनदिर रतिराम,सरुपचंद,नेतराम,हरदेवा आदि प्रमुख हैं | सांग में काल्पनिक और लोकप्रचलित पौराणिक एवं प्रेमाख्यानक कहानियों को कथा आधार बनाया जाता है | हीर-राँझा, पद्मावत, सेठ ताराचंद, विराट पर्व, सत्यवान-सावित्री, नल-दमयंती, मीराबाई, पूरण भगत, शाही लकडहारा, मदनावत, हरिश्चंद्र इत्यादि प्रमुख सांग हैं |
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विदापत नाच या कीर्तनिया

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जगदीशचन्द्र माथुर ने बिदापत नाच को 'उत्तर बिहार की अल्प-परिचित प्रदर्शन-विधा'से अभिहित किया है | "बिहार के पूर्णिया जिले में 'बिदापत नाच'नाम से एक आंचलिक नाटक की परंपरा है | इसमें मध्ययुगीन मिथिला के किर्तनियाँ नाटक तथा असम के अंकिया नात दोनों की झलक दिखाई पड़ती है | मंडलियों में प्रायः किसान और मजदूर होते हैं - अधिकतर हरिजन-वर्ग के |.......मंच और अभिनय परंपरा में असमिया अंकिया नाट का प्रभाव अधिक स्पष्ट है |.......जिस स्थान पर पात्र अपनी सज्जा करते हैं, उसे यहाँ 'साज घर'कहा जाता है | इसकी तुलना असमिया-नाटक के 'छ्घर'या 'छद्मगृह'से की जा सकती है |"(देखें,परंपराशील नाट्य ,जगदीशचंद्र माथुर,पृष्ठ-88.) इसमें मंच का विधान मुक्ताकाशी होता है | अन्य लोक नाटकों की तरह ही इस नाट्य-रूप की शक्ति इसका 'संगीत'पक्ष ही है | मुख्य गायक 'मूलगाईन'कहलाता है और उसके साथियों को 'समाजी'कहा जाता है | मूलगाईन असम नाट्य अंकिया के मूल गायक को भी कहते हैं, तो उधर समाजी भोजपुरी के नाट्य रूप बिदेसिया में भी उपस्थित होते हैं | गीतात्मक अभिव्यक्तियों से पात्रों का परिचय करवाना और 'बिकटा'(विदूषक) इसकी कुछ अन्य विशेषताएं हैं | 

बिदापत मूलतः विद्यापति का अपभ्रंश शब्दरूप है | विद्यापति के गीत (प्रत्येक नाटक और प्रस्तुति का भगवती वंदना से शुरू होना) का नाटकीय प्रयोग इस नाम प्रचलन के पीछे रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है | बिदापत नाच की शुरुआत 'भगवती वंदना'से या 'विघ्नविनाशक गणपति की वंदना'से होती है | इसके कथावस्तु का आधार लोक-प्रचलित धार्मिक आख्यान ही हैं | उमापति उपाध्याय रचित 'पारिजात हरण नाटक'(1325 ई.) इसका प्रतिनिधि नाटक है | माथुर जी ने यहाँ भी इसका सन्दर्भ असम से जोड़ा है - "'पारिजात हरण'नाम से महापुरुष शंकर देव ने असम में 15वीं सदी के आसपास एक दूसरा नाटक लिखा, जो रंगमंचीय तत्वों में उमापति उपाध्याय के नाटकों की अपेक्षा अधिक समृद्ध है | झिरवा गाँव के जनकदास की मंडली ने,जो 'पारिजात हरण'नाटक खेला, उसके लेखक का नाम वे नहीं दे सकें | किन्तु, जान पड़ता है कि उसमें दोनों ही नाटकों का सम्मिश्रण है |"(वही,पृष्ठ-88-89.) 

बिहार के लोकनाट्यों पर असम और कलकत्ते (पूरब मुलुक) के सांस्कृतिक प्रभाव का मुख्य कारण यहाँ के मजदूरों का पूरब देश की और आजीविका के लिए उधर जाना और दिन-भर के थकान के बाद मनोरंजन के लिए उनके नाटकों को देखकर, वापिस आते वक़्त उन परम्पराओं को आत्मसात करके अपना एक नाट्यरूप अपनी जमीन पर तैयार किये जाने को हम स्वाभाविक तौर पर मान सकते हैं | कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने 'बिदापत नाच'पर एक लेख भी लिखा है और अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'मैला आँचल'में एक दृश्य भी खींचा है |  

बहरहाल, बिदापत नाच के मूलकथा से पहले वाद्यों (ढोल और मृदंग, झाल आदि ) की संगत बिठाई जाती है | (दर्शकों का जमावड़ा तैयार करने की, माहौल बनाए की यह जुगत हमें और भी कई नाट्य रूपों में देखने को मिलती है |) "इसे यहाँ (मिथिला) वाले 'जमीनिका'कहते हैं | 'जमीनिका'का अर्थ है भूमिका और 'जमीनिका''यवनिका'का अपभ्रंशित रूप होगी, ऐसा माथुर जी ने भी माना है | (देखें,वही,88-89.) कीर्तनियां नाम के पीछे की वजह इसके कीर्तन शैली के गीत-भजन-संगीत की अधिकता है | इसके प्रणेता उमापति उपाध्याय कीर्तन शैली में कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचते और गाते थे | यह गायन और नृत्य बाद में इसका ट्रेडमार्क स्टाईल बन गया | इसमें भी पूर्वरंग में सूत्रधार नांदी पाठ के बाद ही वार्ता शुरू करता है | 

इस नाट्य रूप पर रामलीला और रासलीला का भी प्रभाव दीखता है | दरअसल, "किर्तनिया शैली में वही लचीलापन है,जो रामलीला और रासलीला लोकनाट्य शैली में है | रामलीला करने वाले लोग एक ओर पूरे रामचरित मानस को मंच पर उतारने की शक्ति रखते हैं,तो दूसरी ओर राधेश्याम कथावाचक की शैली में लिपिबद्ध रामकथा को मंचस्थ करने का सामर्थ्य भी रखते हैं |"(देखें,मैथिली साहित्यिक इतिहास,प्रो.बालगोबिंद झा'व्यथित',पृष्ठ-48-49.)

इस नाट्यशैली में मुखौटों का प्रयोग भी देखने को मिलता है | कृष्ण और शिव के गण मुखौटे धारण किये मंच पर आते हैं और "उस समय समाजी जो गीत गाते हैं उसकी गति त्वरा होती है और 'मार्चिंग सॉंग 'की-सी ध्वनि निकलती है |"(प्राचीन भाषा नाटक,सं.जगदीशचंद्र माथुर/दशरथ ओझा,पृष्ठ-46.) पद्यात्मक संवाद इस शैली की विशेषता है, इसमें प्रवेश और संवादों के स्तर पर गीतों का प्रयोग दिखाई देता है |

वास्तव में, यह लोकनाट्य शैली अपने मंचन और स्वरुप में 'टोटल थियेटर'है और इसके प्रदर्शन के इतिहास पर नज़र डालें, तो यह "लोकभाषा का आदि रंगमंच"(देखें,बिहार विहार, सं.विनोद अनुपम,पृष्ठ-४१.) | इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रभाव क्षेत्र में न केवल मिथिला प्रान्त बल्कि नेपाल, उड़ीसा, असम और बंगाल तक के क्षेत्र हैं | 
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नौटंकी

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उत्तर भारत के इस लोकनाट्य शैली की प्रसिद्धि का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रभाव में उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश तक आते हैं | जयशंकर प्रसाद नौटंकी का सम्बन्ध नाटकी से जोड़ते हैं | अन्य लोक नाटकों की ही तरह नौटंकी के शुरुआत और नामकरण के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद हैं | कोई इसका सम्बन्ध महाकवि कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्'के स्वांग नाट्य से जोड़ता है, तो कोई सिद्ध कन्हपा के डोमिनि के साथ | ब्रजभूमि में इसका सम्बन्ध नखरीली नवयुवती से जोड़ा जाता है  | बहरहाल, जो भी हो, नौटंकी लोकनाट्य की जनप्रिय विधा है और इसका इतिहास भी अधिक पुराना नहीं लगता, क्योंकि इसके प्रदर्शनों पर कई अन्य नाट्यों का भी प्रभाव है | लोकनाट्यों के अध्येता शिवकुमार 'मधुर'इसे कुल डेढ़ सौ वर्षों का बताते हैं | नौटंकी के बारे में वह लिखते हैं -"जहाँ बृज क्षेत्र में स्वांग और भगत नामक लोकमंच लीला-नाटकों से प्रभावित होकर भक्ति भावों से ओत-प्रोत रहा, वहाँ पंजाब और हरियाणा में वाजिद अली शाह के रहस और अमानत (लखनवी) की 'इन्दर सभा'के रंग वाली उर्दू काव्य शैली और तुर्राकलंगी की गायन शैली में नौटंकी श्रृंगारपरक नाट्य-प्रस्तुति के रूप में सामने आयी | श्रृंगार और मनोरंजन प्रधान लोक मंच की प्रकृति के अनुरूप शहजादी नौटंकी और फूलसिंह की प्रणय कथा इतनी सार्थक सिद्ध हुई कि वह नाट्य-प्रस्तुति उत्तर भारत की इस लोक नाट्य शैली का पर्याय हो गयी |"(छाया नट, अंक-14,पृष्ठ-31.)  

नौटंकी के शिल्प पर बात करते हुए नाटककार मुद्राराक्षस इसे 'एपिक थियेटर'के समकक्ष खड़ा करते हैं -"नौटंकी विधा की बहुत बड़ी विशेषता है, इसकी महाकाव्यात्मकता | बहुत बाद में ब्रेख्त ने एपिक थियेटर की वह परिकल्पना की है, जो नौटंकी में पहले से ही मौजूद दिखाई दी |"(रंगदर्शन,नेमिचंद्र जैन,पृष्ठ-212.) नौटंकी में 'नगाड़ा'(नौटंकी का प्राण) और 'रंगा'की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | प्रदर्शन में चौबोलों, ठुमरी, दादरा, बहरे तबील, सवैया और दोहों की लड़ियाँ लगायी जाती है | नगाड़े पर लगातार चोटें मारकर दर्शकों को आकर्षित किया जाता है | नौटंकी का मंच अब अधिक साज-सज्जा का होने लगा है, पहले यह सामान्य ही हुआ करता था | इसमें कुछेक तख्तों को जोड़कर मंच-निर्माण कर लिया जाता है | मंच के तीन तरफ दर्शकों के बैठने की व्यवस्था होती है | सूत्रधार नौटंकी की कथा को संगीतमय भाषा में आगे बढ़ाता है और साजिंदों के मंच पर ही बैठने की सुविधा होती है | 


मेलें लोकजीवन का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और नौटंकी मेलों का बड़ा आकर्षण | इसकी कथा मूलतः लोक प्रचलित आख्यान ही होते हैं, पर कुछ सामाजिक उपदेशात्मक कथाएँ भी इसमें दिखायी जाती है | अधिकतर नौटंकी कथानक धार्मिक कथाओं पर आधारित हैं, यथा- भक्त प्रहलाद, सत्य हरिश्चंद्र, दानी मोरध्वज, पूरनमल आदि | हीर-रांझा, लैला-मजनूँ, शहजादी नौटंकी और फूलसिंह पंजाबी, अमरसिंह राठौर आदि अन्य कहानियाँ हैं, जो नौटंकी मंडलियों में मशहूर रही हैं | इसके अलावे नौटंकी के उस्ताद पंडित नत्थाराम गौड़ रचित 'सुल्ताना डाकू'भी बहुत प्रसिद्ध नौटंकी है | नौटंकी के कथाओं के शब्दों के द्वारा जनता के मर्मस्थल छूने की कवायद होती है | जो कथा जितनी ज्यादा दर्शकों से जुड़ेगी, वह उतनी ही मशहूर होती है |

संगीत नौटंकी की जान होती है, इसलिए नौटंकी के अभिनेताओं और अभिनेताओं से संगीत की समझ की अपेक्षा की जाती है | संगीत में लोकधुन और शास्त्रीय का सम्मिश्रण होता है और संवाद गद्य-पद्य दोनों में | साथ ही, नौटंकी के अभिनेता में 'इम्प्रोवाईजेशन'की कुशलता उसकी महती योग्यता मानी जाती है | जहाँ तक इस नाट्य विधा के अभिनेत्रियों की बात है, तो इसमें भी स्त्री चरित्र पहले सुकुमार पुरुष ही निभाया करते थे, कालांतर में स्त्री अभिनेत्रियों का भी इस मंच पर आगमन हुआ | ऐसी ही नौटंकी की एक अभिनेत्री का नाम गुलाब बाई है, जिन्हें 'क्वीन ऑफ़ नौटंकी'कहा गया है | "नौटंकी के प्रदर्शन में दृश्य-विधान अथवा उपकरणों का कोई स्थान नहीं | इसका रंग-विधान सीधा और सरल होता है |........संगीतमूलक नौटंकी कल्पनाप्रधान थियेटरी रचना है, जिसमें यथार्थ के अनुकरण का प्रयत्न तनिक भी नहीं किया जाता |"(लेख,राजस्थान और मालवा का ख्याल नाच,डॉ.महेंद्र भानावत,मालवा का लोकनाट्य और अन्य विधाएं ,सं.डॉ.शैलेन्द्र कुमार शर्मा,पृष्ठ-28.)  पर नौटंकी में अब आधुनिक उपकरणों और तामझाम ने जगह बनानी शुरू कर दी है | अब किसी नौटंकी समूह के प्रभाव और उसके ऑडीएंस का निर्माण उसके अभिनेता, कथानक, शेर और चौबोल ही नहीं करते, बल्कि अब उनके लिए मंच का आडम्बर भी जरुरी हो गया है |

