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नट सम रिझवन तोहि की टेक : भारतेंदु का रंगचिंतन

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[यह लेख दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज मिरांडा हाउस के हिंदी-विभाग की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. रमा यादव ने लिखा है. यह लेख प्रो. रमेश गौतम की पुस्तक 'नाटककार भारतेंदु : नए सन्दर्भ नए विमर्श'(अनन्य प्रकाशन, दिल्ली  में संकलित है. डॉ. रमा न केवल एक बेहतरीन शिक्षिका है बल्कि इन्होंने लगभग 25 वर्षों से प्रदर्शनकारी कलाओं से अपनी संगत जारी रखी हुई है. आप श्रीराम सेंटर, मंडी हाउस, नई दिल्ली में न केवल प्रशिक्षित रंगकर्मी हैं बल्कि एक शानदार क्लासिकल नृत्यांगना और कवयित्री भी हैं. आपने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् के एल्ते यूनिवर्सिटी, बुडापेस्ट, हंगरी में हिंदी के लिए दो वर्षों तक अध्यापन किया है. यूरोप में आपका नाट्य 'मीरा'कई देशों में खेला और सराहा गया है. इसके अतिरिक्त इस देश के प्रतिष्ठित वरिष्ठ रंगकर्मी भानु भारती और अन्य रंगकर्मियों/निर्देशकों के साथ इन्होंने कई नाटकों में अभिनय, सहायक निर्देशन और निर्देशन भी किया है. आपसे हिंदी-विभाग, मिरांडा हाउस, दिल्ली-7 पर सम्पर्क किया जा सकता है.    
नोट : यह लेख छात्रोपयोगी जान यहाँ साभार पोस्ट की जा रही है इसका कोई अन्य मंतव्य नहीं है. है तो बस इतना ही की बेहतर लेख सब तक पहुँचे. मोडरेटर इस लेख में अभिव्यक्त बातों, तथ्यों या लेख पर कोई दावा नहीं करता.]
रंगकर्म एक चुनौती पूर्ण विधा है इसे भारतीय रंगकर्म के इतिहास और समकालीन रंगमंचीय परिप्रेक्ष्य में अच्छी तरह समझा जा सकता है . भारतीय रंगकर्म का इतिहास अनेक उठा- पटको, विरोधाभासो और परिवर्तनों का इतिहास है . भारतीय रंगकर्म की एक खास पहचान जो उसकी शुरुआत से ही रही है वो है उसकी प्रयोगधर्मिता . राजदरबारों से संरक्षण हासिल होते रहने पर भी यहाँ भास का उत्तररामचरितम, शूद्रक का मृच्च्कटिकम और मुद्राराक्षस जैसे नाटक लिखे गए . इन नाटकों की कथावस्तु इनकी प्रयोगशीलता की गवाही आज तक देती है. मुद्राराक्षस जैसा जटिल बौद्धिक राजनीतिक घात-प्रतिघातों का नाटक शायद ही विश्व की अन्य किसी भाषा में लिखा गया हो . भारतीय रंगकर्म अपने आपको ढ़ाई हज़ार वर्ष पूर्व जिस तरह से प्रतिष्ठित करता है वो इस बात को साबित करता है कि भारत का रंगकर्म से सम्बन्ध विश्व रंगमंच में सबसे पुराना है भरत का नाट्यशास्त्र इसका ज्वलंत उदाहरण है जहाँ नाटक अपनी मूलभूत दृष्टि के साथ स्वयं को स्थापित करता है और वो मूलभूत दृष्टि है दीवारों का ढहाना और इसीलिए भरत अपने  ग्रन्थ को ‘पंचम वेद’ की संज्ञा देते हैं जिसके द्वार किसी भी वर्ग और लिंग के लिए ससम्मान खुले हैं . आधुनिककाल में आकर भारतीय रंगकर्म की इस कमान को संभालते हैं भारतेंदु बाबु हरिश्चन्द्र . हरिश्चन्द्र नाटक की कमान को जिस रूप में थामते हैं वहाँ उसकी प्रयोगशीलता और समन्वित आधुनिक सोच का कहीं बाल भी बांका नहीं होता . यह सत्य है कि है रंगकर्म और भारतेंदु का व्यक्तित्व जिस एक स्थिति से सबसे ज्यादा लगातार जूझता और टकराता है वो है उनके समय में व्याप्त विरोधाभास और उनसे उपजी रंगकर्म की चुनौतियाँ . भारतेंदु का रंगकर्म भारतेंदु की रंगकर्म के प्रति प्रतिबद्ता का साक्षी है . भारतेंदु की पैदाइश १८५० में होती है और १८८३ में छपकर आता है नाटक के विवेचन और विश्लेष्ण पर उनका विस्तृत निबंध ‘नाटक’ . भारतेंदु के नाटक नामक निबंध का समर्पण पढ़ते हुए रौंगटे खड़े हो जाते हैं . एक –एक अक्षर को कई बार ध्यान से पढ़ने पर और उसको बूझने पर पता चलता है कि क्यों भारतेंदु युगनिर्माता थे. भारतेंदु के समर्पण की एक–एक पंक्ति से एक-एक शब्द से स्पष्ट है कि उनकी सेहत बिलकुल भी अच्छी नहीं थी परन्तु हिन्दी में नाटक संबंधी कोई भी किताब नहीं थी जो आगे के युग को दिशानिर्देश दे सके इसकी चिंता भारतेंदु को सताए जा रही थी और उसी चिंता का परिणाम है जीवन के अंतिम क्षणों में प्रकाश में आया उनका नाटक नामक निबंध – “ आज एक सप्ताह होता कि मेरे इस मनुष्य जीवन का अंतिम अंक हो चुकता, किन्तु न जाने क्या सोचकर और किस पर अनुगृह करके उसकी आज्ञा नहीं हुई . नहीं तो यह ग्रन्थ प्रकाश भी नहीं होने पाता .” ( भारतेंदु ग्रंथावली, पृष्ठ, ५५६ ) . भारतेंदु के समय में नट होना किसी गाली से कम नहीं था परन्तु भारतेंदु की भी टेक थी कि वो इस नट विद्या को भारत में पुनः प्रतिष्ठित करके ही चैन लेंगे . भारतेंदु के जीवन का छोटा सा इतिहास एक बड़े रंगकर्मी के जीवट और जिजीविषा का इतिहास है . नाटक नामक निबंध के समर्पण में भारतेंदु आगे स्पष्ट कर ही देते हैं कि – “ बपु लख चौरासी सजे नट सम रिझवन तोही .’’ इससे अधिक साहसिकता नाट्य साहित्य ही नहीं वरण साहित्य के इतिहास में भी कहीं देखने को नहीं मिलती . दरअसल सम्पूर्ण नाटक साहित्य और रंगमंच के इतिहास में उनकी टक्कर का नाटककार, रंगनिर्देशक और अभिनेता आज तक नहीं हुआ . साहित्यिक विधाओं और उनमें भी रंगकर्म को लेकर भारतेंदु की इतनी चिंता लाज़मी ही थी क्योंकि यह वो देश था जहाँ सबसे पहले रंगकर्म की शुरुआत होती है और यही वह देश भी था जहाँ नाटक और रंगकर्म के क्षेत्र में एक लम्बा अंतराल आता है . भारतेंदु को ये चिंता और इसके समन्वित कारण भीतर तक साल रहे थे . देश की चहुँमुखी दुर्गति के मूक दर्शक मात्र बनकर वह नहीं रह सकते थे . शोषण के खिलाफ विद्रोह के स्वर उठने ही चाहियें यही भारतेंदु का प्रयत्न था . भारतेंदु के नाटक भारत दुर्दशा में भारत भाग्य मंच पर अपना प्राणांत कर लेता है जो कि संस्कृत शास्त्रीय नियमों के खिलाफ पड़ता है, परन्तु भारतेंदु ने नाटक का यह अंत विशेष प्रयोजन के लिए किया है . बदले हुए युग में दृष्टि की भिन्नता का होना भी आवश्यक था और यही दृष्टि भिन्नता  युग को नया स्वर देने में सक्षम थी . भारतेंदु मंच पर के पुराने पड़ गए नियमों में परिवर्तन करते हैं और युगानुरूप नए मंच सत्य गढ़ने में किसी प्रकार का गुरेज़ नहीं समझते . भारत भाग्य का मंच पर प्राणांत दर्शक समुदाय में रोष की सृष्टि करता है, सोये हुए देश के निवासियों में नयी  उर्जा को फूंकने का प्रयास है भारत दुर्दशा . इस सन्दर्भ में लेखक निर्देशक प्रसन्ना का सीमापारनाटक याद आता है जहाँ भारतेंदु हरिश्चंद्र मृत्यु से संवाद करते नज़र आते है . भारतेंदु जिन्हें इतना काम करना बाकि था कि मृत्यु भी उन्हें ले जाने में संकोच करती है और उनके द्वार पर खड़ी उनके अंतिम काम के निपट जाने का इंतज़ार करती है . ये था हिन्दी नाटक के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चन्द्र का व्यक्तित्व . भारतेंदु का युग चौतरफा दबावों का युग था और भारतेंदु उन दबावों से सबसे अधिक जूझ रहे थे . सीधे सों सीधे महा बाँके हम बाकेंन सों’ कहने वाले भारतेंदु जानते थे कि देश की उन्नति आवश्यक है और इस उन्नति के लिए कमर कस लेनी होगी . भारतेंदु ने अपने पूर्वजों के धन को देश प्रेम पर कुर्बान कर दिया इसके लिए जिगरा चाहिए . भारतेंदु का कहना था कि जिस धन ने मेरे पूर्वजों को खा लिया उसे अब मैं खाउंगा . अपने छोटे से जीवन काल में ही भारतेंदु ने साहित्य का प्रवाह आधुनिकता की ओर मोड़ दिया . भारतेंदु वो भक्त हैं जो सीधे-सीधे संवाद की स्थिति में ईश्वर को खीँच लाते हैं – ‘कहाँ करूणानिधि केशव सोए जागत नहीं असीम जतन करी भारतवासी रोए’ . कहने वाला कवि जानता है अब रोने से बात नहीं बनेगी बल्कि विश्राम को छोड़कर उठना होगा . तत्परता का यही भाव समग्र भारतेंदु युगीन साहित्य की धुरी है और उस धुरी को गति देते हैं स्वयं भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्र . भारतेंदु ने जिस समय साहित्य की कमान संभाली वो समय भारतीय राजनीति और सामजिक दृष्टि से घनीभूत हो गए अँधेरे का समय था . थोड़ा बाद ही सही निराला राम की शक्ति पूजा में लिखते हैं –  ‘है अमानिशा उगलता गगन घन अन्धकार’ . देशहित में लगे तमाम लोगों की पहली कोशिश भारत को उसकी चहुँमुखी दुर्दशा से बाहर लाना था . काशी की गलियाँ और घाट जहाँ भारतेंदु का रंगकर्म पलता और बढ़ता है इस काम में मददगार साबित होते हैं . ये वही काशी है जहाँ बाबा तुलसीदास ने रामलीला का मंचन एक अनोखे अंदाज़ में आरम्भ कर एक सुदृढ़ अभिनय और मंचीय परंपरा सूत्रपात कर दिया था . यहाँ यह भी बात दीगर है कि भारतेंदु के बाद जिस बड़े लेखक ने नाटक लेखन की कमान संभाली वो अपने बच्पन की स्मृतियों में जब जाता है तो उसकी स्मृतियों में अंकित जो एक सबसे भास्वर स्मृति उभरती है वो  युगनायक भारतेंदु की ही है, यहाँ बात जयशंकर प्रसाद की हो रही है . क्योंकि भारतेंदु के बाद अगर कोई लेखक सही मायने में नाटक लेखन को एक उत्कर्ष प्रदान करता है तो वो निःसंदेह जयशंकर प्रसाद ही हैं . परन्तु जयशंकर प्रसाद अभिनय की उस परम्परा को पुनर्जीवित नहीं कर पाए जिसकी नींव भारतेंदु ने रखी . भारतेंदु एक साथ नाट्य लेखक, निर्देशक, अभिनेता और नाटक के लिए अनिवार्य समूह को बाँधने वाले व्यक्तित्व थे . भारतेंदु जानते थे कि जिस मार्ग पर वो पग धरने जा रहे हैं वो आसान काम नहीं इसलिए अभिनय जैसे कठिन कर्म को भी उन्होंने साध लिया था . भारतेंदु काशी की उन गलियों और घाटों को लगातार देख-परख रहे थे उन गलियों में फैले कर्मकांड का भेद भी उनकी दृष्टि से छुपा नहीं था और सबसे बड़ी बात ये कि वो विदेशी सत्ता की ताकत और उसके खेल को समझ रहे थे और उनमें पिसती जाती भोली-भाली जनता के दुखों का भी उन्हें संज्ञान था पर बात थी कि भारतीय जनता में आलस्य, काहिली और अंधविश्वास इतने व्याप गए थे कि जब तक उन पर सामने की सामने प्रहार न होता वो चेतती नहीं . इन्ही सब स्थितियों के बीच  शायद कहीं न कहीं ये भी पता था कि समय बहुत कम है और काम कठिन इसलिए बहुत कम समय में ही भारतीय रंगकर्म को भारतेंदु ने उस दिशा में मोड़ दिया जो अब तक के रंगचिंतन का मार्गदर्शन करने में महती भूमिका का निर्वाह कर रहा है.
भारतेंदु के सामने अपने रंगकर्म को प्रतिष्ठित करने में सबसे पहली और कड़ी चुनौती भाषा की थी . उस भाषा की आवश्यकता के दबाव को भारतेंदु ने अनुभव किया जो सीधे-सीधे भारत की जनता के हृदय को जाकर तीर की तरह भेद दे . यही कारण है कि भारतेंदु की भाषा  में वो वार है जो प्रहार करता है और उस प्रहार का परिणाम ठीक वैसा ही घातक होता है जो कबीर की भाषा का था . भारतेंदु जिस भाषा का चुनाव भारत की सीधी-सादी जनता तक पहुँचने के लिए करते हैं वो भाषा है रंगकर्म की भाषा . भारतेंदु इस बात को भली भांति समझते थे कि भारत में श्रुति और स्मार्त की एक लम्बी परम्परा रही है जिसमें समाज में फैली जड़ता और कुरीतियों के प्रति एक लम्बी लड़ाई लड़ी गयी है भारतेंदु भी ऐसे रंगकर्म को अपने उदेश्य को चरितार्थ करने का साधन बनाते हैं जो आज तक ज्यों का त्यों जनता को प्रभावित भी कर रहा है और गलत के खिलाफ उद्वेलित भी करता रहा है . भारतेंदु का रंगमंच कई मायनों में संस्कृत और लोक नाट्य रंगमंच का विस्तार लगता है परन्तु अपने उदेश्य की समकालीनता और भव्यता के कारण भारतेंदु का रंगकर्म बहुत आगे का रंगकर्म हो जाता है . भारतेंदु अपने नाटक नामक निबंध में संस्कृत नाटकों का सविस्तार हवाला देते हैं और साथ ही उस समय पश्चिम में जिस तरह के नाटक लिखे जा रहे थे उसकी भी बात कहते हैं परन्तु अपनी बात जोड़ते हुए जब वह नाटक नामक निबंध में यह कहते हैं कि नाटक का उदेश्य देशवत्सलता, समाज संस्कार और स्वदेशानुराग है तब भारतेंदु अपने रंगकर्म को पूरा का पूरा समकालीन परिस्थितियों से जोड़कर देख रहे होते हैं . भारतेंदु की समकालीन स्थितियाँ नाटक और रंगमंच के बिलकुल भी उपयुक्त नहीं थी विकट स्थितियों में देशजागरण और समाजोत्थान वो भी नाटक के माध्यम से . नाटक जो तब तक जनता की दृष्टि में अपने विराटत्व से बहुत नीचे आ चुका था . भारतेंदु नाटक नामक निबंध की पाद टिप्पणी में दर्ज करते हैं – “ हिन्दुस्तान से नृत्य विद्या उठ गयी, यह विद्या आगे इस देश में ऐसी प्रचलित थी कि सब अच्छे लोग इसको सीखते थे . ’’ नृत्य भी नाटक का ही एक अंग रहा या यूँ कह लें कि बात अगर अभिनय की आ जाए तो फिर नृत्य और नाटक में भेद ही कहाँ रह जाता है . भारतेंदु की चिंता मंच से जुड़ी उन कलात्मक विधाओं और उनकी प्रासंगिकता को लेकर थी जिनके कारण भारत देश जाना जाता रहा . भारतेंदु को नाटक को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए जिस तरह का परिश्रम करना पड़ा होगा उसकी कल्पना भी असम्भव लगती है . आज जब भारतीय रंगकर्म के सामने तमाम ज़रूरी आवश्यकताएँ मौजूद हैं तब भी भारतीय रंगमंच स्वयं को प्रतिष्ठित करने में असमर्थ है, परन्तु एक अकेले भारतेंदु ने रंगमंच में उस गति को शामिल कर दिया था जो किसी भी जीवित देश के रंगकर्म में होनी चाहिए . भारतेंदु और उनके मंडल का रंगकर्म किसी आन्दोलन या क्रांति से कम नहीं था यह केवल एक व्यक्ति का रंगकर्म नहीं था बल्कि ये सम्पूर्ण राष्ट्र से जुड़ा हुआ एक महती कार्य था . रंगकर्म के प्रति जिस समर्पण और अनुशासन की आवशयकता होती है वो भारतेंदु मंडल के एक-एक सदस्य में कूट-कूट कर भरा था . लगभग हज़ार सालों के मौन के बाद भारतेंदु नाटक को मुख्य धारा से जोड़ते हैं और उसे हिन्दी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं यह घटना किसी भी चमत्कार से कम नहीं थी . नाटक और रंगकर्म के लिए जिस संगठित अप्रोच की आवश्यकता है उसको आकार देने में भारतेंदु  को अपने युग के तनावों और दबावों को सीधे-सीधे स्वयं पर लेना पड़ा होगा इसी कारण जब भारतेंदु के रंगकर्म की बात आती है तो मध्यकाल के संत और भक्त कबीर की भी याद आती है जिन्होंने मध्यकालीन जड़ मानसकिता से मुखर विद्रोह मोल लिया . भारतेंदु इस बात को स्पष्ट करते हैं कि योरोप में नाटकों का प्रचार भारत से कहीं बाद में हुआ – “ योरोप में नाटकों का प्रचार भारतवर्ष के पीछे हुआ है . पहले दो मनुष्यों के संवाद को ही वहाँ नाटकों का सूत्रपात मानते हैं . प्राचीन ईसाई धर्मपुस्तकों में ‘बुक अव जाब’ और सुलैमान के गीतों में ऐसे संवाद मिलते है किन्तु इनके अतिरिक्त हिब्रू भाषा में और कोई प्राचीन नाटक का ग्रन्थ नहीं . योरोप में सबसे प्राचीन नाटक यूनान में मिलते हैं और यह निश्चय अनुमान हुआ है कि भारतवर्ष से वहाँ यह विद्या गयी होगी . ” ( नाटक, भारतेंदु ग्रंथावली, पृष्ठ, ५७७ ) भारतेंदु यहाँ पाश्चात्य नाट्य कला का विशद विवेचन करते हैं . यूनान, रोम, इटली की नाट्य कला तथा नाटककारों और नाट्य पाठ की विषद विवेचना करते हैं . स्पष्ट है कि भारतेंदु भारत में एक बार फिर नाट्य कला का पूर्ण उत्कर्ष देखने को लालायित थे और यही कारण है कि विरोधी परिस्थितियों में भी संघर्षरत रहे . संदेह नहीं कि आज भारत में नाटक वहाँ  नहीं जहाँ उसे होना चाहिए पर यह भी सत्य है कि आज भी सम्पूर्ण भारत में कई कई ऐसे नाट्य जीवी हैं जो केवल और केवल नाटक इसलिए कर रहें हैं क्योंकि वो नाटक के प्रति समर्पण रखते हैं . भारत में अभिनय कर्म के प्रति जो कर्मठता बिना किसी स्वार्थ भाव के और बिना किसी अनुदान के देखी जाती है वाकय में उसका सानी कहीं नहीं .