इतना ही नहीं हिंदी रंगमंच और नाट्यलेखन पर भी नौटंकी शैली ने अपनी छाप छोड़ी है | सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की 'बकरी', लक्ष्मी नारायण लाल की 'एक सत्य हरिश्चंद्र'और मुद्राराक्षस का 'आला अफसर'नौटंकी शैली में लिखी नाट्य रचनायें हैं | फणीश्वर नाथ रेनू की चर्चित कहानी मारे गए गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम नौटंकी वाली से एक गाड़ीवान के असफल प्रेम की कहानी है | यह नौंटकी का ही जादू है, जिससे प्रभाव से साहित्यकार भी नहीं बच पाए |
 (published in hindi daily JANSATTA's samantar column on 25th january 2013)
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लोकनाटकों की रंगभाषा

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“ मुझे एक ऐसी भाषा की तलाश है,जो दृश्य हो,जो मंच की भाषा हो, ज्यादा प्रत्यक्ष, ज्यादा जिला देने वाली और अपने प्रभावों में शब्दों से भी कहीं अधिक शक्तिशाली हो साथ ही जो पुरानी कथानकों को नया रूप दे सकता है |”(आयनेस्को)[1]

जो दृश्य हो, मंच की भाषा हो, ज्यादा प्रत्यक्ष, जीवंत और शब्दों से अधिक प्रभावशाली तथा अंत में अभिनेता का सन्दर्भ (जिसे आयनेस्को ने कलाकार कहकर अपने उपरोक्त कथन में संबोधित किया है), जो इस सभी स्थितियों को अपने भीतर एकाकार करके मंच पर किसी पुराने कथानक को दर्शकों के सम्मुख एक नया कलेवर दे सकता है अथवा देता है | वह दर्शकों के सम्मुख, रंगभाषा की पूरी रचना–प्रक्रिया को सामने रख रहा होता है | कथानक नया हो अथवा पुराना, वह जिस अभिनेता का माध्यम बनता है, उतने दफे उसके सन्दर्भ और पाठ नए और अधिक तात्कालिक होकर सामने आते हैं, क्योंकि मंच के केंद्र में मूलतः और अंततः अभिनेता ही सम्प्रेषण का मुख्य माध्यम होता है, बाद में अन्य तत्व आते हैं | तो नाटकों के रंगभाषा का मुख्य प्रश्न ही अभिनेता से जुड़ता है, क्योंकि “रंगभाषा अभिनेता से बनती है – जीवित, तत्काल, प्रत्यक्ष |”[2]यानी रंगभाषा (रंगमंच की भाषा) का निर्माणक अभिनेता होता है | यदि हम रंगभाषा को अभिनेता की मंच पर उसकी उपस्थिति, अभिनटन, अथवा उसकी भंगिमाओं या देहभाषा (Body language) / हरकत की भाषा से समझें, तो एक बात साफतौर पर उभरकर सामने आती है कि रंगभाषा एक जीवंत अनुभव है और यह ऐसा जीवंत अनुभव है, जिसमें अभिनेता प्रत्येक बार अपने कौशल से रचता है, जो हर बार तात्कालिक होकर उभरता है |

अभिनेता लिखित शब्द, वाक्-संयोजन, गतियों, नृत्य, मुद्राओं, वाद्य-ध्वनियों के साथ मिलकर एक दृश्य-बिम्ब को रचकर सम्प्रेषण का एक अनूठा संसार प्रत्यक्ष करता है | मंच के अनेक अभिनेताओं के अलावा इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण लोकमंच के वे अनेक लोक कलाकार हैं, जिनकी प्रस्तुतियों को देखने के लिए हजारों दर्शकों का हुजूम अपलक खड़ा हो जाता है | रंग समीक्षक जयदेव तनेजा इसे और स्पष्ट करते हुए इसे एक जैविक इकाई की तरह देखते हैं | उनका मानना है कि “नाटक की भाषा केवल शब्द आश्रित नहीं होती | वह एक संश्लिष्ट जैविक इकाई की तरह होती है | इसमें सार्थक (शब्द) और निरर्थक ध्वनियों के अतिरिक्त मौन, क्रियाकलाप, मूकाभिनय, मुद्राएँ/भंगिमाएँ, दृश्य-बिम्ब,(स्थापत्य,चित्रकला), मंच-उपकरण, संगीत, नृत्य, छायालोक, वस्त्राभूषण और रूपसज्जा जैसे तमाम अवयव मिलकर रचनाकार/चरित्र के जटिल जीवन-अनुभव और अस्तित्व के सूक्ष्म-गहन स्तरों को अधिकाधिक प्रामाणिक, विश्वसनीय एवं जीवंत रूप में प्रेक्षकों तक संप्रेषित करने का प्रयत्न करते हैं |”[3]इस कथन को भी देखें तो स्पष्ट है कि शब्द और हरकत का सम्मिलित व्यवहार प्रदर्शन को सहृदय/प्रेक्षक तक पहुँचाता है | अब यहाँ रंगभाषा का एक दूसरा महत्वपूर्ण अवयव ‘दर्शक’ भी उभरता है | प्रख्यात रंगकर्मी बी.वी.कारंथ ने इस स्थिति को और स्पष्ट किया है | उनका कहना है कि “रंगभाषा का मुख्य द्वार दर्शक होता है | दर्शकों की माँग के अनुसार, उनकी माँग के कारण रंगभाषा अलग होती है | कभी-कभी नाट्य या प्रस्तुति के आधार पर भी रंगभाषा अलग होती है |”[4]अब कारंथ के इस कथन पर विचार करें तो इस संबंध जो बात ध्वनित होती है, वह अभिनेता और दर्शक के बीच की आपसी भाषा है, जिसमें दोनों का तादात्म्य होता है | यह भाषा उनके ‘आपसी अंडरस्टैंडिंग’ की भाषा है | इसमें अगर एक पक्ष अभिनेता का है तो दूसरा पक्ष दर्शकों से जुड़ता है और मोटे तौर पर कहा जाये तो यह सामूहिक प्रयत्न का प्रतिफलन है | यह देहगति/हरकत, लय, ध्वनि, संकेत, मौन, दृश्य-विधान, आदि का मिश्रित व्यवहार है | इन सभी के केंद्र में अभिनेता का वह क्रियावयापार है, जो मूलतः उसके द्वारा रंगकला के सम्प्रेषण को उसकी सम्पूर्णता में मंच पर निर्मित किया जाता है | आर्तो इसे और खोलते हुए कहते हैं कि – “रंगमंच एक ठोस मूर्त दृश्यत्व प्रधान स्थल है, जिसे ‘भराव’ की आवश्यकता होती है और इसीलिए उसे ‘ठोस भाषा’ बोलने की इजाजत होनी चाहिए | तात्पर्य यह कि यह शारीरिक और भौतिक भाषा इन्द्रिय अनुभव जाग्रत करने की क्षमता से युक्त हो | यह तभी संभव है, जब वह ऐसे दृश्यमूलक तत्वों से निर्मित हो, जिससे मंच की खाली जगह को भरा जा सके, जिन्हें दिखाया जा सके, भौतिक रूप से अभिव्यक्त किया जा सके |”[5]आर्तो का यह विचार भी मंच के केंद्र में अभिनेता की और उसके मार्फ़त वह जिस खाली जगह के भराव की पैरवी करता है, वह भी उसके आंगिक क्रियाओं और लिखित पाठ के समन्वय से रंगभाषा की सर्जना के सन्दर्भ में ही व्याख्यायित होती है |

रंगभाषा का एक महत्वपूर्ण पहलू उसके लिखित पाठ से भी जुड़ता है | यह नाट्य-प्रदर्शन के समय अभिनेता के लिए अनिवार्यतः जरुरी होता है | जब बोलियों के रंगमंच पर बात होनी शुरू तथा हबीब तनवीर जैसे रंग-धूनियों ने नाट्य-सम्प्रेषण/प्रदर्शन की भाषा का अपना पाठ रचा, तब यह और मुखर होकर सामने आया | चूँकि प्रत्येक अभिनेता एक किरदार को जीवंत करता है और हर किरदार एक खास भौगोलिक वातावरण से सम्बंधित होता है, तब उस किरदार को विश्वसनीय, प्रभावी, स्वाभाविक और संप्रेषणीय बनाने के लिए इसकी जरुरत महसूस हुई | दरअसल, “नाटक की भाषा पूरी तरह ठोस होती है, इसके बावजूद उसमें ’खोल’ होता है | खोल न हो तो अभिनेता उसमें कैसे घुसेगा ?....इसमें अभिनेता, निर्देशक, दर्शक के लिए पूरा स्थान रहता है |”[6]अभिनेता जिस कैरेक्टर को जीता है, वह उसे उसके सम्पूर्णता में जीता है, ताकि उस पात्र की विश्वसनीयता संदिग्ध न रहे और दर्शकों से उसका संवाद बिना बाधा के जुड़े | निर्देशक नाम का जीव इस हेतु जरुरी निर्देश (कभी-कभी नाटककार पाठ में खुद ही ऐसे संकेत रखता है,परन्तु यह निर्देशक पर निर्भर है कि वह उन संकेतों को प्रदर्शन में रखे अथवा नहीं) देता है | इस क्रियाव्यापार त्रयी (पात्र/अभिनेता, दर्शक, निर्देशक) का सारा संयोजन रंगभाषा की निर्मिति के लिए ही होता है |

जैसा कि कहा गया है कि इसी राह की एक कड़ी नाटकों की भाषा भी है, तो नाटक की भाषा जब अभिनेताओं के किरदारों के अनुरूप होने लगी, तब अभिनेताओं और लिखित पाठ तथा दर्शकों की पारस्परिक सहभागिता से रंगभाषा और पुष्ट हुआ | इसके प्रारंभिक उदाहरण हमें भारतेंदु के नाटकों में मिलते भी हैं, जिसे बाद के नाटककारों ने अपना लिया | रंगमंच पर इस लिखित भाषा अथवा पाठ का गतिमान/क्रियाशील रूप ही नाट्य-भाषा के लक्ष्य की पूर्ति कार् सकता है और यह अनिवार्य जरुरत भी है | अभिनेता के सहारे नाट्यभाषा की यह सब स्थितियाँ दर्शकों के मानस में अमूर्त को मूर्त करती हैं, उसकी कल्पनाशक्ति को जागृत करती हैं | अभिनेता और अभिनय की महत्ता ही शायद वह वजह रही होगी, जो भरतमुनि ने नाट्यभाषा के विवेचन में अभिनय को दृष्टि में रखा और इस पर विस्तार से चर्चा की | आखिर वक्ता (अभिनेता) का श्रोता (दर्शक) से यह सर्जनात्मक संवाद ही उन स्थितियों की रचना करता है, जिससे मानवीय संवेदन (प्रेक्षक का) प्रभावित होता है | अभिनेता का आश्रय लेकर रंगभाषा का ध्येय भी तो प्रेक्षक के इन्हीं संवेदन तंतुओं से संवाद स्थापित करना होता है | वास्तव में, अपने प्रेक्षकों से संवाद कर सकने की अभिनेता की यही कुशलता नाटक को सफल बनाती है और बाकी के सहायक उपकरण यथा – रंग-संगीत, मंच-सज्जा, रूप-सज्जा आदि एवं निर्देशक के दृश्य-रचना और वातावरण की सृष्टि कर सकने की योग्यता भी इसमें हैं ही, पर यह द्वितीयक ही होते हैं |

रंगकला एक जटिल कलारूप है | यह अपने प्रदर्शन में, सम्प्रेषण में एक सम्पूर्णता (Totality) की माँग करता है | यह बात इसलिए जरुरी हो जाती है, क्योंकि अभिनेता जिस शब्द, वाक् संयोजन, कलात्मक गतियों, नृत्य, संगीत, मुद्राओं, वाद्य-ध्वनियों, प्रकाश आदि के सहारे एक रंगभाषा, एक दृश्य-बिम्ब की रचना कर उसे एक नवीन अर्थ प्रदान करता है, वह एक सम्पूर्ण दक्षता की माँग करती है | पर यह जरुरी तथ्य नहीं कि, सम्प्रेषण के समय रंगभाषा का जो अर्थ मंच से रचा जा रहा है, वही अर्थ प्रेक्षक तक भी पहुँचे | कई दफे रंगभाषा का वह अर्थ टूट भी जाता है | उदहारण के तौर पर देखा जाये, तो संजय उपाध्याय के निर्देशन में भिखारी ठाकुर रचित ‘बिदेसिया’ (भोजपुरी लोकनाटक) का चरित्र ‘बिदेसी’ (जिसके नाम पर यह लोकनाटक है) नेपथ्य में चला जाता है और नायिका ‘प्यारी सुन्दरी’ की विरह-व्यथा ही मंच पर रह जाती है | तो रचने और संप्रेषित करने के क्रम में निर्देशक ने परिकल्पना की, अभिनेता ने जो साकार किया और दर्शकों पर तो संप्रेषित हुई, वह रंगभाषा की तीन अलग-अलग अर्थों की स्थितियाँ हैं |

दरअसल, अभिनेता, निर्देशक और प्रेक्षक तीनों ही रंगभाषा के नियामक तत्व हैं, जिनमें अभिनेता प्रमुख होता है | वह अभिनेता ही होता है, जो अपने शरीर की भाषा और अन्य सहायक उपकरणों (जो दरअसल इस खेल में द्वितीयक उपकरण होते हैं) से अमूर्त को मूर्त करता है | रंगभाषा एक जीवंत अनुभव है और यह जीवन्तता लोकनाटकों की जान होती है | लोकमंच पर यह रंगभाषा अभिनेता की शक्ति का परिचायक है, जो हर बार कुछ नया करता है, हर बार उसकी भाषा की चमक और निखरती तथा संप्रेषणीय होती है | मंच के केंद्र में अभिनेता है, तो रंगभाषा के मूल में भी अभिनेता ही है |

यद्यपि कुछ वर्षों से निर्देशक की भाषा अपना स्थान लेती जा रही है, पर अभिनेता के वृत्त (जो वह मंच पर अपने इर्द-गिर्द खींचता है) को भेद नहीं पाई है और न भेद सकेगी | अगर रंगभाषा एक जीवित अनुभव है, तो अभिनेता उसका जीवित सर्जक है | इतना ही नहीं, वह रंगभाषा का प्रत्यक्ष भागीदार और अनिवार्य अंग है | अभिनेता का सम्पूर्ण व्यक्तित्व रंगभाषा का कार्य करता है, बाकी रंगोपकरण/आयोजन उसके सहयोगी की भूमिका निभाते हैं |

बी.वी.कारंथ ने रंगभाषा के केंद्र में जिस अभिनेता के होने की बात की है, दरअसल वह हमारे लोकनाटकों पर अधिक लागू होती है, जहाँ केंद्र में अभिनेता ही प्रमुख होता है, परन्तु प्राथमिक तौर पर अभिनय उनका ध्येय नहीं बल्कि लोकरंजन मुख्य अभीष्ट होता है | यह भी एक सच्चाई है कि कोई लोक कलाकार या अभिनेता अपनी बोली/भाषा के परफार्मेंस में जितना स्वाभाविक होता है, वह उसी कथा के साथ किसी दूसरी बोली/भाषा में निष्प्रभावी हो जाता है |

भारतीय रंगमंच केवल समृद्ध ही नहीं है बल्कि बहुरंगी और गतिमान भी है | हिंदी पट्टी के नाट्य-रूपों के अतिरिक्त कश्मीर का ‘जश्न’, राजस्थानी का ‘ख्याल’,गुजरात का ‘भवाई’, बंगाल का ‘जात्रा’,असम का ‘अंकिया नाट’, महाराष्ट्र का ‘तमाशा’, आन्ध्र प्रदेश का ‘वीथी भागवत’, तमिलनाडु का ‘थेरुकुट्टू’, कर्नाटक का ‘यक्षगान’, केरल का ‘कथकली’ इत्यादि अन्य लोकनाट्य रूप हैं, जो भारतीय रंगमंच की उपलब्धि हैं | अपने विशाल देश में जिस ‘कम्पोजिट कल्चर’(साझी संस्कृति), अनेकता में एकता की बात की जाती है, वह इन लोकनाट्यों में दिखायी देती है | यह एकता कथानक, प्रदर्शन, पूर्वरंग, अभिनय, दर्शक-प्रभाव आदि से बनती है | जहाँ तक इनकी प्रस्तुति का गणित है, तो वह भी अलिखित तौर पर लगभग एक जैसा दिखाई पड़ता है | दरअसल, “इन लोकनाट्यों के पात्र अपनी परंपरागत शैली में मंच पर अभिनय करते हैं, किन्तु कोई भी यथार्थवादी शैली अपनाने का प्रयास नहीं करता | यहाँ तक कि किस गीत के साथ कैसा अभिनय, संवाद या नृत्य होगा, यह रूढ़ हो गया है | परिणामतः लोकनाट्यों का सम्पूर्ण आनंद उनकी परंपरागत शैली में निहित है | दर्शकगण उसकी तड़क-भड़क की अपेक्षा उसके काव्य-पक्ष का रस लेते हैं |”इतना ही नहीं, भरतमुनि ने अभिनय की जिन तीन प्रवृतियों अनुरूपा, वृहदरूपा (विरूपा), अविरुपानुरूपा (रुपानुरुपा) का उल्लेख किया है, वह किसी-न-किसी रूप में लगभग सभी अंचलों के लोकनाट्यों में मौजूद हैं | कला और साहित्य के अभिजनवादी मानसिकता के लिए यह रंगमंच शायद उसकी जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुची को तुष्ट न् करता हो, पर भारतीय लोक की जातीय संस्कृति के इन कलारूपों से गहरी नजदीकी है | लोकनाट्य का संबंध लोकजीवन के उस संवेदन पक्ष से है, जो उसके जीवन जीने के, संस्कृति निर्माण के सन्दर्भ से जुड़ती है | इन लोकनाट्यों में बहुजन/ लोक के सांस्कृतिक अस्मिता के चिन्हों के अतिरिक्त इनके जनजीवन के जीवन-संघर्षों और जीवन-मूल्यों की आवाज़ भी पाई जाती है |                              

[1]देखे आयनेस्को का कथन,रंगभाषा,गिरीश रस्तोगी,पृ.१५८  
[2]वही,बी.वी.कारंथ का साक्षात्कार,वही,पृ.१८६.  
[3]आधुनिक भारतीय रंगलोक,जयदेव तनेजा,पृ.७०.
[4]देखें,बी.वी.कारंथ का साक्षात्कार,रंगभाषा,गिरीश रस्तोगी,पृ.१८६.
[5]अन्तोनिन आर्तो का कथन,नाट्यभाषा,गोविन्द चातक,पृ.२२.
[6]लक्ष्मीनारायण लाल का साक्षात्कार,समकालीन हिंदी नाटक और रंगमंच,जयदेव तनेजा,पृ.१५८.

हिंदी लोकनाट्य : विविधता में एकता

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भारत बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक, बहुरंगी देश है | अनेक लोक कलाएँ, लोकनाट्य रूप(ज्ञात और अज्ञात) इसके विभिन्न प्रान्तों में बिखरे पड़े हैं | आश्चर्यजनक रूप से इतनी विविधता के बावजूद भारतीय लोकनाटकों में एक जबरदस्त एका दिखाई देती है | यह एका शिल्प के स्तर पर पूर्वरंग, संगीत की प्रधानता, कथावस्तुअथवा सूत्रधार या विदूषक के रूप में दिखाई देती है | लगभग सभी लोकनाटक किसी-न-किसी रूप में नाट्यशास्त्र के पूर्वरंग की विधि का पालन करते हैं | सूत्रधार, नट-नटी, विदूषक इत्यादि नाट्यशास्त्र से ही इधर आये हैं | यही वह धागे हैं, जिनसे बंधकर एक भौगोलिक स्थितियों में ना होने के बावजूद भारत जैसे विशाल देश में जातीय संस्कृति की एकता दिखायी देती है | इस विशिष्टता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए, डॉ.वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी अपनी पुस्तक"भारतीय लोकनाट्य"की भूमिका में लिखते हैं – “लोकक़ला रुपों की जातीय संस्कृति से गहरी निकटता रही है | ये कला रूप अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी विशिष्टता के अनुरूप परस्पर भिन्न शैल्पिक निजता रखने के बावजूद अंतर्वस्तु के स्तर पर गहरे एकात्म होते हैं | लोकगीतों, कलाओं और लोकनाट्य रूपों के सन्दर्भ में इसे देखा जा सकता है |”लोकनाटकों के उदय की पृष्ठभूमि के बारे में बलवंत गार्गी का मत है कि “संस्कृत नाटक विद्वानों, श्रेष्ठियों और दरबारियों के लिए था | इसकी भाषा बहुत गूढ़ और अलंकृत होती थी | यह जनसाधारण के जीवन में घुला-मिला रहा है | समय के साथ-साथ यह अपना रूप बदलता और बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार अपने-आपको ढालता रहा है |”2  वैसे संस्कृत नाटकों के बाद मध्यकाल के भक्ति आंदोलन ने लोक नाटकों के विकास में बड़ी भूमिका निभाई ऐसा माना जा सकता है, क्योंकि दक्षिण से लेकर सुदूर पूर्व तक लोकनाटकों के कथानकों का बड़ा आधार जनमानस में प्रचलित धार्मिक आख्यान ही रहे | शिष्ट यानी संस्कृत के सामानांतर चलने वाले इस लोकमंच के नाटकों की अपनी एक सुदीर्घ परंपरा रही है | राम और कृष्ण की कथाएँ इन नाटकों में कथ्य का काम करती रही थी और आज भी गतिमान अवस्था में है |

ऐसा क्यों हुआ होगा कि लोकनाटक इतने अधिक प्रभावी और जनव्याप्ति के माध्यम हो गए | दरअसल, संस्कृत नाटक उन अपार जनसमूहों से अपना जुड़ाव कर सकने में असमर्थ हो गए, जिनको दृष्टिपथ में रखकर इस ‘पंचम वेद’ की रचना हुई थी | उमा आनंदने अपनी पुस्तक ‘द रोमांस ऑफ थियेटर’में इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है –“क्लासिक माने जाने वाले संस्कृत रंगमंच भरतमुनि के विचारों को पूर्ण करने में असमर्थ हो गए, क्योंकि वह संभ्रांत, उच्चवर्गीय राजाओं और उनके कुलीन शिक्षित ब्राह्मणों का होकर रह गया था | वह आमजन का रंगमंच नहीं था | तो आमजन के यहाँ रंगमंच का एक अलग प्रकार विकसित हुआ, आम जनता का/लोक का रंगमंच | यही लोकनाटक है |”3. उमा आनंद के इन तर्कों से सहमत हुआ जा सकता है | जब मंदिरों और राज्याश्रयों में रंगकला पोषित और खास वर्ग के लिए खेली/तैयार की जाती रही, तब ऐसे में बहुसंख्यक जनता के लिए, उनके मनोरंजन के लिए उन्हीं के द्वारा रंगकला रची गई, जिनमें सूत्र भरतमुनि से लिए गए और कथानक लोक प्रचलित धार्मिक आख्यानों से | “लोकनाट्य सामूहिक आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं से निर्मित होने के कारण लोकवार्ता के कथानकों, लोकविश्वासों तथा अन्य तत्वों को समेटकर चलते हैं, इसलिए प्रभावपूर्ण होते हैं |”4.कालान्तर में कथानकों के विषय भी बहुरंगी हो गए, मसलन रंगमंच के कथावस्तु के लिए जिस तरह की प्रस्तावना प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्रित की गई थी, वह धीरे-धीरे लोकनाटकों का भी विषय बनने लगी |

यद्यपि आज भी अधिकांशतः धार्मिक और सामाजिक आख्यान ही मूल कथा के तौर पर लोकनाटकों में प्रयुक्त होते हैं | हालांकि यह भी ध्यान देने की बात है कि, इनमें कोई निश्चित स्क्रिप्ट नहीं होती, इसलिए लोकमंच के कलाकार अपने भावों को प्रकट करने के लिए और स्पष्ट होता है | वाक् पटुता और इम्प्रोवाईजेशन इन लोकनाटकों की सबसे बड़ी ताकत होती है | इसलिए लोकनाटकों की रंगशैलियों ममें उन्मुक्तता और तनावहीनता प्रमुख रूप से दिखाई देती है |
नाट्यशास्त्र से कुछ जरुरी टूल्स इन नाटकों ने लिए हैं, मसलन विदूषक या सूत्रधार का चरित्र लगभग सभी लोकनाटकों में अलग-अलग नाम से सभी रूपों में मौजूद है | बिदेसिया में ‘लबार’, नौटंकी में‘रंगा’, माच में ‘शेरमार खां’, भवाई में ‘रंगला या कुटकड़िया’, बिदापत नाच में‘बिपटा’, आदि कुछ प्रमुख सह-चरित्र हैं, जिनका मुख्य कार्य नायक की मदद करना, कथानक का विकास करना और अपने आंगिक हाव-भाव, रूपसज्जा तथा संवादों से दर्शकों/जनसमूहों का मनोरंजन करना होता है | वह अपने इन्हीं क्रियाव्यापारों से लोगों में एक उत्सुकता का माहौल और आकर्षण बनाये रखता है | किसी लोकनाटक के प्रसिद्ध और सफल होने के पीछे उसके सूत्रधार/विदूषक की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण होती है | इन लोकनाटक के अभिनेताओं का मुख्य कर्म लोकरंजन करना होता है, अभिनय करना मात्र नहीं | गीत और संगीत की योजना भी लगभग सभी लोकनाटकों में समान रूप से पाई जाती है | एक और बड़ी एकता इन नाटकों में यह भी देखने को मिलती है कि इनमें स्त्री चरित्रों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते हैं, यद्यपि हाल के कुछ वर्षों में स्त्री अभिनेत्रियों की भी उपस्थिति इन मंचों पर हुई है | इस जड़ता का टूटना एक स्वागतयोग्य कदम है |
बिदेसिया के प्रदर्शन में और इसे एक नयी ऊँचाई देने वाले रंगकर्मी संजय उपाध्याय ने प्यारी सुन्दरी और रखेलिन की भूमिका में स्त्री अभिनेत्रियों को रखा और नाटक का मजा बेस्वाद नहीं हुआ तथा यह लगातार सफलता से खेला जा रहा है | वहीं इसी लोकनाट्य रूप का एक ‘फॉर्म’ पूनम सिंह के प्रदर्शन का है, जिन्होंने तमाम सामाजिक बंधनों के बावजूद इस लोकनाटक के प्रति लोगों को अपनी इस मानसिकता को बदलने पर मजबूर कर दिया है कि लोकनाटक का मंच केवल पुरुष-प्रधान ही हो सकता है | लोकनाट्य परंपरा के इतिहास में रंगकर्मी पूनम सिंह का यह कदम इसलिए भी सराहनीय है , क्योंकि यह लोक कलाकार अपनी बेटियों को साथ लेकार लोक रंगमंच के पुरुष वर्चस्व को चुनौती दे रहीं हैं | इसकी ताकत उन्हें लोकनाटकों की ही परंपरा से मिली है | आखिर लोकनाटकों के मंच ने खुले में उपेक्षित जनसमुदायों के बीच खड़े होकर अपना स्वरुप और पाठ रचा तथा संस्कृत ‘एलीट’ थियेटर को चुनौती डी | साथ ही, अपना एक व्यापक ‘स्पेस’ बनाया | दरअसल, इसकी व्याप्ति का बड़ा कारण रहा कि यह अभिनटन-परक प्रस्तुति और अपने संवादों-गीतों (संगीतात्मकता) पर अधिक जोर देता है, जो जनता के हृदय में सदियों से उसके सुख-दुःख के साथी रहे हैं |