भारतेंदु को मूलतः नाटककार कहा जाए या पत्रकार यह बात भी निश्चित तौर पर नहीं कही जा सकती दरअसल उनका हर कर्म एक दूसरे का पूरक रहा जहाँ जब जिस विधा की आवशयकता पड़ी वहाँ  उस विधा  का प्रयोग भारतेंदु ने पुनर्जागरण की प्रक्रिया को धार देने के लिए किया . भारतेंदु इस बात को जान चुके थे कि सदियों की दासता में जकड़ी जनता को उसके अंधविश्वास और रूढ़ मानसिकता से निकालने का साधन ऐसा होना चाहिए जो उनके पीड़ा से दलित मन को त्राण प्रदान कर सके . इसके लिए जिस माध्यम की आवश्यकता थी वो कोई उपदेशात्मक या फिर चोट करने वाला माध्यम नहीं हो सकता था . नाटक जैसा मनोरंजन प्रधान माध्यम ही इस काम को बखूबी निभा सकता था . यह सही है कि भारतेंदु के समक्ष संस्कृत के भव्य मंचीय नाटकों का आदर्श था पर जिस समय भारतेंदु ने नाटक करने की ठानी उस समय उनके पास कहने मात्र भर को भी कोई रंगमंच नहीं था जिस पर वो अपने नाटकों को मंचीय जामा प्रदान कर सकें बावजूद इसके भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र एक से एक महत्वपूर्ण नाटक का सृजन करते गए साथ ही बहुत से नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया . रंगमंचीय संकट की इस समस्या का समाधान भारतेंदु ने जिस विध निकाला वो है लोक नाट्य परम्परा, और उससे  भी आगे बढकर उनके नाटक काशी के घाटों को अपने मंच के लिए उपयोग में लाते हैं और एक बड़े संकट का समाधान खोजते हैं बहुत ही सावधानी के साथ . भारतेंदु अपना मंडल बनाते हैं और वो मंडल सही मायनों में रंगकर्म को समर्पित मंडल था या कह लें कि वो भारतेंदु की अपनी खुद की रैपट्री थी जो जुनून की हद तक नाटक करना जानते थे . रंगकर्म के लिए आवश्यकता होती है एक महत्वपूर्ण दिग्दर्शक की और भारतेंदु ने उस युग नायक की भूमिका बहुत ही ईमानदारी से निभाही . भारतेंदु की ईमानदारी का ही परिणाम है कि उनके मंडल में  राधाचरण गोस्वामी, प्रताप नारायण मिश्र और बद्रीनारायण चौधरी जैसे जागरूक और समर्पित रंगकर्मी सम्मिलित हुए . सम्पूर्ण भारतेंदु युग निश्छल समर्पण और महती जीवन मूल्यों और उदेश्यों का युग रहा जिसमें ऐसे-ऐसे जियाले आए जिन्होंने स्वयं के लिए कुछ भी नहीं बचा छोड़ा .
आज से डेढ़ सौ बरस पहले भी बिना किसी साधन के नाटक को लेकर इतना अधिक समर्पण भारतेंदु को आज भी विस्मृत नहीं होने देता. वर्तमान में नाटक और रंगमंच पर जिस तरह का संकट काबिज़ है वो बार-बार हमें भारतेंदु कि ओर मुड़ने को उत्प्रेरित करता है . आज जब भारत के पास अनेक विशिष्ट नाट्यशालाएं हैं जहाँ नाटक और रंगमंच के प्रशिक्षण की विधिवत कक्षाएँ चलती हैं साथ ही नाटक और रंगमंच पर सरकार की लगातार दृष्टि रहती है तब भी भारतेंदु के रंगमंच की कमी खटकती नज़र आती है . कारण  साफ़ है भारतेंदु का रंगमंच तब से लेकर अब तक अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है, रंगकर्म  की जितनी समझ और पकड़ भारतेंदु को थी और सीमित साधनों में भी रंगकर्म को उन्होंने जिस हद तक आम जन में लोकप्रिय बनाया वो कमी आज खटकती है . भारतेंदु का रंगकर्म इस बात का साक्षी है कि रंगकर्म की सफलता असफलता बड़े बड़े प्रेक्षागृहों की मुखापेक्षी नहीं है उसके लिए कमरकस जूझने का भाव चाहिए . आज भारतीय रंग महोत्सव और अन्य अनेक नाट्य समारोह में नाटक के प्रति उस समर्पण भाव का अभाव खलता है जो भारतेंदु के रंगमंडल की पहली पहचान रहा . आज जबकि नाट्य संस्थाओं के पास उत्कृष्ट अभिनेता, अभ्यास के लिए स्पेस और पूँजी उपलब्ध है बावजूद उसके रंगमंच में उस तरह के प्रयास नहीं हो रहे जो रंगकर्म को एक निश्चित दिशा दे सकें और समाज को उस ओर मोड़ सकें जो उसकी उन्नति में सहायक हों . कुछ हद तक विश्वविद्यालय में तैयार नुक्कड़ नाटकों में वो उर्जा और तत्परता नज़र आती है परन्तु वे सिर्फ अच्छी गलियों, नुक्कड़ों और विश्वविद्यालय प्रांगणों और प्रतियोगिताओं के लिए संकेंद्रित होकर रह गए हैं . अपने आस-पास खींचे चौखटे से बाहर निकलकर वो जन-जन के और जन जागरण के नाटक नहीं बन पा रहें हैं . यहीं अंतर हैं भारतेंदु के रंगकर्म और आज के रंगकर्म में भारतेंदु ने अपने रंगकर्म को जन जागरण का अचूक माध्यम बनाया और इसके  रंगमंच को दर्शकों तक लेकर स्वयं उनके मध्य गए और यही उनके रंगमंच की असली ताकत बना और यही उनके रंगमंच को आज तक अलग पहचान देता है . भारतेंदु ने नाटक और रंगकर्म के माध्यम से जनजागृति के एक प्लेटफार्म तैयार किया जिसने उस समय के स्वाधीनता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया . इस स्थान पर डॉ राम विलास शर्मा की किताब भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ से उदृत करना चाहूँगी – “ राजा हरिश्चंद्र की प्रतिज्ञा थी – ‘ चंद टरै सूरज टरै, टरै जगत ब्यौहार ..  पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार . ” चन्द्रावली में सूत्रधार के अनुसार कवि हरिश्चन्द्र की प्रतिज्ञा यह है – “चंद टरै सूरज टरै, टरै जगत के नेम . यह दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न अविचल प्रेम ..  ” ( पृष्ठ, १२७ ) दरअसल यही हैं भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्र जिन्होंने दृढ प्रतिज्ञा ले ली थी रंगमंच को एकबार फिर से पुनः प्रतिष्ठित करने की और नाटकों के माध्यम से जनजागृति की . भारतेंदु ने देश हित का बीड़ा अपने दृढ कंधों पर उठाया था और जब तब वो जीवित रहे तब तक इस महती कर्म में लगे रहे . भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्र जानते थे कि यही वह देश है जहाँ नाट्यशास्त्र की सुदृढ़ परम्परा का सबसे पहले सूत्रपात हुआ और वह अपने युग की इस सच्चाई को भी जानते थे कि भारत आज सबसे पिछड़ा हुआ दिखाई पड़ता है, त्रासदी की इस गहरी खाई को पाटने का भारतेंदु जो भी कठिन उपक्रम कर सकते थे वो उन्होंने किया . भारतेंदु युग और हिन्दी भाषा की विकास परम्परा में डॉ राम विलास शर्मा लिखते हैं – “ हिन्दी में नाटको की परम्परा प्रायः थी ही नहीं विशेषकर उन नाटकों की जो जनता के बीच खेले जाने के लिए लिखे गए हों . भारतेंदु ने नाटक लिखने की परम्परा को ही जन्म नहीं दिया, उन्होंने नाटक खेलने की परिपाटी भी आरम्भ की और स्वयं अभिनय करके लोगों के सामने एक आदर्श उपस्थित किया . भार्तेदंदु के निधन के चार वर्ष बाद प्रताप नारायण मिश्र ने ‘ब्राह्मण’ में लिखा था कि बाढ़ वर्ष पहले कानपुर में लोग नाटक का नाम भी न जानते थे . वहां पर सबसे पहले रामनारायण त्रिपाठी के उद्योग से भारतेंदु के डॉ नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र और वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ खेले गए थे . तब नाटक खेलने का विरोध हुआ था और विरोधियों में प्रताप नारायण मिश्र जैसे लोग भी थे . इसी से समझा जा सकता है कि भारतेंदु को नाटकों की परम्परा चलने में किन बाधाओं का सामना करना पड़ा होगा . वे बाधाएँ सामने न टिक सकीं, यह तो इसी से सिद्ध है कि प्रताप नारायण मिश्र जो कभी विरोधी थे, स्वयं एक कुशल नाटककार और अभिनेता बन गए . ’’ पृष्ठ, ४५
भारतेंदु के सम्मुख संस्कृत की रंगमंचीय परम्परा और भारत की लोक नाट्य परम्परा का आदर्श पहले से ही विद्यमान था साथ ही साथ यूरोपीय ढब के नाटकों से भी उनका परिचय हो रहा था और एक बड़ी चुनौती के रूप में उनके सामने उपस्थिति थी पारसी रंग परम्परा जिसका उदेश्य केवल और केवल दर्शकों का मनोरंजन कर पैसा कमाना था . पर यह बात भी दीगर है कि नाटक की इस मनोरंजक धारा ने भी नाटक के दर्शक बनाने और नाटक तक आम जन को खीँच कर लाने में कड़ी पहल की . परन्तु भारतेंदु का रंगमंच एक कर्मठ राष्ट्रभक्त का रंगमंच था उसमें अपने समय की सच्चाई अभिव्यंजित थी अभी तक यथार्थ का ऐसा कटु और तिक्त रूप कहीं व्यंजित नहीं हुआ था . संस्कृत का अधिकाँश नाट्य कर्म राजाओं के संरक्षण में हुआ था या फिर कहीं न कहीं विशद नाट्यशालाओं का संरक्षण उन्हें प्राप्त था पर भारत में ऐसा पहली बार भारतेंदु के रंगमंच से होता है कि आम आदमी की चिंता नाटक के केंद्र में आती है और नाटक पुनर्जागरण चेतना का अग्रदूत बनकर सामने आ खड़ा होता है .