सही मायनों में यह हमारे लोकसंस्कृति का अटूट हिस्सा है | इसलिए लोकनाटकों को भृत्य जातीय संस्कृति का प्रामाणिक दस्तावेज माना जा सकता है, क्योंकि यह अपने स्थानीय तत्वों के सहारे अपना रंग-विधान खड़ा करती है और हमारी जातीय सांस्कृतिक चेतना के बीज इन्हीं ‘लोकल’ (स्थानीय/आमजन के समाजों) जमीनों से अपना रस लेकर हमारी रंग-अस्मिता को समृद्ध करती हुई, वैश्विक मंच पर आती है |“लोक रंगमंच लोक समाज की देह का अंग है, नागरिक या साहित्यिक रंगमंच उसका बाहरी आभूषण, लोक रंगमंच जीवन की उमंग की स्वाभाविक अनायास अभिव्यक्ति है, नागरिक रंगमंच कलात्मक चेष्टायुक्त अभिव्यक्ति |”5. इसलिए भारतीय रंगमंच का इतिहास भी तब तक अधूरा है, जब तक इसे लिखते समय इन लोकनाटकों के इतिहास और भारतीय रंगमंच के विकास में इनकी भूमिका को अनिवार्यतः महत्वपूर्ण नहीं माना जाता | शायद यही वजह है कि सम्प्रेषण के जादुई और नित नए उपकरणों के बीच भी लोक रंगमंच मजबूती से अपनी जमीन पर खड़ा है, उतनी ही प्रसिद्धि से उतनी ही व्याप्ति से | ऐसा होना इसलिए भी लाजिमी है, क्योंकि इन नाटकों का मंच लोक का चित है, न कि कोरी सैद्धांतिक किताबें | सच कहें तो, लोकनाट्य सामूहिक आवश्यकताओं एवं प्रेरणाओं से निर्मित्त होने के कारण लोक के करीब है और हबीब तनवीर (लोकनाट्य रूप नाचा गम्मत शैली के प्रयोक्ता) जैसे रंगकर्मियों ने तो इसे वैश्विक रंगमंच पर खड़ा कर विश्व को भारतीय रंगमंच का एक और नायाब पक्ष दिखाया है |     

बी.वी.कारंथ ने रंगभाषा के केंद्र में जिस अभिनेता के होने की बात की है, दरअसल वह हमारे लोकनाटकों पर अधिक लागू होती है, जहाँ केंद्र में अभिनेता ही प्रमुख होता है, परन्तु प्राथमिक तौर पर अभिनय उनका ध्येय नहीं बल्कि लोकरंजन मुख्य अभीष्ट होता है | यह भी एक सच्चाई है कि कोई लोक कलाकार या अभिनेता अपनी बोली/भाषा के परफार्मेंस में जितना स्वाभाविक होता है, वह उसी कथा के साथ किसी दूसरी बोली/भाषा में निष्प्रभावी हो जाता है | परिणामतः स्वाभाविकता, जो इन नाटकों का प्राण तत्व होती है, वह अभिनेता के निश्तेज होने के साथ ही खत्म हो जाती है | ऐसी स्थिति में संप्रेषणीय रंगभाषा की निर्मित्ति भी संभव नहीं रह जाती | लोक नाटकों में गीत-संगीत-तत्व और नृत्य की प्रधानता होने के कारण यह कलारूप अन्य नाट्यरूपों की ही तरह रंगभाषा का वितान अभिनेता और अन्य मंचीय उपकरणों के सहारे खड़ा करती है | स्वाभाविक रूप से संगीत और गीत लोकनाटकों का मजबूत पक्ष है | यद्यपि निर्देशक़नुमा जीव लोकनाट्य मंच पर अधिक प्रभावी नहीं, यहाँ सारा क्रियाव्यापार अभिनेता के आसरे होता है | वैसे रंगभाषा का कोई लिखित व्याकरणिक रूप तो नहीं होता, पर अभिनेता और पार्श्व में गतिमान स्थितियाँ ही उसका व्याकरण रचती हैं और यह हर बार अलग-अलग अभिनेता तथा प्रस्तुति के अनुसार अलग प्रभाव की हो सकती है | लोकनाटकों की रंगभाषा और प्रभाव का क्षेत्र तथा इसके प्रेरक और उत्पत्ति का स्त्रोत उनका अपार जनसमूह ही है, जो कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर और पूर्वोत्तर तक विस्तृत है, जिनका आश्रय पाकर यह लोक परंपरा आज तक निर्बाध रूप से गतिशील है |
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संदर्भ सूची :
1. भूमिका, भारतीय लोकनाट्य, डॉ.वशिष्ठनारायण त्रिपाठी, पृ.९.
2. रंगमंच, बलवंत गार्गी, पृ.९२.
3. the classical Sanskrit theatre didn’t fulfill Bharat’s idea, because this was a theatre for the elite, the king and his nobels and    the learned Brahmins. It was not a theatre of the common man, though there was a theatre of another sort for the common     people. This is folk theatre.” Uma anand, The Romance of Theatre. Page.36.   
4. देखें, त्रिलोचन पाण्डेय, सम्मेलन पत्रिका, लोकसंस्कृति विशेषांक वि.सं.२०१०.
5. वीणा, अगस्त१९७२, पृ.९५.

“Beyond Borders people and perception “ दसवाँ सत्यवती मेमोरियल लेक्चर (जाहिदा हिना)

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( पिछले कुछ महीनों से मीडिया द्वारा कश्मीर में बार-बार बोर्डर पर गोलीबारी, क्रोस बोर्डर आतंकवाद की खबरें  आ रही हैं, इधर देश के भीतर आगामी चुनावों को लेकर जिस तरह का माहौल एक सोची-समझी रणनीति के तहत रच दिया गया है, वैसे में एक अजीबोगरीब घुटन का वातावरण आस-पास आकार लेने लगा है. इस तरह के हालात में मुझे यह जायज़ लगा कि लगभग एक वर्ष पहले मेरे कॉलेज में पाकिस्तान की ख्यात लेखिका जाहिदा हिना का दिया सत्यवती मेमोरियल व्याख्यान beyond borders, people and perception आपसे शेयर किया जाये, हमें आइना दिखाता यह व्याख्यान यहाँ प्रस्तुत है कि हम जा कहाँ रहे हैं, हम हो क्या गए हैं.- मोडरेटर) 


माननीय उप-कुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय प्रो.विवेक सुनेजा, प्रो.अपूर्वानंद, शिबा सी.पांडा, डॉ.अजीत झा, डॉ.सतेन्द्र कुमार जोशी, डॉ.देवेन्द्र प्रकाश, डॉ.साधना आर्या, मैं आप सब लोगों का बेहद शुक्रिया अदा करती हूँ कि आपने मुझे दिल्ली के इस मशहूर कॉलेज में आने की दावत दी और ‘Beyond borders people and perception’जैसे अहम मुद्दे पर बात करने का मौका दिया | मैं हॉल में बैठे हुए तमाम फैकल्टी मेम्बर्स, तमाम स्टूडेंट्स एवं दूसरे मेहमानों की भी शुक्रगुजार हूँ |

ये मेरे लिए बहुत इज्ज़त की बात है कि मैं ‘फ्रीडम मूवमेंट’ की एक आदर्शवादी महिला के नाम पर बने हुए ‘एजुकेशनल इंस्टिट्यूशन’ में आप लोगों के बीच मौजूद हूँ और अपने दिल की बात आपसे कह रही हूँ |

अब से चंद दिनों पहले जब मुझे आपके कॉलेज की मेमोरियल लेक्चर कमिटी की तरफ से ‘१०वें सत्यवती मेमोरियल लेक्चर’ की दावत मिली और ये कहा गया कि मैं ‘Beyond borders people and perception’ पर बात करूँ तो मैं ये सोचती रही कि शब्द.....हवा, चाँदनी, धूप, पक्षी, पखेरू और दरिया की लहरों जैसे होते हैं,जो तमाम सरहदों और हदों को, सारी सीमाओं को किसी मुश्किल, किसी अड़चन, किसी पासपोर्ट, किसी वीजा के बिना पार कर जाते हैं | अगर मेरी सोच शब्दों में ढलकर सीमाओं को पार न करती, तो ये कैसे मुमकिन था कि आज मैं यहाँ आपके सामने अपनी बात करने के लिए मौजूद होती |

मैं आज इस मेमोरियल लेक्चर के शुरू में बहन सत्यवती को याद करुँगी, जिन्होंने सिर्फ 38वर्ष  की उम्र पाई और जो हमारी freedom movement(स्वतंत्रता संग्राम) का एक चमकता हुआ सितारा हैं |
उन्होंने जिस जीवटपन और बहादुरी से अपना चैन, आराम, अपनी घर-गृहस्थी, अपने बच्चों की मोहब्बत भरी और शरारतों से भरा उनका बचपन freedom movement(स्वतंत्रता संग्राम) पर,quit india movement (भारत छोड़ो आंदोलन) पर कुर्बान कर दिया और अपनी तमाम खुशियाँ तज दीं | इसके लिए हम उन्हें जितने सलाम करें, वो कम है | हमारे घरों की दूसरी माँओं की तरह उन्होंने कितनी मर्तबा अपने बच्चों को अपने हाथों से पूरी खिलाई होगी लेकिन फिर इन्हीं हाथों से उन्होंने लाहौर जेल पर तिरंगा लहराया | उनको सलाम करते हुए मुझे अपनी एक कहानी ‘तितलियाँ ढूँढने वाली’ याद आई, जिसमें एक आदर्शवादी माँ अपने वतन के तमाम बच्चों के लिए आज़ादी की तमाम तितलियाँ ढूँढते हुए लाहौर जेल में फाँसी चढ़ गई थी | मेरी ये कहानी आज़ादी मिलने के बाद की है, जब पाकिस्तान में dictatorship(तानाशाही) के ज़माने में सियासी जद्दोजहद से जुड़ी हुई एक औरत ने माँ होने के बावजूद मौत का इंतखाब किया था |

हम जब सीमाओं की बात करते हैं, तो ये बात याद आती है कि आज़ादी के जोश ने औरत और मर्द के बीच Gender differences(लिंग भेद) के बीच की सीमाएँ मिटा दी थी | जेल जाने और लाठियाँ खाने के लिए, जान से गुज़र जाने के लिए सब एक थे | वो मर्द हों या औरतें, स्टूडेंट्स हों या घर-गृहस्थिनें सबके आदर्श एक थे | सत्यवती, सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली, मृदुला साराबाई, अनीस किदवई, कमला बहन पटेल और दूसरी बहुत-सी औरतों ने हजारों बरस पर फैली हुई Gender Identity(लिंग आधारित पहचान) की सरहदें पार कर ली थी और Freedom movement(स्वतंत्रता संग्राम) के इस अज़ीम धारे का हिस्सा बन गई थी, जिसमें सभी शामिल थे |

हम सब सरहदों के बारे में जानने की कोशिश करते हैं, तो हमें मालूम होता है कि समय का दरिया इन सरहदों, इन सीमाओं को बदलता चला जाता है | यही देखिये की आज जिस जगह हम मौजूद हैं, उसका नाम अशोक-ए-आज़म के नाम पर अशोक विहार है | किसी ज़माने में अशोक की सल्तनत की सीमाएँ मगध से बामियान तक फैली हुई थीं, लेकिन फिर ये सीमाएँ बदलती रहीं और हम नहीं जानते कि आने वाले वर्षों में कितने मुल्कों की सीमाएँ बदलेंगी |
लेकिन जब आज हम Beyond borders(सीमाओं से परे) की बात करते हैं, तो ये दरअसल हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का किस्सा है | इन दोनों मुल्कों का रिश्ता पहले दिन से तनाव का शिकार रहा है | जिस ज़माने में मुस्लिम लीग पाकिस्तान मूवमेंट चला रही थी, उस वक्त ये कहा जा रहा था कि हमें ब्रिटिश राज से आज़ादी के साथ ही बँटवारा भी चाहिए | ये कहा जाता था कि कम्युनल लाईन्स पर हिंदुस्तान की तफ्सीम से हिंदू-मुस्लिम संघर्ष (Conflicts) और झगड़ा खत्म हो जायेगा और दोनों मुल्कों के लोग अपनी-अपनी सरहदों के अंदर आज़ादी से जिंदगी गुज़ारेंगे | अपने शहरियों को उनके Political, Democratic और Social rights(सामाजिक अधिकार)  देंगे और दोनों Co-Existence(सह-अस्तित्व) की बुनियाद पर International Community(अंतर्राष्ट्रीय समुदाय) में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करेंगे लेकिन बँटवारे  के बाद दोनों तरफ जो कुछ हुआ, वो इन वादों के बिल्कुल उलट था |     
ये इसी का नतीजा है कि आज दोनों मुल्क जो एक बहुत बड़ी मैन पावर रखते हैं, दोनों Naturalऔर  Mineral resourcesसे मालामाल हैं, जिनके खेत सोना उगलते हैं, उनकी दौलत जंग की तैयारियाँ निगलती रहती हैं | आज से दस बरस पहले महबूब-उल-हक हियोमन Develpoment Report में कहा गया कि
“आजकल हमें (पाकिस्तान) जुनूबी कोरिया बनने का शौक हो रहा है, लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि जुनूबी कोरिया हर साल अपनी आबादी के हर शख्स की बेसिक एजुकेशन पर तक़रीबन 130डॉलर खर्च करता है, जबकि मलेशिया तालीम पर सालाना 128डॉलर फी शख्स खर्च कर रहा है | अगर इसका Comparison(तुलना) जुनूबी एशिया के मुल्कों से किया जाये तो मालूम होता है कि हिन्दुस्तान अपनी आबादी के हर फर्द की बेसिक तालीम पर सालाना 9डॉलर, पाकिस्तान 3डॉलर, बांग्लादेश 2डॉलर, फी शख्स के हिसाब से खर्च कर रहे हैं |“