भारतेंदु ने जो भी नाटक लिखे उनके केंद्र में मनुष्य और राष्ट्र एक साथ चरितार्तथा पाते नज़र आते हैं . देश की समग्र राजनीतिक-सामाजिक छवि उनके नाटकों में व्यंजित होती है . अंधेर नगरी हो, भारत दुर्दशा हो या फिर वैदिक हिंसा-हिंसा न भवति सभी में भारतेंदु रंगकर्म को केकर कोई न कोई प्रयोग करने में संलग्न थे . भारतेंदु के नाटकों की बनावट इस तरह की है कि वो आअज तक किसी भी रंगमंच पर आसानी से खेले जा सकते हैं . दरअसल भारतेंदु के नाटक सार्वकालीक हैं उन्होंने अपने नाटकों की मंच परिकल्पना और पात्र परिकल्पना जिस प्रकार से की है वो आज भी नाटक के निर्देशक को अपनी और आकर्षित करती है . भारतेंदु क्योंकि स्वयं एक अभिनेता रहे इसलिए वो इस बात को जानते और समझते थे कि वो कौन सी भाषा होगी जिसके साथ निर्देशक और अभिनेता और साथ ही साथ मंच अपना ताल-मेल बैठा पाए और जो दर्शकों को सीधे-सीधे प्रभावित करे यही कारण है कि आज तक भारतेंदु के नाटकों को खेलने में किसी तरह की कोई काल सीमा आड़े नहीं आती . जबकि बाद के नाटककारों के साथ एक बड़ी समस्या नाटक के पाठ की रही चाहे वो जयशंकर प्रसाद हो या फिर एक लम्बे अंतराल के आड़ आए मोहन राकेश हों . भारतेंदु के नाटक जिस  तरह की ‘लिबर्टी’ देते हैं उस तरह की ‘लिबर्टी’ बाद के नाटकार और उनके नाटक नहीं देते . भारतेंदु के नाटक निर्देशक की दृष्टि के विस्तार और अभिनेता को अभिनय के लिए पूरा ‘स्पेस’ देते हैं इसका प्रमुख कारण यही है कि भारतेंद स्वयं एक कुशल अभिनेता और निर्देशक थे और इस नाते वो एक अभिनेता और निर्देशक की सीमाओं और अपेक्षाओं को बहुत बेहतर समझते थे . दरअसल भारतेंदु ने उस समय नाटक को मुख्यधारा से जोड़ा जब अभी हिन्दी में मंचीय नाटक थे ही नहीं . सबसे बड़ी बात भारतेंदु ने भारतीय कलाओं और उनकी प्रासंगिता का आंकलन उस समय किया जिस समय उसकी सबसे बड़ी आवश्यकता थी. भारतेंदु अपने नाटकों में जितने प्रयोगशील थे उतनी प्रयोगशीलता एक ही नाटककार में दृष्टिगत हो ही नहीं सकती . भारत दुर्दशा की पात्र परियोजना और उनसे सम्बंधित रंग निर्देशों को देखकर लगता है कि भारतेंदु उस समय जो रच रहे थे वह बहुत ही आधुनिक था और उसकी दरकार बहुत अधिक थी उस समय के समाज के मध्य . अंधेर नगरी जैसे नाटक का उसी दिन लिखा जाना और उसी दिन मंचित होना जुनून नहीं था तो और क्या था . भारतेंदु ने नाटक और रंगकर्म को एक बहुत ही मजबूत हथियार के रूप में पुनर्जागरण की चेतना को धार देने के लिए किया और इसमें वे सफल भी रहे . आज भारतेंदु सरीखे रंगकर्मी और रंग्चिन्तक की आवश्यकता है जो एकबारगी फिर से भारतीय रंगकर्म की दिशा को उस ओर मोड़ दे जिस और आवश्यकता है . 