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दक्खिनी एशिया के पिछड़े हुए मुल्कों में हैं | दक्खिनी एशिया के 80करोड़ लोग सेहत और सफाई की बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं | 38करोड़ अफराद पढ़े-लिखे हैं और 30करोड़ इंसान नल की बजाय जोहड़ों का पानी पीने पर मजबूर हैं |

इन तमाम मुश्किलों के बावजूद ये आप लोगों की खुशकिस्मती है कि आपके यहाँ पहले दिन से Democracy (जम्हूरियत/प्रजातंत्र)) कायम रही और इसका सफर कदम-बा-कदम आगे बढ़ता रहा और हमारी बदनसीबी है कि हम आज़ादी के बाद Democracy(जम्हूरियत/प्रजातंत्र)  को बढ़ावा ना दे सके | ऐसा पहली मर्तबा हुआ है कि हमारी एक Elected Government(चुनी हुई सरकार) अपना tenure(कार्यकाल/अवधि) पूरा करने वाली है, वरना उससे पहले कभी दो, कभी ढाई वर्ष में हमारी Elected Government(चुनी हुई सरकार) की छुट्टी होती रही | आपके यहाँ भी ग़ुरबत और भुखमरी है लेकिन हमारे यहाँ Poverty Line(गरीबी रेखा) से नीचे जिंदगी जीने वालों में मुसलसल बढ़ोतरी हो रही है और अब वो चालीस फीसद हो चुकी है |

इस जगह मुझे महात्मा गाँधी के चंद जुमले याद आ रहे हैं | उन्होंने कहा था – “उस गरीब तरीन, कमज़ोर तरीन शख्स को याद कीजिए, जिसे आपने देखा हो और अपने आप से पूछिए कि जो कदम आप उठाने जा रहे हैं, क्या उसका कुछ फायदा उसको होगा ? क्या उसे उससे कुछ हासिल होगा ? क्या उससे वो अपनी जिंदगी और अपनी किस्मत पर कुछ काबू हासिल कर सकेगा ?”

महात्मा गाँधी ने जिस गरीब इंसान की बात की थी, बरेसगीर के इस पिछड़े हुए और पिसे हुए गरीब इंसान को क्या हमने बीते हुए चौंसठ वर्षों में कुछ याद किया ? हमने ऐसा नहीं किया और दोनों तरफ सरहदें मज़बूत की जाती रहीं, उन पर जंग होती रही | दोनों तरफ की गोलीबारी ने इंसानों के घरों और पक्षी-पखेरुओं के घोंसलों को जलाकर राख कर दिया |

आज सरहदें भी वहीँ हैं, सरहदों के पार मुल्क भी वहीँ है और उन मुल्कों में रहने वाले लोग भी वहीँ हैं और ये सब कुछ 1947 से मौजूद है | एक पाकिस्तानी के तौर पर मुझे ये मानना चाहिए कि मेरे मुल्क की सीमाएँ सिमट गई हैं | ईस्ट बंगाल हमसे अलग हो गया और 1971 से वो  बांग्लादेश है, एक आज़ाद मुल्क |
हम ये कैसे भुला सकते हैं कि हिन्दुस्तान के नक़्शे पर जब सरहदें खींची गई तो दोनों तरफ के लाखों बेगुनाह लोग, दोनों तरफ के जुनूनी और सफाक लोगों के हाथों क़त्ल हुए | बस्तियाँ और औरतें बर्बाद हुईं | इतिहास का सबसे बड़ा Exodus(निष्क्रमण) सबसे बड़ा तरके वतन हुआ | वो ख्वाब जो दिखाए गए थे, के ये बँटवारे के बाद हिन्दू और मुस्लिम Community(समुदाय) के बीच तनाव खत्म हो जायेगा, वो झूठा साबित हुआ | तभी 14 अगस्त 1947 की रात फैज़ साहब ने लाहौर के माल रोड पर अपनी आँखों से जो कुछ होते देखा, उसने उनके दिल के टुकड़े कर दिए और उन्होंने अपनी मशहूर नज़्म लिखी –

‘ये दाग दाग उजाला ये शब गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं’
उन्होंने अपनी इस नज़्म को खत्म करते हुए कहा था –
‘निजात-यय-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो के वो मंजिल अभी नहीं आई’

इनकी ये नज़्म लाहौर से निकलने वाले अदबी रिसाले ‘सवेरा’ में छपी थी और इस जुर्म सज़ा में ‘सवेरा’ की पब्लिकेशन पर छः महीने का बैन (Ban)लग गया था और फिर फैज़ साहब पर जो गुजरी, वो एक लंबी कहानी है, जिसको आप, मैं और दूसरे यहाँ बैठे हुए बहुत से लोग जानते हैं | जिस वक्त बँटवारा हो रहा था, उस वक्त ऐसे बहुत से लोग मौजूद थे, जो ये जानते थे कि अगर हमने बँटवारे की कीमत पर आज़ादी ली, तो वो हमें बहुत महँगी पड़ेगी | आपसी नफरत खत्म होना तो दूर की बात है, ये नफरत अपनी इन्तहा को पहुँचेगी | उन लोगों में सबसे अहम नाम मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और उनके दूसरे साथियों का है, जो बेबसी से ये सब कुछ होता देखते रहे | समय उस वक्त उनके खिलाफ था और उसने उनकी ख्वाहिश के खिलाफ फैसला दिया | इसके बावजूद मौलाना आज़ाद ने और दूसरे बहुत से लोगों ने अपना point of view (दृष्टिकोण) नहीं बदला और अपनी बात पर अटल रहे | मौलाना को कॉंग्रेस का ‘शो ब्वॉय’ कहा गया | अलीगढ़ स्टेशन पर उनके गले में जूते के हार डाले गए लेकिन उन्होंने कॉंग्रेस और हिन्दुस्तान को नहीं छोड़ा | वो दोनों Communities (समुदायों)  के बीच भाईचारे की बात करते रहे |
गुजरी हुई छह दहाइयों में दोनों मुल्कों की सरहदों पर Tension (तनाव) अपनी इन्तेहा पर पहुँची | हमने आपस में छोटी-बड़ी पाँच जंगें लड़ीं | हमारे आपसी Relations(संबंध) खराब रहे | हमारे अंदर नफरतों का ज़हर फैलता रहा 
लेकिन दोनों तरफ कुछ लोग थे, जो ये कहते रहे कि लड़ाई-दंगे से, नफरत से कुछ नहीं होगा, एक-दूसरे की सरहदों का एहतराम कीजिए | एक-दूसरे के लिए अच्छा सोचिए | निर्मला देशपांडे, जिन्हें हम सब दीदी कहते थे, वो “गोली नहीं बोली” का नारा लगाती रहीं | मुझ जैसे लोग पाकिस्तान में “पाक-हिंद प्रेम सभा” बनाकर अमन की और दोस्ती की बात करते रहे | हम कहते थे कि हमने लड़ाई-दंगों को आजमा कर देख लिया | इसका नतीजा सिर्फ तबाही, बर्बादी, भुखमरी, ग़ुरबत और बेरोज़गारी की सूरत में निकला | अब क्यों न अमन को भी एक मौका दिया जाए | उसे आजमा कर देखा जाये कि उसका नतीजा क्या निकलता है |

मुझे अच्छी तरह याद है कि 1979 में जब हम 12-14 लोगों ने “पाक-हिंद प्रेम सभा” बनाई, अमन की और दोस्ती की बात करने के लिए जलसा किया और उस वक्त के इंडियन कौंसिल जेनरल मणिशंकर अय्यर को चीफ गेस्ट बनाया तो हम गद्दार और ‘रॉ’ (RAW)के एजेंट कहे गए |

शायद यही वजह है कि कारगिल एडवेंचर(Adventure) के फ़ौरन बाद मई 2000 में जब हिना जिलानी, अस्मा जहाँगीर और मैं 60 औरतों और लड़कियों के साथ दोस्ती बस के जरिए लाहौर से वाघा के रास्ते दिल्ली के लिए रवाना हुए तो मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं आता था कि हिन्दुस्तान जाने के लिए इतनी बहुत-सी औरतें हमारे साथ हैं | इसलिए कि जब 1979 में हम कराची वालों ने “पाक-हिंद प्रेम सभा” बनाई, तो बहुत मुश्किल से 10-12 लोग उसमें शामिल होने के लिए तैयार हुए थे | हर शख्स डरता था, यूँ लगता था, जैसे हम हिन्दुस्तान से अमन की बात नहीं कर रहे, पाकिस्तान से गद्दारी कर रहे हैं | और अब पुलों के नीचे से पानी तो क्या बड़े-बड़े दरिया बह गए हैं | पाकिस्तान-हिन्दुस्तान के दरम्यान अमन की बात करना इन दिनों फैशन है | अब जब मैं साल में तीन मर्तबा औरतों की बुलाई हुई अमन कॉन्फ्रेसों में जाती हूँ, वहाँ बेहतरीन अदीब, खवातीन और अमन के लिए सर गरम कारकुन औरतों की बातें सुनती हूँ, तो जी खुश होता है और महसूस होता है कि बात वाकई आगे बढ़ी है |

जंग...औरतों, मर्दों, बच्चों, बूढों, शहरों, देहातों सभी को अपना निवाला बनाती है, लेकिन औरत पर दोहरा अज़ाब आता है | जंग की सूरत में उनका सब कुछ दाँव पर लग जाता है | उनका घर, उनके बच्चे, उनका खानदान, घर के मर्द लड़ने जायेंगे, मारे जाएँ, जंगी कैदी बनें या लापता हो जायें, जिस्मानी या जेहनी तौर पर माजूर होकर घर लौटें तो उनकी हर वजह के तश्दूद को उनके घर की औरत सहती है | दर-ब-दर होने की सूरत में सर छुपाने के लिए ठिकाना ढूँढना, दो वक्त की रोटी, ईंधन, पानी और दवा का इंतजाम करना उनकी जिम्मेदारी होती है | और सितम बलाए सितम ये के वो फातेह फौजियों के हाथों बे-हुरमत होकर बदतरीन जिस्मानी और रूहानी और जेहनी टॉर्चर से गुजरती हैं |

बात वाकई आगे बढ़ी है और जिंगोइज्म(jingoism)में दोनों तरफ की माशी और इक्तासादी तरक्की को जिस क़दर नुकसान पहुँचाया, उसने आहिस्ता-आहिस्ता दोनों तरफ के लोगों का perception(धारणा) बदलना शुरू कर दिया | और अब हाल यह है कि दोनों हुकूमतें अमन की बात करने और फ्रेंडशिप पैक्ट (friendship pact) पर दस्तखत करने में पीछे रह गयीं हैं और दोनों तरफ के लोग आगे निकल गए हैं |

सरहद के पार जहाँ से मैं आई हूँ, वहाँ अब जनता कि Majority(बहुमत)  तमाम बड़ी पॉलिटिकल पार्टीज, ज्यादातर अदीब, शायर और Intellectuals (बुद्धिजीवी), journalists(पत्रकार), industrialists(उद्योगपति) यही कहते हैं के सरहदों के दोनों तरफ न सिर्फ अमन चाहिए बल्कि हर सेक्टर में हमें मिलजुल कर काम करना चाहिए, वीजा रिजीम(resime)को बहुत liberal(उदार) होना चाहिए, क्योंकि लोग जब आज़ादी से एक-दूसरे से मिलते हैं, तो उनका perception (धारणा) बदलता है और वह यह जान पाते हैं के दूसरी तरफ भी इन्हीं जैसे इंसान बसते हैं और इनके दुःख-दर्द भी इन्हीं के जैसे हैं |

आज सरहदें भी वहीँ हैं, सरहदों के पास बसने वाले दोनों मुल्क वहीँ हैं, इनमें रहने वाले भी वहीँ हैं, लेकिन लोगों की सोच में, इनके perception (धारणा) में ड्रामाई तब्दीली हुई है | अमन, दोस्ती और भाईचारे की जो फिज़ा आज है, वह इससे पहले कभी नहीं थी | हद तो यह है के पाकिस्तान के सबसे पॉपुलर टेलीविजन स्टेशन से चंद दिनों पहले एक प्रोग्राम में यह कहा गया के आज का पाकिस्तान न सिर्फ करारदाद पाकिस्तान से मुख्तलिफ़ है, बल्के Founding Father और करोड़ों मुसलमानों ने पाकिस्तान के बारे में जो ख्वाब देखा था, उससे भी बिल्कुल मुख्तलिफ़ नज़र आता है | आज का पाकिस्तान वो पाकिस्तान नज़र आता है, जो दरअसल कॉंग्रेस से जुड़े हुए और पाकिस्तान की तकसीम को कबूल न करने वाले मुसलमान लीडर दिखाते थे | वह कहते थे के पाकिस्तान के नाम पर हिन्दुस्तान की तकसीम दरअसल मुसलामानों के लिए अच्छा फार्मूला नहीं है |  और ये बर्रेसगीर में रहने वाले मुसलमानों की बेहतरी का मंसूबा नहीं है , ये बात सौ फीसद तो सही साबित नहीं हुई, लेकिन मुकम्मल तौर पर गलत भी साबित नहीं हुई है | प्रोग्राम के एंकर पर्सन ने कहा के उस वक्त के कॉंग्रेस के सदर मौलाना अबुल कलाम आजाद की हर मुमकिन कोशिश थी के हिंदुस्तान की तकसीम न हो | उनका ये कहना था के हिंदुस्तान की तकसीम मुसलमानों के लिए परेशानी का सामान पैदा कर सकती है |

23 मार्च 2012 वह ऑन एयर जाने वाले इस प्रोग्राम में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के विजन से जो बातें कही गयीं, उन्हें सुनकर मुझे यकीन नहीं आया के पाकिस्तानी टेलीविजन से मौलाना आज़ाद की तक़रीर सुनाई जा सकती है | ऐसे ही बहुत-सी बातें हैं, जो अब पाकिस्तान में की जा रही हैं | आपके यहाँ भी लोगों का Perception(धारणा) बदल रहा है | सोचने की बात यह है के इस Perception(धारणा) में बदलाव आने की कितनी भारी कीमत हम दोनों मुल्कों में रहने वालों ने अदा की है |

जिन दिनों दोनों मुल्कों ने एटमी धमाके किये, उस ज़माने में जिंगोइज्म(jingoism)उरूज पर था, दोनों तरफ से यह कहा जा रहा था के Balance of Terror कायम रहना चाहिए | ये बहुत मुश्किल वक्त था | ये वह दिन थे, जब Balance of Terror को ना मानने वाले गद्दार कहे जा रहे थे | ऐसे मौके पर Pakistan peace coalition  ने 28 मई 2002को जिंगोइज्म(jingoism)के खिलाफ कराची में एक सेमिनार किया था | मैंने इसमें एक पर्चा पढ़ा था और इसके आखिर में कहा था के पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के दरम्यान अगर न्यूकलियाई जंग छिड़ जाती है अगर जौहरी हथियार इस्तेमाल होते हैं तो इनकी आँच ढाका और काठमांडू तक जायेगी, इनके खंडहर से उठने वाले न्युकलियाई बादल श्रीलंका को भी ढाँप लेंगे और तिब्बत के इन बौद्ध मठों तक इस आग की तपीश महसूस की जायेगी, जहाँ अभी बारूद की बू तक नहीं पहुँची | हिमालय की बर्फ पिघलेगी और चीन के खेत भी झुलस जायेंगे, जो चीनी किसानों ने पहाड़ों में सीढियाँ तराश कर उगाई हैं | ये मसला सिर्फ पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का नहीं है, ये जुनूबी एशिया का मामला है, ये इससे आगे की ज़मीनों और इंसानों की जिंदगी का मामला है |

इस रोज मैंने ये भी कहा था के कैसे भूल सकते हैं, इन शहरों में हम सब का माजी रहता है, हमारा हाल और मुस्तकबिल साँस लेता है, क्या हम यह सोच भी सकते हैं के सिंधु, रावी, गंगा, जमुना, सून और मूसा नदी दलदल बन जाए और ये दलदलें करोड़ों इंसानों की लाशों से भरी पड़ी हों | क्या हम अपने तमाम तहजीबी, तारीखी, सकाफती विरसे को भाप बनकार उड़ते हुए देखने का तसव्वुर भी कर सकते हैं | हमारे बर्रेसगीर में वेदें लिखी गई, रामायण लिखी गई, यहाँ महात्मा बुद्ध और महावीर पैदा हुए, खुसरो, मीर, कबीर, ग़ालिब और नजीर पैदा हुए | मताई, गुलेशा, सचल, सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, पंडित रतन नाथ, सरशार, फिराक गोरखपुरी, फैज़ ने यहाँ शायरी की | यहाँ अजंता एलोरा तराशे गए, यहाँ ताजमहल तामीर हुआ, इसी बररेसगीर के हिस्से में हजारहा साधू-संत,पीर-फ़कीर, औलिया आये | मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी, सरफुद्दीन याहिया मनेरी, निजामुद्दीन औलिया और देवा शरीफ दरवाद की दरगाहें – क्या इसलिए हैं के यह धुल बनाकर उड़ा दी जाये |

मैं पाकिस्तानी शहरी होने के साथ ही बररेसगीर की शहरी भी हूँ, मेरे लिए कराची, कलकत्ता और कानपूर में लाहौर, लखनऊ और दिल्ली में ढाके और पेशावर में कोई फर्क नहीं है | ये बररेसगीर के शहर हैं | मैं इन सबमें रहती हूँ और ये सारे शहर मेरे अंदर आबाद हैं और गौरी चले या अग्नि निशाना बररेसगीर के कोई भी बस्ती वीरान बने, हलाकत मेरी होगी | किसी हिंदू, किसी मुसलमान, किसी सिख या किसी ईसाई, किसी औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े, किसी कट्टरपंथी या किसी नास्तिक के रूप में मेरी ही जात हलाक हो रही होगी |

इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है कि वह मुश्किल दिन गुजर गए हैं, लेकिन फिर भी हमें जागते रहने की जरुरत है के कोई ग्रुप या आतंकवादी दोनों तरफ के लोगों के इस Perception (धारणा) को नुकसान पहुँचाने की कोशिश न करे | हमारी नस्लों का मुस्तकबिल इनका आने वाला कल अमन से जुदा हुआ हो | अमन की हिफाजत हमें जी-जान से करना चाहिए |

अपनी बात खत्म करने से पहले जी चाहता है के आपको बहुत पहले सुनी हुई एक कहानी सुनाऊं | अमन की बात करते हुए, ये कहानी मैं सुनाती हूँ, कहानी कुछ यूँ है | एक कस्बे में दो बच्चे रहते थे | दोनों दो बरस के हुए, तो एक-दूसरे से लड़ने-झगड़ने लगे | कभी एक दूसरे को घूँसे मार कर भाग जाता तो कभी पहला दूसरे को एक थप्पड़ रसीद कर देता | दोनों बारह बरस के हुए तो एक-दूसरे के खिलाफ डंडों और पत्थरों का इस्तेमाल, कभी एक सर फटता तो कभी दूसरे का हाथ टूटता | बाईस बरस के हुए तो दोनों ने एक-दूसरे पर गोलियाँ बरसाने का काम शुरू कर दिया | बयालीस बरस को पहुँचते-पहुँचते दोनों एक-दूसरे पर बम बरसाने लगे | जब बासठ बरस के हुए तो एक-दूसरे के खिलाफ ज़रासीम हथियार तैयार करने लगे | बयासी बरस की उम्र में दोनों मर गए | मरने के बाद भी उनका एक-दूसरे से नाता न टूटा और इनके बेटों ने इन्हें एक-दूसरे के बराबर में दफन कर दिया | कब्र का कीड़ा अपने लातादाद बेटों-बेटियों, पोतों-पोतियों और नवासा-नवासियों के साथ इन दोनों के लाशों को खा रहा था | तो कब्र के कीड़े का ये खानदान इस बात से आगाह नहीं था के इसने जिन लाशों पर जितने दिन दावत उड़ाई है, वे एक-दूसरे के जानी दुश्मन थे और वे कीड़े जानते भी कैसे के दोनों की कब्रों की मिटटी एक ही जैसी थी |

जरा थमिये कहानी अभी खत्म नहीं हुई है और बात सन 5000 ए.डी. तक जाती है | 5000 ए.डी. में एक बिज्जू ने जमीन से सर निकाल कर अपने चारों तरफ निगाह की तो देखा कि पेड़ झूमते हैं, कौवा काँव-काँव करता है, कुत्ते भौं-भौं करते हैं, मछलियाँ और घोंघे, चाँद और सितारे,समंदर की लहरें, दरिया की मौजें, जमीन पर रेंगती हुई चींटी और हवा में उड़ती हुई गौरेया सब इसी तरह हैं | बिज्जू ने आदमी को तलाश किया लेकिन वह उसे नहीं मिला | उसने करीब से गुजरते हुए लक्कड़बग्घे से आदमी के बारे में पूछा, तो उसने अफ़सोस से गर्दन हिलाई और कहा आदमी.........??? हाँ ! कभी-कभार कोई आदमी नजर आ जाता है |

मुझे यकीन है कि हमारे खूबसूरत बररेसगीर में ऐसा कभी नहीं होगा लेकिन इसके लिए दोनों तरफ के अमन पसंदों को बहुत चौकन्ना रहने की जरुरत है |
आप लोगों का बहुत-बहुत शुक्रिया आप लोगों ने मुझे सुना |
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औपनिवेशिक समय, भोजपुरी परिवेश और भिखारी ठाकुर का उदय