देसवा और भोजपुरी के सामने के सवाल

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बीते कुछ वर्षों से चर्चित और 'बे-रिलीज'भोजपुरी फिल्म 'देसवा'पिछले दिनों यू-ट्यूब पर रिलीज कर दी गई. दर्शकों की अच्छी प्रतिक्रिया भी इस फिल्म को मिलनी शुरू हो गई है. मेरा मसला इस फिल्म के रिलीज होने या उसके रिलीज कर दिए जाने से लेकर नहीं है. यह फिल्म मैं पहले ही देख चुका हूँ और इस फिल्म को लेकर जो जूनून इसके निर्माता-निर्देशक नीतू चंद्रा और नितिन नीरा चंद्रा के हिस्से मैंने देखा है, उसको भोजपुरी समाज का ही सहयोग ना मिलना, जो इसका सबसे स्याह पक्ष है, भी मैंने देखा है. आखिर क्या वजह है कि एक निर्माता जो हिंदी सिनेमा की अपनी गाढ़ी कमाई को अपनी मातृभाषा में आ रही घटिया से नीचे स्तर की फिल्मों के सामने एक अच्छी फिल्म में निवेश करता है और वह फिल्म रिलीज होने तक को तरस जाती है. इसके पीछे कौन सा नेक्सस काम कर रहा था. एक युवा निर्देशक एक बेहतरीन साफ़-सुथरी फिल्म अपनी भाषा में बनाता है और वह फिल्म रिलीज नहीं हो पाती. ऐसा नहीं है कि देसवा ने कोई बड़े दावे कर दिए कि मैं ही वह झंडाबरदार हूँ जिसके पीछे समस्त भोजपुरी फिल्म जगत को खड़ा हो जाना चाहिए. नितिन की चिंता के मूल में आज भी बिहार और उसकी जबानों में साफ़ और सार्थक सिनेमा बनाने की जिद है वह भी तब जबकि इस युवा निर्देशक और निर्मात्री ने अपने हाथ भावनाओं में बहकर जलाए हैं. जब मैं ऐसा लिख रहा हूँ तब तक यह निर्माता-निर्देशक 'मिथिला मखान'जैसी फिल्म सामने ला चुके हैं जिसे राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय फिल्म का अवार्ड दिया. हम उस इलाके के लोग हैं जहाँ देवरा के किल्ली गाड़ने, छाती से भाप उड़ाने, मिसिर जी के ठंडा होने, धीरे डालs दुखाता, हमरा हउ चाहीं, मारे सटासट जैसे सैकड़ों बजबजाते गालियों (मैं इन्हें गीत नहीं कह सकता) और राधेश्याम रसिया, गुड्डू रंगीला, खुशबू उत्तम, कल्पना, इंदु सोनाली, खेसारी आदि अनेक 'बद-नामों'को लाखों में व्यूज देते हैं उनकी फिल्मों को करोडो का रेवेन्यु थमाते हैं लेकिन जैसे ही एक सार्थक सिनेमा या गीत सामने आता है उसके लिए हमारे डाटा पैक को, हमारे बंद पड़ गए दिमागों की तरह ही, बन्द कर देते हैं. देसवा की चर्चा आंधी की तरह थी लेकिन हमने उसकी लौ को फीका करने में कोई कसर ना छोड़ी. भोजपुरी के लिए लड़ने वाले समूह 'आखर'ने देसवा को लेकर काफी सजगता दिखाई. बात वही कोशिश में ईमानदारी थी, बस जगा नहीं पाए तो सरकार और अपने लोगों को. शायद यू-ट्यूब वह काम कर दे.

अभी के भोजपुरी सिनेमा के साथ कमाल यह है कि जिन्होंने भी भोजपुरी फिल्मों कीचड में उतर कर उसे साफ़ करने की कोशिश की कोशिश की उसको अपने हाथ खींच कर भागना पडा. यह काजल की कोठरी से भी काली है. दूर तक कोई सूरत नजर नहीं आती पर नितिन जैसे युवा खूँटा गाड़े बैठे हैं तो लोग इस तरह के प्रयास को स्वागत के बजाये अजूबे की तरह देख रहे हैं. हमने दरअसल अपनी एक विरासत खो दी है. यह विरासत तलत, रफ़ी, महेंद्र कपूर, मन्ना दे, अलका याग्निक, आशा, जैसों के गायकी और गंगा मैया तोहे पियरी चढैबो से लेकर देसवा और भेंट तक की है. अफ़सोस हम इस विरासत के चले जाने की कीमत नहीं समझते. हमने न केवल अपनी अस्मिता की बलि दी है बल्कि अपनी ही नजरों में इतने गिरे हुए हैं कि आईने में खुद से ही नजरे नहीं मिला सकते, खुद से मुलाकात होने का डर जो है. नितिन के साथ उनके इस मुहीम में कुछ ऐसे अभिनेता इस फिल्म में केवल माई भाषा के बेहतरी के अभियान में इस रिस्क को लेकर भी सामने खड़े हैं कि हाँ! बेशक कह लो मुझे भोजपुरी मैथिली का हीरो यह मेरी जबान है और मैं इसके लिए कुछ भी करूँगा. क्रांति प्रकाश झा ऐसे ही अभिनेता हैं जिन्होंने देसवा और फिर मिथिला मखान में काम किया है. इस अभिनेता के अलावा अजय कुमार, दीपक सिंह, आशीष विद्यार्थी जैसे कुछ नाम और हैं जिनके अभिनय और प्रतिभा के पासंग भी सौ खेसारी, निरहुआ, कलुआ नहीं हैं लेकिन दुर्भाग्य देखिए चल यही रहे हैं और इनके साथ रोज पैदा होती फूहड़ गायक-गायिकाओं की फ़ौज है जो चल ही दौड़ रहे हैं पर हमारी ही संस्कृति और जबान की कीमत पर हमारी ही बहु-बेटियों का चलना, बाहर निकलना दुश्वार किए हुए है. एक तो यह वैसे ही बंद समाज है जो बाहर निकलती लड़कियों को सौ सवालों में जकड़ता है. तिस पर 'बबुनी के लागल बा शहर के हवा'और 'मोरब्बा भईल बिया', 'पियवा से पहिले हमार'पूरी कर देते हैं. अब दिक्कत बंद समाज को लेकर भी है सौ बंधुवर हैं जो शुतुरमुर्ग की तरह सिर गोते अपनी दुनिया लाभ-हानि में भिड़े हुए मुंबई, दिल्ली में बैठे भोजपुरी सिनेमा और संस्कृति के पैरवीकार, खेवैया बने हुए हैं लेकिन एक बड़ी फिल्म (शोर्ट फिल्म्स का ऑनलाइन आना आश्चर्य नहीं क्योंकि अपने यहाँ अभी कोई स्पष्ट प्लेटफोर्म नहीं जहाँ इन फिल्मों को दिखाया जाए) यू ट्यूब पर लानी पड़ती है और निरहुआ सटल रहे, मार देब गोली केहू ना बोली जैसी हजार फ़िल्में जुबली मना लेती हैं. भीतर की गंदगी दिखती नहीं, फैलाया सांस्कृतिक आतंकवाद नहीं दिखता और दुल्हनिया पाकिस्तान से ही चाहिए. कमाल है. 
देसवा भोजपुरी सिनेमा के बेहद बुरे दौर की एक ईमानदार कोशिश है. देसवा सांस्कृतिक शून्यता से भरे ढहते समाज के चेहरे पर एक प्रश्नचिन्ह है. आप देखिए देसवा यह आपके समय के सिनेमा और गीत-संगीत का वह आइना है जो आपको खुद के भीतर झाँकने को मजबूर करता है कि क्यों यह फिल्म यू ट्यूब पर आई और क्यों इसे बड़ा पर्दा हम मुहैया नहीं करा सके. यकीन जानिए बिहार और यूपी सरकार की भी कोई इच्छा दूर-दूर तक नजर नहीं आती कि वह अपनी भाषाओं की फिल्मों के बेहतरी के लिए कुछ सार्थक पहल करें.
नितिन नीरा चंद्रा, नीतू चंद्रा, नियो बिहार और चंपारण टॉकीज टीम के हार हार कर भी टिके हौसलों के पीछे जो भाव मुझे दिखता है उसके लिए प्रहलाद अग्रवाल के शब्दों को उधार लूं तो कहूँगा 'कहीं न कहीं कुछ है जरुर, जो छूट गया है - जिससे मुखातिब होने की कोशिश बरक़रार है और तलाश क्या है, सो कुछ पता नहीं. लेकिन कुछ है, जिससे पर्दादारी कायम है - कुछ मुजस्सम ख़ूबसूरती है जो नुमायाँ होना बकाया है.'- लेकिन सलाम ऐसे हौसलों को जो इतनी ठोकरों के बाद भी यह नहीं कहता अपनी मातृभाषा में दुबारा कोई फिल्म बनाने से पहले कि 'मुड़-मुड़कर क्या देखते हो? जाय बसे परदेस सजनवा सौतन के भरमाए -खाओ कसम अब फिर कभी...'- सलाम ऐसे हौसलों को, जो कुछ भी हो हम कर गुजरेंगे के भावबोध से भरे टिके है और इनके हौसलों को पंख देने की जिम्मेदारी हमारी है कब तक चुप रहेंगे हम और कब तक कोई अपनी गाढ़ी मेहनत और सांस्कृतिक प्रयास वर्चुअल लुटता रहेगा. सुना है इसी बीच कोई 'ललका गुलाब'की 'भेंट'भी चढ़ा गया है आपकी नज़र. अब इन उड़ानों को  मजबूर न होने दीजिए. भोजपुरी के 'मिथिला मखान'का आना बाकी है और यह आएगा तभी जब आप 'देसवा'सरीखे प्रयासों से जुड़ेंगे.