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भिखारी ठाकुर का रंगकर्म भोजपुरी लोकजीवन की विविध पक्षों का साहित्य है और उनका नाट्य भोजपुरी लोकजीवन की सांस्कृतिक पहचान. उनके रचनाओं और रंगकर्म में एक पूरी सामाजिक परंपरा और इतिहास के दर्शन होते हैं. किन्तु संस्कृति के बहसों का अभिजन पक्ष इन्हें परे ही रखता आया है. इसकी वजह स्पष्ट है क्योंकि इतिहास निरूपण में अभिजात्यवर्गीय सोच के इतिहास ने सदा ही संभ्रांतवर्ग की पक्षधरता निभाई है. वह गाँव के बजाय सत्ता केंद्रों की विषयवस्तु रहा है.[1]यद्यपि इतिहास और साहित्य के भीतर नए विमर्शों के उभार ने अब इतिहास और साहित्य की नयी व्याख्या लिखनी शुरू की हैं. फलस्वरूप अब तक जो परे था,उसे केंद्र में जगह मिल रही है. भिखारी ठाकुर इसी हाशिये के किनारे से मध्य की उपस्थिति के रूप में नजर आते हैं. उन्होंने भारतीय परिवेश में बीसवीं सदी के विमर्शों को बिना किसी पश्चिमी प्रभाव में आये केवल स्वानुभूति से अपने रंगकर्म में शामिल किया.              
भोजपुर अंचल के समाज और लोकजीवन को भिखारी ठाकुर के रचनाधर्मिता को उनके समय की दो अलग-अलग स्थितियों में हम स्पष्टत: देख सकते हैं. पहला,औपनिवेशिक दासता से प्रभावित भोजपुर और जीवन के बहुविध अभावों से घिरा भोजपुर. दरअसल अनेक विषमताओं से भरा भोजपुरी समाज अंदरूनी और बाहरी दोनों तरह के उत्पीड़नों का साक्षी रहा है. “औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन,जमींदारों के वर्ग उत्पीड़न के खिलाफ रैयतों/किसानों का वर्ग आन्दोलन, सामाजिक सोपानों में शीर्ष पर बैठी उच्च जातियों के सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ पिछड़ी/दलित जातियों का सामजिक आंदोलन बीसवीं सदी का बिहार इन तीन तरह के आंदोलनों का महत्वपूर्ण क्रियास्थल रहा है.[2]लेकिन बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध बिहार के लिए राजनीतिक स्तर पर तो सक्रियता का समय है,पर सामाजिक स्तर पर स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी. कारण स्पष्ट था कि वर्ण-व्यवस्था और सामंतशाही अपने तीखे और प्रभावी रूप में सक्रिय थी. इसी के भीतर से रंगकर्मी भिखारी ठाकुर निकलकर आये थे. एक तो हाशिए का व्यक्ति, उसमें भी जाति से नाई भिखारी ठाकुर के लिए यह शोषण आधारित व्यवस्था जानी-पहचानी थी.  
औपनिवेशिक ब्रिटिश राज के कारकों और प्रचलित सामाजिक श्रेणीकरण के मेल से बने सामाजिक सोपान की इस व्यवस्था के शोषण का तंत्र भी अपने क्रूरतम रूप में सक्रिय था. भोजपुरी लोकजीवन और समाज अपने राजनीतिक परिवेश से नावाकिफ नहीं था. लेकिन यह भी बड़ी सच्चाई थी कि इस समाज के सामने जीवन जीने के संघर्ष का प्रश्न भी मुँह बाये खड़ा था. पलायन का दंश यहाँ घर-घर में व्याप्त था. इसके निहित कारण कई थे. यह पलायन मजबूरी थी या शौकिया यह बाद की बात है पर भौगोलिक दृष्टि से देखें तो यह अंचल  गंगा, घाघरा और गंडक से आसपास बसा हुआ है. इसलिए यह दुहरी मार से ग्रस्त था. एक प्राकृतिक और दूसरा राजनीतिक,जिसके परिणामस्वरूप भोजपुरिये गभरू जवानों का पूरब देश के चटकल/जूट मीलों में काम करना मजबूरी भी थी. एक और बड़ा कारण था कि भोजपुरी अंचल का कास्तकार वर्ग मजदूरी में नकद के बदले अनाज देता था. जबकि बंगाल से लौटे, ‘बिदेसियोंको वहाँ नकद मिलती थी. ऎसी ही स्थिति में पेशेवर नाई भिखारी ठाकुर का प्रवासन बंगाल की ओर हुआ. भिखारी ठाकुर के प्रवसन के पीछे भी कई तरह की स्थितियाँ काम कर रही थीं. पहली यह कि 1914 में भीषण अकाल पड़ा था और अकाल बीता तो 1934 का भूकंप सामने आ गया था. एक दूसरा आर्थिक पक्ष यह था कि कामगारों को मजदूरी नकद चाहिए थी, जो कलकत्ता जैसे महानगर में ही संभव था. वैसे भी सारण में बड़े पैमाने पर प्रवास का लंबा इतिहास रहा था. इसके कारण यहाँ की निचली जातियों को सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और राजनीति का अपना ही रूप विकसित करने का अवसर मिला.[3]सो, भिखारी ठाकुर भी तमाम भोजपुरियों के उम्मीदों के शहर कलकत्ता की ओर चल पड़े. 
इन परिस्थितियों में भिखारी ठाकुर का आजीविका के लिएकी ओर जाना आजीविका का एक रास्ता बना और दूसरा जात्रा’ ‘रामलीला’ ‘अंकियासे प्रथम परिचय उनके जीवन के उस सांस्कृतिक अभाव को एक दिशा दे गया, जिसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बिदेसियाके साथ सामने आया. भिखारी ठाकुर ने लिखा है गइलीं मेदिनीपुर के जीला/ओहिजे देखली कुछ राम-लीला.[4]लेकिन यह भी एक बड़ा सत्य है, कि इस दौरान पूरबगए, भूमिपुत्रों का दुहरा निर्वासन हुआ. एक उनकी स्त्रियों के लिए जो अधिक कारुणिक और संघर्षशील रहा और दूसरा स्वयं उनके लिए. भोजपुर अंचल के समाज की इस दारुण-दशा को भिखारी ठाकुर की कला का प्रश्रय और आवाज़ मिली.   
इस विषम परिवेश में उपजे एक लोककलाकार और उसकी सांस्कृतिक क्रिया के उभार के विषय में धनञ्जय सिंह ने अपने शोध में लिखा है– “भिखारी ठाकुर के बिदेसिया का उद्भव केवन श्रम पलायन से नहीं हुआ, वरन् संस्कृति-उत्पादन की परंपरा का भी उसमें योगदान है. यह सोलहों आना सच है कि बिदेसिया का निर्माण शहर(Destination) और गाँव(Origin)की संस्कृति के मेल से हुआ है...जब बंगाल में पुनर्जागरण का दौर था और सांस्कृतिक नाट्य-शैलियों के द्वारा जनमानस में शोषणमुक्त समाज होने के लिए जागृति पैदा की जा रही थी. उन्हीं लोकसांस्कृतिक नाट्य-शैलियों से प्रेरित होकर भिखारी ठाकुर ने भी नाट्य-मण्डली की स्थापना की बात सोची.[5]अब रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के लिए धनोपार्जन, लोकरंजन, लोकोपदेश आदि भाव उनके रंगकर्म और मंचीय प्रदर्शन के भीतर समाहित होने लगे. इन विषम परिस्थितियों में एक लोक कलाकार अपना आकार ले रहा था और इसके फलस्वरूप उपजा रंगकर्म उसके देशकाल,वातावरण की सच्चाईयों का आईना था.
एक और बात ध्यान देने की है कि भिखारी ठाकुर बीसवीं सदी के रंगकर्मी थे और यह सदी ऐतिहासिक तौर पर कई तरह के क्रांतिकारी परिवर्तनों, हलचलों का दौर रहा है. ऐसे ही समय में कामगार भिखारी ठाकुर का ट्रांस्फोर्मेशन रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के रूप में हुआ और जो कुछ भी उन्होंने सिरजा वह भारतीय पारंपरिक रंगमंच की अविरल धारा का एक अनिवार्य अंग बन गया. इसकी वजहें कई थी. अपने सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ मशाल उठाने वाले इस रंगकर्मी पर अपने पारंपरिक मूल्यों की भी छाप थी. इसलिए वह अपने विरासत में मिले इन मूल्योंके बावजूद जड़ता के, यथास्थितिवाद के पैरवीकार न होकर प्रयासों में खालिस प्रगतिशील थे. भिखारी ठाकुर ने नाच मण्डली से जीवनयापन और उसी नाच के मंच से लोकोपदेश और जन-जागरण का कार्य किया, जिसकी आज के सन्दर्भों में भी सार्थकता निर्विवादित है.
सच कहें तो साहित्यकार जिस देशकाल में जन्म ग्रहण करता है, उस पर उस समय के सामाजिक,आर्थिक सांस्कृतिक परिवेश का प्रभाव पड़ता है. यह प्रभाव किसी-न-किसी माध्यम से उसके रचनाओं में रूपायित होता है.खासकर, माध्यम के रूप में परम्पराएँ लोकरुचि और कल्पना आदि ही होती हैं. अतः जब साहित्यकार अपने ही क्षेत्र में योग्यता, क्षमता तथा शिल्प के कारण अपनी पहचान बनाता है, तो ऐतिहासिक महत्त्व ग्रहण करता है.[6]भिखारी ठाकुर इसके अपवाद नहीं थे. इसके अलावा मौखिक परंपरा में भी कुछ सूत्र भिखारी ठाकुर को मिले होंगे, जिससे उनका सांस्कृतिक पक्ष और सुगठित हुआ. उनसे पहले गोपालगंज के हथुवा महाराज के दरबार की सुन्दरी बाई और दुनिया बाई, दोनों बहनों के गीत और रसूल अंसारी[7]के नाच की परंपरा भी उनके सामने थी. उन्होंने सुंदरी बाई के बटोहियाऔर परदेसी की बातके सूत्र लिए थे और रासुहाग सिंह को दिए एक इंटरव्यू (संभवतः यह भिखारी ठाकुर का एकमात्र इंटरव्यू था) में इसकी स्वीकारोक्ति की है -मैंने बिदेसिया नाम सुना था,परदेशी की बात आदि के आधार पर मैंने बिरहा-बहार बनाया.[8]वैसे भारतीय रंगजगत में ऐसे उदाहरण शायद ही मिले, जहाँ कोई सर्जक या रंगकर्मी प्रदर्शन के लगभग सभी पक्षों पर समान दक्षता रखता हो और उसने कहीं से भी विधिवत् शिक्षा न ली हो. आमतौर पर अधिकांश रंगकर्मी, जिन्होंने अपने लोकरंग को अपने रंगकर्म का आधार बनाया, वह सभी कहीं-न-कहीं किसी स्कूल के दीक्षित कलाकार थे. फिर चाहे वह महान रंगकर्मी हबीब तनवीर, एच. कन्हाईलाल या रतन थियम ही क्यों न हों. यहाँ इन पंक्तियों का अभीष्ट भारतीय रंगजगत के इन महान विभूतियों से भिखारी ठाकुर की तुलना करना नहीं है, न ऐसा किया जा सकता है. ये सभी रंगकर्मी अलग-अलग परिस्थितियों में अपनी-अपनी लोकसंस्कृति को अपनी कला के मार्फ़त रंग-समुदाय के समक्ष पेश कर चुके हैं और किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं. पर जब भिखारी ठाकुर के संदर्भ में जब इनका जिक्र किया जा रहा है, तब इसका अर्थ केवल एक ही है कि इन रंगकर्मियों ने भी अपनी लोकसंस्कृति को अपने रंगकर्म का माध्यम बनाया. अपने समय में में भिखारी ठाकुर भी यही कर रहे थे. एक दूसरी बात यह भी है कि भिखारी ठाकुर को न तो कोई विधिवत शिक्षा मिली थी और न ही वह किसी विरासत के उत्तराधिकारी रहे. उनके रंगकर्म का आधार पूरबी प्रान्तों के प्रदर्शनकारी कलारूप और भोजपुर अंचल में प्रचलित रंग-परम्पराओं ने भिखारी ठाकुर को प्रेरणा दी तथा समाज और मंच पर कुछ अनूठा करने की अकूत लालसा ने उनके भीतर के रंगकर्मी को एक विशिष्ट भावबोध एवं स्थान दिया. उनका रंगकर्म किसी एक फ्रेम में बाँधकर नहीं देखा जा सकता क्योंकिभोजपुरी अंचल के रंग-परिवेश की परिकल्पना भिखारी ठाकुर के उदय से पूर्व क्या थी, यह ठीक-ठीक स्पष्ट नहीं. हाँ! इतना जरुर है कि लौंडा नाच, नेटुआ, जट-जटिन सामा-चकेबा, झिंझिया, पंवरियाँ, लोरिकायन, गोड़उ नाच, घंटी कछ्नाया आदि भोजपुरी समाज में पहले से प्रचलित थे जिन्होंने भिखारी ठाकुर के रंगकर्म को और समृद्ध किया.
भिखारी ठाकुर के पास किसी सांस्थानिक मंच से परे अपना मंच था, जिसकी बुनियाद पर भिखारी ठाकुर की खांटी पेशेवर रेपर्टरी काम कर रही थी.जब हम भिखारी ठाकुर के संदर्भ में पेशेवर रेपर्टरी की बात कर रहे हैं तो यह बात याद रखनी होगी कि भिखारी ठाकुर ने सामाजिक सम्मान(व्यक्तिगत) की जगह अपने रंग-प्रदर्शन को वरीयता दी. यह भी कहा जा सकता है कि बेशक रसूल मियाँ का नाच भोजपुर अंचल में भिखारी ठाकुर से पहले मशहूरियत पा चुका था और भोजपुरी साहित्य के अध्येताओं को रसूल भिखारी ठाकुर के अग्रवर्ती कवि/सर्जक लगें पर अपनी निरंतरता और वैविध्यमयी प्रदर्शन परंपरा तथा कौशल की वजह से भिखारी ठाकुर की मण्डली को संभवतः भारतीय रंगमंच की लोक परंपरा की पहली पेशेवर मंडली कहा जा सकता है.
बहरहाल, जब हम भोजपुरी लोक जीवन के परिवेश और औनिवेशिक समय में भिखारी ठाकुर के रंगकर्म एवं रचनाशीलता को देखते हैं तब यह पाते हैं कि उनकी रचनाओं और उनके प्रदर्शनों में भारतीय राष्ट्रवाद पर उपनिवेशवाद द्वारा खड़े किये गए राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक तीनों चुनौतियों के मुकाबले का माद्दा एवं चेतना मौजूद है, जबकि 1920 के बाद की स्वीकृत हिंदी कविता अपने को मात्र राजनीतिक तथा सांस्कृतिक चुनौतियों की ही आलोचनात्मकता तक सीमित रखती हैं.[9]रंगसर्जक भिखारी ठाकुर यहीं पर आगे निकल जाते हैं. उनका साहित्य और रंगकर्म आम जन की पीड़ा,लोकजीवन के उल्लास की संस्कृति और स्त्रियों के सुख-दुःख के संवेदनशील पक्षधर के रूप में आता है. यही वजह है कि अपने परिवेश से प्रेरणा और शिक्षा ले भिखारी ठाकुर अपने रंगकर्म से भोजपुर अंचल के समाज और जीवन के चितेरे बन जाते हैं और उनका व्यक्तित्व भोजपुर के सांस्कृतिक महानायक का आकार ग्रहण कर लेता है. इस बात में को शक नहीं होना चाहिए कि भिखारी ठाकुर अपने रंग कौशल में मात्र भोजपुरी के रंगकर्मी नहीं रह जाते. उनकी रचनाएँ और उनसे निर्मित रंगपाठ अपने ही बनाये दायरों से बाहर की सार्थक गाथा कहने लगते हैं. इसलिए भोजपुरी अंचल के रंग-इतिहास ही नहीं बल्कि जातीय संस्कृति का इतिहास लेखन भी रंगकर्मी भिखारी ठाकुर के बिना पूरा नहीं हो सकता, वह भोजपुरी जातीयता के रंगमंच की अनिवार्य उपस्थिति हैं. किसी रंगकर्मी के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी कि उसका रंगकर्म कालान्तरण करके आज के संदर्भों को भी अपने पाठ में समाहित करता है. भिखारी ठाकुर का रंगकर्म इसी की एक बानगी है.
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 (नटरंग खंड-25, अंक - 55 जनवरी-जून 2015 में प्रकाशित )
(मोडरेटर की सहमति के बिना इस ब्लॉग का कोई भी अंश/लेख आदि प्रयोग में न लाएँ। इस संबंध में makpandeydu@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। सादर - मोडरेटेर, जन्नत टाकीज़)





[1]संपादकीय,लोकरंग-1,सं.सुभाष चंद्र कुशवाहा, सहयात्रा प्रकाशन प्रा.लि., दिलशाद गार्डन,दिल्ली-95, पहला सं.2009, पृ.1.
[2]फ्लैप, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम,प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकांत,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-2.
[3]चंद्रशेखर, लोकप्रिय संस्कृति का द्वंद्वात्मक समाजशास्त्र, संदर्भ: बिदेसिया, सांस, जसम, अशोक नगर, इलाहाबाद-211001, उत्तर प्रदेश, प्र.सं.2011,पृ.48.
[4]भिखारी ठाकुर रचनावली,सं.नगेंद्र प्रसाद सिंह,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना-800004,पृ.312.
[5]सिंह, धनञ्जय, लोकधर्मी नाट्य परंपरा और भिखारी ठाकुर का नाट्य साहित्य, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,पृ.119, अप्रकाशित
[6]चौधरी, केदार, भिखारी ठाकुर के नाटकों में लोकजीवन,एम.फिल.(1991), लघु शोध-प्रबंध, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,दिल्ली,पृ.70.
[7]सुभाषचंद्र कुशवाहा ने लोकरंग-1में रसूल अंसारी पर एक लंबा शोधपरक लेख लिखा है. वहीं डॉ.राजेंद्र प्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक आधुनिक भोजपुरी के दलित कवि और काव्यमें रसूल अंसारी को भिखारी ठाकुर के पूर्ववर्ती परंपरा का कलाकार ठहराया है.
[8]अश्विनी कुमार पंकज द्वारा पत्रिका बिदेसिया-1’, 1987 में प्रकाशित इंटरव्यू.
[9]बद्रीनारायण, लोकसंस्कृति और इतिहास, पृ.38.

हिंदी नाटक और रंगमंच का शिक्षण और शोध की दिशाएँ

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हिंदी साहित्यांतर्गत जबसे नाटक और रंगमंच का शिक्षण महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में होना शुरू हुआ, तबसे ही संभवतः इसके प्रायोगिक पक्ष, जो कि इसका सबसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण पक्ष है, को जाने-अनजाने उपेक्षित रखा गया है. इतना ही नहीं पुराने अथवा क्लासिक कहे जाने वाले नाटकों के ही नहीं बल्कि आधुनिक नाटकों, जो अधिक प्रदर्शित हुए और खेले गए हैं, उनका भी शिक्षण अधिकांशतः दास्तानगोई पद्धति से ही होता रहा है और उनपर शोध टेक्स्ट केन्द्रित ही अधिक होता रहा है. फ्रेड मैक्ग्लेन ने कहा है कि ‘टेक्स्ट(पाठ) में बंद अभिनेता को आजाद किया जाना चाहिए और सहभागिता के मंच को पुनः बनाना चाहिए.[1]अकादमिक शिक्षण और शोध के संदर्भ में यदि मैक्ग्लेन की इस बात कि ‘टेक्स्ट में बंद अभिनेता को आजाद किया जाना चाहिए’ से पूरी तरह सहमत ना हुआ जाए तो भी हम सभी इतना तो अवश्य देखते हैं कि नाटक के शिक्षण और शोध में ऐसे कई प्रश्नों से हम लगातार अपने पढ़ने के संदर्भ में जूझते हैं, जो मूलतः प्रस्तुति-प्रक्रिया के दायरे में आते हैं. मसलन, जब शिक्षण में प्रसाद के नाटकों की रंगमंचीयता, नाटकों की पाठ-प्रस्तुति, प्रस्तुति प्रक्रिया आदि से संबंधित प्रश्न लगातार परीक्षा में पूछे जाते हैं तब यह सवाल मौजूं हो जाता है कि नाटक और रंगमंच का अध्ययन-अध्यापन और शोध जब पाठ और मंच के सहभागिता से ही नहीं निर्मित होता तो ऐसे प्रश्न कितने वाजिब हैं. ऐसे में पठन-पाठन और शोध की दिशा एकांगी होगी. जाहिर है कि इसका उत्तर क्लासरुमीय या पुस्तकालयी परिधि के भीतर संभव नहीं. ऐसा कहने की एक बड़ी वजह यह भी है कि नाटक और रंगमंच के संदर्भ में जिस तथ्य से हमारा पहले परिचय होता है, वह यह कि नाटक दृश्यकाव्य है अथवा नाटक और रंगमंच मूलतः और अंततः प्रदर्शनकारी कला है. परंतु कहने-लिखने से परे शोध के क्रम में यह बाद नेपथ्य में चली जाती है तथा नाटक और रंगमंच विषयी शोध भी अन्य दूसरी विधाओं के नजदीक जा खड़ा होता है.   
जहाँ तक नाटक और रंगमंच के शोध का संदर्भ हैं मेरा अभीष्ट किसी शोधार्थी या शोध-निर्देशक की योग्यता और किये जाने रहे अथवा किये गए शोध की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं है न यहाँ इस बहस में इस बात की जरुरत है. ध्यान देने वाली बात है कि इस पूरे उपक्रम का सबसे दु:खद पहलू यही है कि विश्वविद्यालयों में शोध का दायरा पाठ केन्द्रित अधिक हुआ है, रंगमंच केन्द्रित कम. अपने शोध की प्रक्रिया और कलेवर में नाटक और रंगमंच एक अलग अनुशासन की मसला है और इसी वजह से यह अलग तरह के शोध दृष्टि की माँग भी करता है. उसके लिए उसी तरह के शोध प्रविधि का चयन आवश्यक है, जो शब्द और मंच दोनों की दूरी को पाटे. ऐसा नहीं है कि नाटक का पाठ केन्द्रित शोध नहीं हो सकता लेकिन जब आप किसी विधा का एक फॉर्म तय करते हैं और उसका एक व्याकरण रचते हैं तब उस विधा को उसकी समग्रता में समझना आवश्यक हो जाता है क्योंकि “नाटक कोई पाठ्य-पुस्तक मात्र नहीं है, जैसे कि कहानी और उपन्यास. न उनकी तरह नाटक का सीधा संबंध ‘पाठकों’ से होता है, हालांकि अन्य विधाओं का भी नाट्य रुपंतारण और मंचन जरुर होता रहा है, पर जैसे ही वह विधा अपना मूल फॉर्म त्याग कर मंचस्थ होती है तो उसके अध्ययन और देखने की दृष्टि भी बदल जाती है. ऐसे में इस पर किया जाने वाला शोध भी मूल आलेख और मंचीय आलेख को केंद्र में रखकर करना उचित होगा.  नाटक एक जीवंत अनुभव है, जो अपनी जीवंतता रंगमंच पर ही प्राप्त करता है. नाटक की सही कसौटी रंगमंच ही है. रंगमंच को उसका निकष मानकर ही उसकी निजी सत्ता की खोज संभव  है. नाट्यकृति और रंगमंच एक-दूसरे के पूरक और यहाँ तक कि एक-दूसरे के पर्याय भी. निःसंदेह रंगमंच की आत्मा नाटकीयता है और नाटक की आत्मा रंगमंचीयता.[2]यह बात लगातर पढ़ते-पढ़ाते रहने के बावजूद शोध के क्रम में हम लगातार उसी पारंपरिक ढाँचे को लेकर अपने शोध विषय और शोध पद्धति को निर्मित कर लेते हैं. जबकि साहित्य शिक्षण और शोध के क्रम में नाटक और रंगमंच के पत्र में यह भी बातें देखने में आती हैं कि हमारी शिक्षा पद्धति में नाटक और रंगमंच के लिए टेक्स्ट केंद्रित शोध के बाहर अधिक स्पेस नहीं है, बल्कि जाने-अनजाने इसे सांस्थानिक मान लिया जाता है कि यह तो फलां स्कूल का काम है. दरअसल, जब तक ‘नाटककारों’ और ‘शब्दों’ के मंच को वास्तविक मंच अथवा दृश्य माध्यमों, तकनीकों और उनकी जानकारियों से भी लैस नहीं किया जायेगा, रंगमंच और नाटक का शोध उसी पारंपरिक और एकांगी ढर्रे पर ही चलता रहेगा. पाठ और प्रदर्शन की सहभागिता से ही नाटक और रंगमंच का शोध अपनी समग्रता में और अधिक विकसित तथा परिणामों में अधिक सार्थक और विश्वसनीय होकर सामने आएगा. इस कथन के आशय में डॉ० सत्येंद्र तनेजा के एक आलेख ‘आपबीती के बहाने नाट्यालोचन पर एक विमर्श’ का संदर्भ भी समाहित है, जहाँ उन्होंने नाटक और रंगमंच के अध्ययन अध्यापन और शोध की पारंपरिक दिशा पर सवालिया निशान लगाते हुए लिखा है कि “छात्रों में रंगमंच या उसके विभिन्न पहलुओं को गहराई से समझने की जिज्ञासा कम न थी परन्तु प्राध्यापन तो पुरानी लीक पर चल रहा है-रह-रहकर सभी प्रकार के सवालों के हल पुस्तकों में खोज पाना कैसे मुमकिन हो सकता है. व्यावहारिक पक्ष बिल्कुल अछूता है. यह जानकार आश्चर्य होता है कि एक शोधार्थी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर थीसिस लिखकर पीएच० डी० की उपाधि प्राप्त कर ली परंतु उसके परिसर में होने वाली प्रस्तुतियों या रंगजगत से उसका – या किसी शोधार्थी का – कोई सरोकार नहीं रहा. यह परिपाटी अब सभी विश्वविद्यालयों में मिल जाएगी. पुस्तकीय ज्ञान की अपनी सीमाएं हैं...जबकि मंचन के स्तर पर लगातार परिवर्तन और प्रयोग हो रहे हैं. पुस्तकीय-ज्ञान का महत्त्व कम नहीं है, वस्तुतः उसी से विषय की नींव बनती है परन्तु संपूर्णता तभी आ पाएगी जब नाटक और रंगमंच के पारस्परिक रिश्तों और उससे जुड़े सवालों पर पूरा आलोक पड़े.[3]मगर नाटकों की भी अपनी सीमा है. सभी नाटक एक जैसी गुणवत्ता और मंचीय संभावना के नहीं हो सकते. उदहारण के तौर पर शोधार्थियों को हरिकृष्ण प्रेमी और मोहन राकेश के नाटकों के बीच के फर्क को भी समझना होगा. इस संबंध में देवीशंकर अवस्थी द्वारा उद्धृत प्रेमचंद का मत भी द्रष्टव्य है “ड्रामे दो किस्म के होते हैं. एक किरत (पढ़ने) के लिए, एक स्टेज के लिए”[4]तो ऐसा समझा जा सकता है कि प्रकारान्तर से उन्होंने लिखित नाटक और मंच के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध के महत्त्व को समझा होगा. पर इसका दु:खद पहलू यह है कि परंपरागत शिक्षण एवं शोध पद्धति के आदी नाटक और रंगमंच के बीच एक विभाजक रेखा खींच देते हैं. मसलन, उनका तर्क होता है कि यह रंगकर्मियों का काम है, हमारा काम केवल इसके लिखित पाठ को पढ़ना-पढ़ाना भर है, इतना कहने मात्र से वह छूट जाते है और यह भूल जाते हैं कि अगर दोनों के बीच कोई संबंध नहीं बैठता, तो फिर वह अपने अभ्यास (अपने परीक्षण) में, जब वह प्रश्न-पत्र बनाते हैं अथवा शोध विषय का निर्धारण कर रहे होते हैं, उस समय वह कामचलाऊ शोध की ही भूमिका रच रहे होते हैं. तब उन्हें नाटक की अभिनेयता, रंग-सृष्टि अथवा रंगमंचीयता जैसे सवाल पूछने का कोई अधिकार नहीं.
दरअसल, मेरा ऐसा कहने का आशय यह बिलकुल नहीं है कि साहित्य के शिक्षकों अथवा शोधार्थियों को नाटक या रंगमंच पढ़ने-पढ़ाने और उस पर शोध करने-कराने के लिए नाट्य विद्यालयों में जाकर अभिनय अथवा नाट्य कलाओं का प्रशिक्षण लेना शुरू कर देना चाहिए. बल्कि मेरा सवाल सिर्फ उस पहलू की ओर इशारा करना है, जहाँ हम नाटक के टेक्स्ट और मंच के साहचर्य और सहयोग से नाटक के पठन-पाठन और शोध को अधिक प्रभावी और जीवंत बना सकते हैं, जो इस विधा की सबसे बड़ी और मूलभूत जरुरत है. यह प्रयोग नाटक और रंगमंच के शोध विषय और पाठ के शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों से अधिक प्रभावी ढ़ंग से जुड़ सकेगा और तब किया जाने वाला शोध अपने परिणामों में अधिक विश्वसनीय हो सकेगा. तब हम हिंदी भाषा/साहित्य के पाठ्यक्रम में नाटक और रंगमंच की प्रायोगिक और प्रभावी शिक्षा और शोध का, यानी टेक्स्ट और परफोर्मेंस दोनों के सहभागिता से बेहतर शिक्षण-परीक्षण का मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे. नाटक जो मूलतः और अंतत: प्रदर्शनकारी कला है, वह कम-से-कम नये शोध प्रक्रियाओं में पाठ और मंच से मित्रवत होकर व्यवहृत हो, तभी इसका शोध परिदृश्य एक सकारात्मक ऊँचाईयों तक पहुँचेगा, जो पहले के तमाम शोध प्रयासों से अधिक प्रभावी और सार्थक होगा. वैसे भी अकादमिक जगत में शोध की जो पद्धति अपनाई जाती है वही पद्धति नाट्यकला विभागों में पूरी तरह नहीं लागू होती. वहाँ वही बहस सामने आ जाती है कि मंच और पाठ का सामंजस्य अधिक आवश्यक है. यह सामंजस्य ही नाटक और रंगमंच के अध्ययन और शोध को व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करेगा. इसलिए यह बात पक्के तौर पर जान लेनी चाहिए कि नाटक और रंगमंच के शोध को केवल मुद्रित शब्दों तक सीमित करना दरअसल नाटक के अर्थ-संदर्भों को सीमित करना ही सिद्ध होगा.     
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(शीघ्र प्रकाशित होने वाले लेख का संक्षिप्त अंश)

सहायक सन्दर्भ सूची :
1.     रंग-प्रक्रिया के विविध आयाम, सं० प्रेम सिंह सुषमा आर्य, राधाकृष्ण, नयी दिल्ली
2.     रंग-प्रसंग-5, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली.
3.     रस्तोगी, गिरीश, रंगभाषा, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, वितरक राजकमल प्रकाशन,  नयी दिल्ली
4.        Postmodernism : Philosophy and Arts,Ed. Huegh J. Siverman, Routledge.
              



[1]द्रष्टव्यArticle : Postmodernism and Theatre by Fraid Macglein, Book – Postmodernism : Philosophy and Arts Ed. Huegh J. Siverman, page-137.
[2]देखिए, रंगभाषा, गिरीश रस्तोगी, पृष्ठ-44.
[3]द्रष्टव्य : लेख-आपबीती के बहाने नाट्यालोचना पर एक विमर्श, सत्येंद्र कुमार तनेजा, रंग-प्रक्रिया के विविध आयाम, पृ०32.
[4]द्रष्टव्य : राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रकाशित होने वाली पत्रिका रंग-प्रसंग-5 में देवीशंकर अवस्थी ने हिंदी की नाटक समीक्षा नामक लेख में प्रेमचन्द की चिट्ठी पत्री1, पत्र संख्या 178, पृष्ठ -148, 24 जुलाई 1924 के हवाले से लिखा है.   
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