इस लिंक पर देसवा देखें https://www.youtube.com/watch?v=abT4LhpxFOg                       

लौंडा डांस, रसूल मियां : एक विस्मृत गाँधीवादी

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इस लेख को https://www.thelallantop.com/bherant/a-muslim-rasool-miya-was-one-of-the-first-to-introduce-the-famous-launda-naach-dance-of-bihar-region/ इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है. यह लेख मूलतः the lallantop के लिए लिखा गया था. बिना अनुमति इस ब्लॉग के किसी भी लेख का कोई भी अंश कृपया न प्रकाशित किया जाए - मोडरेटर  

# एक थे रसूल मियां नाच वाले  

भिखारी ठाकुर के नाच का यह सौंवा साल है लेकिन भोजपुर अंचल के जिस कलाकार की हम बात कर रहे हैं उसी परंपरा में भिखारी ठाकुर से लगभग डेढ़ दशक पहले एक और नाच कलाकार रसूल मियां हुए. रसूल मियां गुलाम भारत में न केवल अपने समय की राजनीति को देख-समझ रहे थे बल्कि उसके खिलाफ अपने नाच और कविताई के मार्फ़त अपने तरीके से जनजागृति का काम भी कर रहे थे. रसूल मियां भोजपुरी के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश में गांधी जी के समय में गिने जाएंगे. लेकिन अफ़सोस उनके बारे में अभी भी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है और इस इलाके के जिन बुजुर्गों में रसूल की याद है उनके लिए रसूल नचनिए से अधिक कुछ नहीं. यह वही समाज है जिसे भिखारी ठाकुर भी नचनिया या नाच पार्टी चलाने वाले से अधिक नहीं लगते.
सुभाष चंद्र कुशवाहा
रसूल मियां की ओर समाज की नज़र प्रसिद्ध कथाकार सुभाषचंद्र कुशवाहा जी के शोधपरक लेख से गई, जिसे उन्होंने लोकरंग-1 में प्रकाशित किया है. सच कहा जाए तो यह लेख संभवतः पहला ही लेख है जिसने इस गुमनाम लोक कलाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व की ओर सबका ध्यान खींचा. इस लेख में सुभाष कुशवाहा जी ने लिखा है कि ‘भोजपुरी के शेक्सपियर नाम से चर्चित भिखारी ठाकुर, नाच या नौटंकी की जिस परंपरा के लोक कलाकार थे, उस परंपरा के पिता थे रसूल मियां.’ रसूल के बारे में अधिक कुछ उपलब्ध नहीं है. इसलिए इस संदर्भ में जो कुछ सुभाषचन्द्र कुशवाहा जी ने लिखा फिलहाल वही प्रमाणिक तथ्य है और कुछ बुजुर्गों के मौखिक किस्से. बाकी एकाध लेख इधर कुछ भोजपुरी लेखकों ने रसूल पर अपने तरीके से लिखे लेकिन वह सब सुभाषचंद्र कुशवाहा जी के लेख की ही रचनात्मक पुनर्प्रस्तुति भर ही हैं.
रसूल पर अपना शोध-पत्र लिखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाषचंद्र कुशवाहा कहते हैं ‘मेरे पिताजी नाच देखने के शौक़ीन थे. मैंने रसूल और उनके नाच के बारे में बचपन से पिताजी कथा सुनी थी कि उन्होंने तमकुही राज (उत्तर प्रदेश और बिहार का सीमाई इलाका) में रसूल का नाच देखा था. वहां नाच में रसूल ने गीत गाया था ‘इ बुढ़िया, जहर के पुड़िया, ना माने मोर बतिया रे, अपना पिया से ठाठ उड़ावे, यार से करे बतिया रे’ किसी ने रानी को यह चुगली कर दी कि रसूल ने इस गीत में आप पर तंज कसा है. फिर क्या था रानी ने रसूल को बुलवाया और उनकी पिटाई करवा दी, जिसकी वजह से रसूल के आगे के दांत टूट गए. लेकिन बाद में शोध के क्रम में मैंने पाया कि यह मामला तमकुही नहीं बल्कि हथुआ स्टेट (महाराजा ऑफ़ हथवा) दरबार से जुड़ा हुआ था. बाद में रानी ने रसूल को खेत और कुछ और इनाम देकर सम्मानित किया. लेकिन एक जरुरी बात इसमें यह भी है कि रसूल के ऊपर कोई लिखित दस्तावेज मौज़ूद न होने की वजह से मैंने जो उनके समकालीनों से सुना और जो थोड़ा बहुत मिला, उसी के आधार पर एक मौखिक इतिहास को लिखित फॉर्म में सामने लाया.
रसूल नाच परंपरा (भोजपुरी के लौंडा नाच परंपरा) के कलाकार थे पर अपने इस मामले में वह अपने समय के नाच के कलाकारों से मीलों आगे ठहरते हैं –


# पैदाईश का समय

रसूल मियां का जन्म गोपालगंज जिला के जिगना मज़ार टोला में गुलाम भारत में भिखारी ठाकुर से पैदाईश से चौदह-पंद्रह वर्ष पहले का है, इस हिसाब से उन का जन्म वर्ष 1872 के आस पास ठहरता है. उन्हें पारिवारिक विरासत में नाच-गाना-बजाना और राजनीतिक-सामाजिक विरासत में गुलामी का परिवेश मिला था . रसूल मियां के अब्बा भी कलकत्ता छावनी (मार्कुस लाइन) में बावर्ची के काम करते थे और रसूल के लिए कलकत्ते का परिवेश जाना-पहचाना भी था. रसूल एक तरफ वह विदेशी सत्ता के खिलाफ लिख रहे थे, तो दूसरी ओर राष्ट्रप्रेम की कवितायें भी रच रहे थे. भारत-पकिस्तान के बंटवारे में जहां चारों ओर धार्मिक वैमनस्य और दंगों का जहर वातावरण में घुला हुआ था, वहां भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के पैरवीकार रसूल मियां ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर एक गीत लिखा और कबीर की तरह भरे समाज गाया –

(सर पर आज़ादी रूपी गगरी चढ़ गई है/रस्ते पर संभल के चलो/एक कुएं पर दो पनिहारनें हैं/ और एक ही डोर लगी है/कोई हिंदुस्तान की ओर खींच रहा है/कोई पाकिस्तान की ओर/हिंदू पुराण लेकर दौड़ रहे हैं/मुसलमान कुरान लेकर/एक ईमान रखके दोनों आपस में मिल-जुलकर रहो/सब मिलजुलकर मंगल गाओ/भारतभूमि के दरवाजे पर/रसूल भारतवासियों को यही बात समझा रहे हैं)

# गांधी, सुराज और रसूल

गांधी का प्रभाव भारतीय जनमानस पर जादुई था. रसूल भी इसका अपवाद नहीं थे, उनकी रचना ‘छोड़ द जमींदारी’ में गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव साफ़ दिखता है. अपने इस गीत में सामंती व्यवस्था को नसीहत देते हुए उन्होंने ‘आज़ादी’ नाटक में लिखा कि –

रसूल मियां के नाच की इन गीतों को पढ़ते समय यह मत भूलिए कि रसूल किस समुदाय के थे और किस विधा को अपने कथ्य का माध्यम बनाकर रचना कर रहे थे. रसूल ने अपने नाच में गांधी की हत्या का प्रसंग गया है. जहां रसूल ने गांधी जी की हत्या के प्रसंग का गीत गाया है, वहां वह कविता के शिल्प और संवेदना के स्तर पर कई नामवर कवियों से मीलों आगे खड़े दिखते हैं. यह गीत उन्होंने कलकत्ता में अपने नाच के दौरान भरे गले से गाया था –

आज़ादी की लड़ाई में भोजपुरी अंचल की भूमिका बहुत सक्रिय रही है. इतिहास पुनर्लेखन की नई प्रविधियों ने कई अज्ञात रचनाकारों और आंदोलन कर्मियों की खोजबीन की है, जिससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की एक दूसरी सुखद तस्वीर सामने आई है. रसूल मियां की रचनाएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. आज बेशक मंदिर-मस्जिद और भारत माता के नाम पर हिन्दुओं-मुसलमानों में सिर फुटौवल हो रहा है लेकिन 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी के अवसर और बंटवारे की आग में झुलसते हिन्दू-मुसलमानों के लिए रसूल ने एकता के साथ रहने और सुराज में जुड़कर रहने का सपना देखा और गाया –


# नज़ीर अकबराबादी की परंपरा के रसूल

रसूल अपने नाच से पहले मंगलाचरण के रूप में ‘सरस्वती वंदना’ ‘जो दिल से तेरा गुण गावे, भाव सागर के पार उ पावे’ भी गाते थे. उन्होंने होली, मुहर्रम त्योहारों पर भी लोक प्रसिद्ध कविताएं लिखीं. इस लिहाज से देखें तो यह नज़ीर अकबराबादी की परंपरा में जुड़ते हैं. इसके अलावा उन्होंने जहां ‘ब्रह्मा के मोहलू, विष्णु के मोहलू शिव जी के भंगिया पियवलू हो, तू त पांचों रनिया’ लिखा, तो वहीं यह भी लिखा-

रसूल हिन्दुओं के यहां शादी के अवसर पर जनवासे में एक गीत गाते थे –

इन गीतों को देखें तो आश्चर्य होता है कि जनकवि और लोककलाकारों ने समाज को जोड़ने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई है और यह पढ़ते समय मत भूलिए वह भोजपुरिया नाच वाला था, जो बिना अतिरिक्त बकैती के हमारी साझी विरासत को सामने रख रहा था. एक निवेदन भी है कि भूले से भी यह न कह बैठिएगा कि यह उसका पेशा था. वरना आप पर तरस खाने तक के भाव हमारे हिस्से न होगा.

# रसूल मियां, फिल्में और चित्रगुप्त

रसूल के बारे में जो तथ्य सुभाषचंद्र कुशवाहा ने जुटाए हैं, उसके अनुसार रसूल के ही पड़ोस में ही बंबई फिल्म जगत के भोजपुरी और हिंदी फिल्मों के मशहूर संगीतकार ‘चित्रगुप्त’ का गाँव ‘सँवरेज़ी’ था. वे रसूल के नाटकों की प्रसिद्ध कथाओं को बंबई लेकर गए, जहाँ उस पर फिल्में बनीं, इनमें प्रमुख है –‘चंदा-कुदरत’पर ‘लैला-मजनू(1976)’,‘वफादार हैवान का बच्चा उर्फ़ सेठ-सेठानी पर इंसानियत(1955) और ‘गंगा नहान’ पर भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो(1961)’ बनी. इस फिल्म के संगीतकार चित्रगुप्त थे. पर इन फिल्मों से रसूल को कोई फायदा नहीं हुआ. रसूल अंसारी के प्राप्त प्रमुख नाटकों में ‘गंगा नहान’, ‘आज़ादी’, ‘वफादार हैवान का बच्चा उर्फ़ सेठ सेठानी’, ‘सती बसंती-सूरदास’, ‘गरीब की दुनिया साढ़े बावन लाख’, ‘चंदा कुदरत’, ‘बुढ़वा-बुढ़िया’, ‘शांती’, ‘भाई बिरोध’, ‘धोबिया-धोबिन’ आदि प्रमुख हैं. रसूल अंसारी की मृत्यु 1952 में किसी माह के सोमवार को हुई थी. अंदाजा तो इस बाद का भी लगाया जाता है कि रसूल के नाटकों के शीर्षक भाई विरोध, गंगा-नहान और धोबिया-धोबिन ज्यों-के-त्यों भिखारी ठाकुर के नाटकों के भी शीर्षक हैं लेकिन कथ्य के उपलब्ध न होने की वजह से यह साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता कि दोनों के नाटकों के केवल शीर्षक ही मेल खाते हैं या कथ्य भी. जो भी हो निष्कर्ष मजेदार आएंगे. बस एक ही नाटक के शीर्षक का फेर हैं रसूल का ‘गंगा-नहान’, भिखारी के यहाँ गंगा-स्नान है. वैसे भी नाच पार्टियों का कथ्य कोई स्थिर कथ्य नहीं होता. केवल नाटकों के शीर्षक के आधार पर रसूल और भिखारी की तुलना उचित नहीं है.
यह प्रामाणिक सत्य है कि दोनों ही सट्टा लिखाकर नाच दिखाते थे. प्रसिद्ध नचनिया(नर्त्तक) के नाम पर रसूल के पास राजकुमार थे तो भिखारी ठाकुर के पास रामचंद्र। दोनों में एक बड़ी समानता अभिनय क्षमता की भी थी।दोनों ही अपने नाटकों में मुख्य भूमिका निभाते थे. भिखारी ठाकुर जहाँ ‘बिदेसिया’ में ‘बटोही’, ‘गबरघिचोर’ में ‘पञ्च’, ‘कलियुग प्रेम’ में ‘नशाखोर पति’, ‘राधेश्याम बहार’ में ‘बूढ़ी सखी’ तथा ‘बेटी वियोग’ में ‘पंडित’ की भूमिकाक निभाते थे, वहीं रसूल ‘आज़ादी’ में ‘जमींदार’, ‘गंगा नहान’ में बुढ़िया, ‘चंदा कुदरत’ में ‘शराबी’, ‘शांति’ में ‘मुनीम’, सेठ-सेठानी’ में ‘मुनीम’ धोबिया-धोबिन’ में ‘धोबी’ की भूमिका निभाते थे – सन्दर्भ : लोकरंग-1
ऐसी जनश्रुति है कि रसूल के गीतों को सुनकर अंग्रेजी सत्ता के लिए कार्यरत बिहारी सिपाहियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी. इस वजह से रसूल मियाँ की गिरफ़्तारी भी हुई थी. रसूल मियाँ की रचनाधर्मिता के कई आयाम हैं लेकिन मुख्य रूप से दो अधिक महत्व के हैं. पहला, जब वह अपने नाच, कलाकर्म से स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच उभर के सामने आते हैं, और दूसरा, जब वह गुलाम भारत में सामंती व्यवस्था से टकराते हैं. भोजपुरी अंचल में गंगा-जमुनी संस्कृति के कई लोग हुए पर इस संस्कृति पर सरे-बाजार नाच कर कहने वाला ऐसा कलाकार दूजा नहीं हुआ. अफ़सोस यह है कि उनको कोई महेश्वराचार्य, राहुल सांकृत्यायन, जगदीशचन्द्र माथुर नहीं मिले अन्यथा लौंडा नाच परंपरा के इस अद्भुत कलाकार की ऐतिहासिक उपस्थिति बहुत पहले हो गई होती. सुभाषचंद्र कुशवाहा ने रसूल के दो और गीतों के मिलने का दावा किया है. यद्यपि लोकसंस्कृति का इतिहास इतना क्रूर होता है कि उसका दस्तावेजी रक्षण बेहद कम होने की वजह से उनके कई धरोहर मौखिक परंपरा में गुजरते हुए समाप्त ही हो जाते हैं.
रसूल मियाँ के अब तक जितने भी प्राप्त गीत हैं, वह नाच के मंच पर सब खेले गए गीत हैं उन्होंने साहित्य सर्जना के लिए गीत नहीं लिखे थे बल्कि अपने लौंडा नाच पार्टी के कथाओं को आगे बढाने के लिए जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए लिखा. दुर्भाग्य है कि उनको नचनिए या नाच पार्टी चलाने वाले के तौर पर याद रखा गया. रसूल के नाच और गीतों में समाज के सवाल तो हैं पर उनकी राजनीतिक समझ बेहद बारीक है और इस मामले में में वह भिखारी ठाकुर से बीस ठहरते हैं पर यहाँ सबकी किस्मत में भिखारी ठाकुर होना कहाँ लिखा होता है.

(नोट : इस लेख के सभी तथ्य सुभाषचंद्र कुशवाहा के शोधलेख ‘क्यों गुमनाम रहे लोक कलाकार रसूल’, लोकरंग – 1 से लिए गए हैं)

जिसकी जुबां उर्दू की तरह थी दिल हिंदुस्तान की तरह - टॉम आल्टर सन्दर्भ : किताब / कमलेश के मिश्र

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[यह पोस्ट द लल्लनटॉप वेब पोर्टल पर पहले ही प्रकाशित है. यहाँ उसी लेख का पुनर्प्रस्तुतिकरण है. इसके किसी भी हिस्से (आंशिक या पूर्ण) का मोडरेटर की सहमति के बिना प्रकाशित न करे - सादर]

 सत्यजीत रे की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी'का एक दृश्य है जिसमें एक अंग्रेज सिपाही वेस्टन (टॉम आल्टर) अपने अधिकारी जेम्स आउटरेम (रिचर्ड एटनबरो) के सामने एक शे'र पढता है - 'सदमा न पहुंचे कोई मेरे जिस्म-ए-ज़ाद पर/आहिस्ता फूल फेंको मेरे मज़ार पर/हर चाँद ख़ाक में था/मगर ता-फलक गया/धोखा है आसमान का/मेरे गुबार पर'. इस केवल एक दृश्य ने टॉम आल्टर के प्रति वह तमाम किरदारी नफरत ख़त्म कर दी, जो राहुल रॉय, अनु अग्रवाल वाले 'आशिकी'में उनके द्वारा निभाए खडूस वार्डन से पैदा हुई थी. टॉम आल्टर ने केवल अँगरेज़ किरदार ही नहीं निभाए बल्कि उन्होंने मौलाना, गाँधी, ज़फर, ग़ालिब, साहिर, टैगोर से लेकर टीवी के दूरदर्शन के दिनों के लोकप्रिय सीरियल 'जूनून'में केशव कलसी का किरदार भी बेहद खूबसूरती से निभाया है. राज्यसभा टीवी के 'संविधान'कार्यक्रम में उनके द्वारा निभाए गए मौलाना के किरदार को कौन भूल सकता है. वह 'गोरा'खालिस हिन्दुस्तानी था. हिंदुस्तान के बंटवारे के साथ उसका परिवार भी बंट गया, दादा-दादी पाकिस्तान चले गए और उनका परिवार हिंदुस्तान में रह गया. मसूरी के इस 'बुरांश'फूल की जिंदगी रोचक किताब सरीखी है.    

शुरूआती दिन, परिवार, राजपुर और क्रिकेट  
1916 में अमेरिका के ओहायो से मद्रास आया एक मिशनरी परिवार बरास्ते इलाहबाद, जबलपुर, सहारनपुर राजपुर (मसूरी के नजदीक) आकर बस गए. यहीं 22 जून 1950 में उनकी पैदाईश हुई. उनका दाखिला मसूरी के ही प्रतिष्ठित वुडस्टॉक स्कूल में हुआ और बाद में टॉम आल्टर कुछ समय के लिए येल यूनिवर्सिटी, अमेरिका भी गए पर जल्दी ही लौट कर वापिस आ गये और थोड़े समय स्कूल शिक्षण और पत्रकारिता भी की. क्रिकेट के दीवानों को शायद याद हो वह टॉम आल्टर ही थे, जिन्होंने क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर का पहला टीवी इंटरव्यू लिया था. टॉम आल्टर खुद भी बेहतर क्रिकेट खिलाडी थे और टेस्ट क्रिकेट के शौकिन भी.   

https://www.youtube.com/watch?v=oez4TSdZvJI   सचिन और टॉम अल्टर का लिंक

राजेश खन्ना और आराधना ने बनाया अभिनेता टॉम आल्टर  
राजेश खन्ना की 'आराधना'वह फिल्म थी, जिसने हरियाणा के छोटे से कस्बे जगाधरी के एक स्कूल सेंट टॉमस के स्पोर्ट्स टीचर को अभिनय के लिए पहले एफटीआई, पुणे और फिर मुंबई ले आई. उनके अभिनय गुरु रोशन तनेजा थे. बाद में अपने पुणे फिल्म संस्थान वाले साथियों नसीरुद्दी शाह और बेंजामिन गिलानी के साथ मिलकर उन्होंने 'मोटले'नामक थियेटर ग्रुप भी बनाया. शायद यही वजह थी कि थियेटर की ट्रेनिंग ने उन्हें किरदारों में टाइपकास्ट होने से बचाया और इसी कारण जो विशिष्टता उनके हिस्से आई वह बॉब क्रिस्टो को नसीब नहीं हुई. हालाँकि दोनों की तुलना ठीक नहीं. बहरहाल, टॉम साहब की रंगमंचीय शिक्षा ने उन्हें बुनियादी तौर पर मजबूत अभिनेता बनाया और रामायण वाले रामानंद सागर की फिल्म 'चरस'(1975) से उनके फ़िल्मी करियर का आरम्भ हुआ जो लगभग 300 से कुछ अधिक फिल्मों तक जारी रहा. इसमें हॉलीवुड की 'वन नाईट विद द किंग'भी शामिल है. दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में मौलाना नाटक, जिसमें वह एकल अभिनय किया करते थे, के दौरान स्टेज की बत्तियाँ तकरीबन 8-10 मिनट के लिए गुल हो गयीं मंच पर मौलाना बने टॉम साहब ने अपना अभिनय जारी रखा, उनकी दिल-ओ-दिमाग में समाती आवाज़ मंच से अँधेरे में भी गूंजती रही और इम्प्रोवाइजेशन ने नाटक के कथ्य के प्रवाह को कम न होने दिया. खचाखच भरे सभागार का एक दर्शक टस से मस न हुआ संभवत: यह रंगमंचीय इतिहास की भी एक अनूठी घटना थी. यह एक अभिनेता टॉम आल्टर की शक्ति थी. बाद के दिनों में, आम जनता को अलग-अलग साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनके उर्दू और हिन्दुस्तानी की ताकत का भी अंदाजा हुआ.
  
राज्यसभा टीवी के एक कार्यक्रम में साक्षात्कार देते हुए टॉम आल्टर ने कहा "मैं राजेश खन्ना का भक्त हू और नसीरुद्दीन शाह की एक्टिंग का दीवाना". राजेश खन्ना की फिल्म आराधना से प्रभावित होकर ही वह अभिनय में आए थे.

मशीनें नहीं किताबें
जो टॉम आल्टर हमेशा कहा करते हैं कि लोगों के पास बतकही खत्म होती जा रही है, वह सब मशीनों के गुलाम बनते जा रहे हैं. वह मशीनों के खिलाफ नहीं थे, बल्कि उनकी चिंता के केंद्र में आदमी के जीवन में मशीनों के बेतरह समाते जाने और उस वजह से आदमी का अपने आसपास से कटते जाने की पीड़ा ही थी. इसलिए टॉम आल्टर के कभी कोई मोबाइल फ़ोन नहीं रखा अलबत्ता कोई न कोई किताब उनके हाथों में जरुर रहती थी. चाहे वह यात्रा में हों, शूटिंग में हो या आराम में किताबें हमेशा उनकी साथी रही. टॉम आल्टर के मसूरी के दिन ऐसे ही होते थे, चाय कि गुमटियों में जमे लोगों के साथ उन्हीं की तरह समा जाना और कुछ अपनी कहना और कुछ उनकी सुनना उनके जीवन की आपकमाई थी. वर्ष 2009 भारत सरकार ने उनको अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक 'पद्मश्री'से सम्मानित किया था.    
     
टॉम आल्टर की अंतिम शॉर्ट फिल्म 'किताब'
टॉम आल्टर की अभिनीत शॉर्ट फिल्म 'किताब'केवल टॉम साहब की अंतिम शॉर्ट फिल्म भर नहीं है बल्कि अनजाने ही यह टॉम आल्टर के कहन का सिनेमाई विस्तार है. इसमें टॉम आल्टर एक बूढ़े लाईब्रेरियन की भूमिका में जो किताबों से पाठकों की होती जा रही दूरी और जीवन में गैजेट्स की घुसपैठ का मूक दर्शक है और इस बदलते मौसम की भीतरी पीड़ा उस लाईब्रेरियन में हैं. वह लाईब्रेरियन जिसने एक दौर वह भी देखा है जब लाइब्रेरी गुलज़ार रहा करती थी और एक दौर वह भी है जहाँ बंद अलमारी के शीशों से कैद काट रही हैं और उसका पाठक उनसे दूर अपने एक नए माध्यमों के जाल में व्यस्त होता जा रहा है. लेकिन किताब गैजेट्स की खिलाफत के बारे में नहीं है. इसकी बड़ी संभावना बन सकती थी. वह गुलज़ार की कविता 'किताबें झांकती है बंद अलमारी के शीशों से/बड़ी हसरत से तकती हैं/महीनों अब इनसे मुलाक़ात नहीं होती'सरीखी परदे पर उतरती जाती है और प्रभाव में ओ हेनरी की कहानियों सरीखा असर डालती है. 'किताब'को कलकता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, बैंकाक के 9फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट शॉर्ट फिल्म का पुरस्कार ले चुकी है. इसके अलावा कमाल बात यह है कि टॉम आल्टर को इस फिल्म के लिए फील द रील फिल्म फेस्टिवल ब्रिटेन में सेकेण्ड बेस्ट एक्टर चुना गया है. अभी यह लिस्ट लंबी है. किताब लोगों के बीच जा रही है रोम, लॉस एंजिल्स से हैदराबाद तक इसकी ऑफिसियल इंट्री हो चुकी है. टॉम साहब 'किताब'के साथ आते हैं.  

https://www.youtube.com/watch?v=HcFaA9hRjOcकिताब शार्ट फिल्म टीजर लिंक

किताब (शार्ट फिल्म) के निर्देशक कमलेश के. मिश्रा से बातचीत
प्रश्न : आप मीडिया में सक्रिय थे, फिर अचानक किताब बनाम गैजेट्स जैसे मुद्दे पर अचानक फिल्म बनाने का आईडिया कहाँ से आया? वह भी टॉम साहब के साथ?
कमलेश :काफी समय तक अखबार, उसके बाद टेलीविजन और फिर कुछ फिल्मों के लिए काम करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि जो कुछ मेरे अपने आसपास के दैनिक जीवन की महसूसी और भोगी हुई कहानियाँ है, उसको दुनिया के सामने लाने के लिए सिनेमा वाजिब माध्यम है और इसकी कुलबुलाहट पिछले तीन-चार सालों से ज्यादा ही बढ़ गई थी. मैंने एक फीचर फिल्म पर काम करना शुरू किया लेकिन इसी बीच मुझे एक लाइब्रेरी में शूट करने का मौका मिला. उस लाइब्रेरी में मैंने बरबस ही किताबों को उलटना-पलटना शुरू किया तो मैंने पाया कि जो भी किताब मैं उठाता उसी पर धूल जमी हुई थी. यही हाल अधिकांश वहाँ की कुर्सियों और टेबल का भी थी. जबकि वह एक इंस्टिट्यूट था और वहाँ चार-पाँच सौ बच्चे पढ़ रहे थे. मुझे लगा कि लाइब्रेरी की उन किताबों से उन बच्चों का कोई वास्ता नहीं था. मुझे उन किताबों की कराह उनकी पीड़ा महसूस होने लगी. मुझे लगा कि यह केवल किसी एक लाइब्रेरी या समाज की समस्या नहीं बल्कि ग्लोबल इश्यु बनता जा रहा है. फिर इस आईडिया को अपने कुछ मित्रों से शेयर किया और फिल्म बनाने की बात की फिर किताब आज सामने है. जहाँ तक सब्जेक्ट की बात है यह समस्या केवल किताबों के नहीं पढ़े जाने की ही नहीं है यह बस गैजेट्स के प्रभाव में उनसे दूर होते जाने की बात है. चूँकि इन स्थितियों से हम सब जुड़े हैं तो विषय की संवेदना को उभारना मेरे लिए आसान हो गया.

इस शार्ट फिल्म में कोई संवाद नहीं हैं केवल टॉम आल्टर साहब का अभिनय और पुस्तकालय का दृश्य. आपको एक पल को यह नहीं लगा कि आज जबकि शोर ही ध्यानकर्षण का बड़ा जरिया बना हुआ है तब ऐसा प्रयोग ख़राब निर्णय भी हो सकता है?
कमलेश : शोर के समय में खामोश फिल्म बनाना चुनौती तो थी पर मैंने सोचा नहीं था कि बिना डायलाग वाली फिल्म बनाऊंगा. मेरी फिल्म में तीन ही किरदार हैं एक लाइब्रेरियन, दूसरा पाठक और तीसरा किताबें. लाईब्रेरी का माहौल शांत होता है वहाँ मूक संवाद किताबों से होता है तो मेरी फिल्मों के ये तीनों किरदार संवाद कर रहे हैं लेकिन विचार विनिमय खामोशी से हो रहा है. मैंने उसी माहौल को अपने रचना का आधार बना लिया और उसी के अनुसार फिल्म बनती गई. मैंने ऐसा सोच के नहीं किया बल्कि जैसे मैंने कैमरे से इन तीनों किरदारों से मिलना शुरू किया, मौखिक संवाद की जरुरत ख़त्म होती चली गई. मेरे पास टॉम साहब जैसा दक्ष अभिनेता थे, अन्य कुशल कलाकार थे, मुझे यकीं था कि ये केवल अपनी भंगिमाओं से, बिना बोले ही इस कथा को दर्शकों तक संप्रेषित कर देंगे. इसका बड़ा फायदा हुआ कि एक ग्लोबल इश्यू भाषा की सीमाओं से बाहर निकल गई. अब यह सबकी हो गई और ग्लोबली मुझे इसका फायदा भी मिल रहा है.

टॉम आल्टर से किस तरह मिलना हुआ और उनकी इंट्री इस किरदार में कैसे हुई?
कमलेश : मुंबई मेंसुलभ संस्थान के लिए एक म्यूजिकल फीचर की एंकरिंग मैंने टॉम साहब से करवाई थी. उनसे मेरी वह पहली मुलाकात थी. मैंने जब टॉम साहब का संपर्क सूत्र खोजा तो पता चला कि टॉम साहब सिर्फ ई-मेल पर मिलेंगे अन्यथा लैंडलाइन पर उनसे बातचीत उनकी उपलब्धता के अनुसार हो सकती है. रात को अक्सर वह जवाब देते थे सो मैंने मेल किया और उनका जवाब भी आ गया. वह बिना मोबाइल के ही रहते थे. तो उनसे जब भी आगे मुलाकात हुई मैं देखता था कि वह हमेशा एक किताब हाथ में लिए रहते थे. कमाल तो यह कि मैंने देखा कि शूट के बीच में समय मिलने पर वह चुपचाप एक तरफ अपनी किताब में लौट जाते थे तो किताब के लाइब्रेरियन की इमेज में टॉम साहब ही थे, क्योंकि जब मैंने उनको यह कॉन्सेप्ट सुनाया था उसी समय चहककर उन्होंने कहा था कि कमलेश यह फिल्म जरुर बननी चाहिए. टॉम साहब केवल इस प्रोजेक्ट से जुड़े ही नहीं बल्कि मसूरी में सारी सुविधाएँ भी मुहैया करवाईं. इसके बनने में टॉम साहब का बड़ा योगदान है और मुझे अफ़सोस है कि मैं इस फिल्म को टॉम साहब को दिखा नहीं पाया. यह मेरा दुर्भाग्य ही रहा कि यह अभी पोस्ट प्रोडक्शन में ही थी कि टॉम साहब हम सबको छोड़ कर चले गए. शूट के दौरान यह तय हुआ था कि इस फिल्म का एक स्पेशल शो टॉम साहब के होमटाउन मसूरी में किया जाएगा. टॉम साहब के जीते-जी तो यह न हो सका लेकिन हम जल्दी ही एक शो मसूरी में करने जा रहे है. क्योंकि अगर यह फिल्म इस तरह बन पायी है तो उसकी वजह टॉम साहब ही रहे हैं. 

किताब तो अब हर तरफ जा रही है. अलग-अलग फिल्म फेस्टिवल्स में इसकी लगातार उपस्थिति बढती जा रही है. कोई ऐसा वाकया भी हुआ है जो इसके ग्लोबल प्रभाव को स्थापित कर सके.
कमलेश : बैंकॉक में नाइन फिल्म फेस्ट 31 मई को जब किताब का पहला शो हुआ तो क्लोजिंग डे के दिन काफी महिलाएँ अपने बच्चों के साथ आयीं हुई थी जिन्होंने फेस्टिवल मैनेजर से यह रिक्वेस्ट की थी कि कोई इंडियन फिल्म आयीं है जो बच्चों को गैजेट्स की जगह किताबों के बारे में बता रही रही तो उस फेस्टिवल की क्लोजिंग फिल्म के तौर पर किताब को फिर से दिखाया गया और ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था जिसमें अधिकांश माएँ अपने बच्चों के साथ आई हुई थी. मुझे ख़ुशी हुई कि किताब का कम से कम यह इम्पैक्ट तो पड़ रहा है.

प्रश्न : टॉम साहब के साथ की कोई याद जिसे आप शेयर करना चाहें.
कमलेश :टॉम साहब के साथ मसूरी में बिताया समय ही मेरी उपलब्धि है. मुझे वहीं पहली बार पता चला कि वह व्यक्ति जो पद्मश्री अवार्डी हैं, केवल देसी ही नहीं इंटरनेशनल फ़िल्में की हैं. उनके लिए मसूरी का हर घर अपना था. कोई बड़े होने का गुमान नहीं किसी चाय की टपरी पर बैठ जाना. लोग उनके पास यूँ ही आ जाते थे, फिल्म की बैटन के लिए नहीं बल्कि अपने आसपास की बातों के लिए और कमाल यह कि वह किसी मदद मांगने के इरादे से नहीं घर के एक सदस्य में दुःख सुख बतियाने के लिए आते थे. वही पता चला कि रस्किन बांड और टॉम साहब मसूरी की उपलब्धियाँ हैं. उन्होंने मनुष्य होने की मिठास के मायने जी कर सिखा दिया. केवल बात नहीं बल्कि वह क्षणों में जीते भी थे. मुकम्मल मनुष्य जो सर से पाँव तक केवल मुकम्मल इंसानियत से भरा हुआ था. उनसे और क्या सीखते.   
...
टॉम आल्टर को स्टेज फोर का स्किन कैंसर था और बीते वर्ष (2017) में सितम्बर के 29वें दिन इस बेमिसाल एक्टर ने अपने किरदार से एक्जिट ले ली. टॉम साहब ता-उम्र हमारी पीढ़ी को किताबों से प्यार करना सिखाते रहे, आसपास से जुड़ना सिखाते रहे, परदे पर उनकी सक्रिय उपस्थिति हमेशा के लिए 'किताब'में दर्ज हो गई. टॉम साहब का एक वाईस ओवर 'किताब'में है, जो इसके अंतिम हिस्से में उभरता है, वह उनके जीवन दर्शन का आईना भी हैं - 'तुम्हारे साथ रहना चाहती हैं किताबें/बात करना चाहती हैं/ किताबें बिल्कुल मेरी तरह हैं/अल्फाज़ से भरपूर मगर खामोश'. साहिर ने पं. नेहरु की मौत पर लिखा था, मैं उन पंक्तियों को टॉम साहब के लिए उधार लेता हूँ - 'जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती/जिस्म के मर जाने से इंसान नहीं मरा करते'.
आज पद्मश्री टॉम आल्टर साहब का बर्थडे हैं. हैप्पी बर्थडे टॉम साहब. आपकी जुबान उर्दू की तरह थी और शख्सियत पूरे हिंदुस्तान के माफिक.                 
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गायकी में जल्दबाजी नहीं चलती - भरत शर्मा 'व्यास'

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भोजपुरी में निर्गुण गायकी की लंबी परंपरा रही है और भरत शर्मा 'व्यास'लम्बे समय से भोजपुरी निर्गुण गायकी के सिरमौर बने हुए हैं. जिन दिनों भोजपुरी कैसेट्स के वसंत में सब नए-पुराने गायक रंगीला-रसिया हुए जा रहे थे, उन दिनों भी भरत शर्मा ने अपनी गायकी से समझौता नहीं किया. उन्होंने अपनी गायकी को एक स्तर दिया और भोजपुरी लोकसंस्कृति को गुलजार किया. जो आज तक बदस्तूर जारी है. भरत शर्मा के प्रशंसक उनको प्यार से व्यास जी कहकर बुलाते है. पत्रकार निराला कहते हैं - 'भरत शर्मा उस मिथ को तोड़ते हैं जिसमें यह मान लिया जाता है कि भोजपुरी का मतलब केवल भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र ही है. इसमें दो राय नहीं कि यह दोनो लीजेंड्स हैं पर व्यास जी ने भोजपुरी के तुलसीदास रामजियावन दास बावला और कबीर को गाने वाले राम कैलाश यादव की परंपरा में अपनी मजबूत जगह बनायी है. उनकी विशिष्टता इसलिए भी है कि उन्होंने फार्मूलाबाजी गायकी के पास जाना गवारा नहीं किया और फिर भी लोक में सबसे अधिक आदरणीय बने रहे. वह पीढ़ियों की थाती है.' सच में, भरत शर्मा भोजपुरी गायकी में उस धारणा के बरक्स आइना लेकर खड़े हैं, जो यह मानती है कि भोजपुरी में एक ख़ास किस्म के गाने या गायकी ही चलती है और जिसमें द्विअर्थी या कभी-कभी एकार्थी शब्दों का चित्रहार बनाकर एक ख़ास ऑडिएंस को परोस दिया जाता है. भरत शर्मा के लिए ऑडिएंस की दीवार नहीं है, वह समान रूप से भोजपुरी में चौक से लेकर आँगन और ड्राईंगरूम तक में समान रूप से सुने जाने वाले गायको में से हैं. यही पर उन तमाम कुतर्कों की हवा फुस्स हो जाती है जो अपने तात्कालिक हितों के लिए गायकों और श्रोताओं का वर्गीय चरित्र बनाता है. पत्रकार उदीप्त निधि मुस्कुराकर कहते हैं - 'ऐसा इसलिए है कि व्यास जी भोजपुरी के 'आह-उह-आउच'जैसे हिंसक, आग लगाऊ गीतों के सामने सावन की फुहार सरीखे है.'भोजपुरी में ऐसे गायकों की एक लंबी रवायत रही है, कुछ गुमनाम रह गए तो कुछ बराए-मेहरबानी यू-ट्यूब के फिर से सामने आए हैं. भरत शर्मा आज भी सक्रिय हैं और साठ से उपर की उम्र में भी देश-विदेश में लगातार अपनी प्रस्तुतियाँ दे रहे हैं. पिछले वर्ष के 'आखर'के भोजपुरिया स्वाभिमान सम्मलेन 8 पंजवार, सिवान में भोजपुरी के जिन बारह लीजेंड्स को लेकर एक कैलेण्डर भोजपुरिया स्वाभिमान कैलेण्डर 2018 डीजी गुप्तेश्वर पाण्डेय, विधान पार्षद डॉ. वीरेन्द्र यादव और रिटायर्ड आईपीएस, कवि ध्रुव गुप्त के हाथों जारी हुआ. इस वर्ष के इस कैलेण्डर में एकमात्र जीवित लीजेंड के तौर पर भरत शर्मा 'व्यास'की को रखा गया है. इसके पहले यह गौरव पद्मभूषण शारदा सिन्हा जी को मिला था. यह सही मायनों में भरत शर्मा के गायकी का सम्मान ही है कि उनकी जीवनी भी लिखी जा रही है. भोजपुरी के प्रवसन और श्रम संस्कृति के अध्येता और नेहरु मेमोरियल एवं उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो डॉ. धनंजय सिंह कहते हैं - भरत शर्मा की गायकी का दायरा विस्तृत है उसमें श्रृंगार और अन्य रसों के गीत तो है ही लेकिन मूल स्वर निर्गुण का ही है और शायद यही वजह है कि भोजपुरी के तमाम पुरुष गायकों में उनका सम्मान अधिक है'. जब जियो के फ्री वाले डाटा नहीं बंटे थे तब भी व्यास जी के गाये गीत 'गोरिया चाँद केअंजोरिया नियन गोर बाडू हो'और 'जबसे गवनवा के दिनवा धरायिल'भोजपुरी लोकजीवन में लोकप्रियता में  आसमानी हो गए थे. उनकी जीवनी लिख रहे पटना निवासी अंग्रेजी के युवा पत्रकार उदीप्त निधि ने इस आर्टिकल को तैयार करवाने में बड़ी भूमिका निभाई है. व्यास जी का साक्षात्कार उदीप्त निधि के सौजन्य से ही संभव हो सका है. पेश है भरत शर्मा 'व्यास'जी से हुई बातचीत के कुछ अंश -     
(1)व्यास जी आपका गायकी में आना किस तरह हुआ और शुरुआती दौर के बारे में कुछ बताइए.
भिखारी ठाकुर जी की मृत्यु 10जुलाई 1971को हुई थीऔर वह दिन सावन की अंतिम सोमवार था.मैं पुराने शाहाबाद के बक्सर जिले के सिमहरी प्रखंड के गांव नगपुरा का रहने वाला हूं.  उस दिन मेरे गांव में एक कार्यक्रम था जिसमें बहुत से कलाकार बाहर से आए थे. मैं भी उस प्रोग्राम को देखने गया था. वहाँ मुझे भी गाने का मौका मिला औरजब मेरा गाना खत्म हुआ तो मुझे बहुत वाह-वाही मिली. मेरा मनोबल बढ़ा. मेरी गायकी में रुचि तो थी ही सो इससे बेहतर मौका नहीं मिल सकता था.उन दिनों कलकत्ते का क्रेज था वहाँ इधर के कुछ गायक सक्रिय थे. मैंने भी कलकत्ता जाने का तय कर लिया.माँ से 16रूपये लिए और बक्सर से हावड़ा पहुँच गया.
कलकत्ते में मेरी मुलाकात कुछ व्यास लोगों से हुई
, जिनके सानिध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला. वहाँ बहुत सालों तक रामायण गाया. फिर जब ऑडियो का जमाना आया तब मैंने अपने गाने रिकॉर्ड भी करवाने शुरु कर दिए. लोकगीत और भजन गायन से मैंने अपने कैरियर की शुरुआत की थी. साल 1971में गांव के एक कार्यक्रम से अपनी कैरियर की शुरूआत की थी.  जैसाकि मैंने कहा फिर मैं कलकत्ता गया, जहाँ बहुत कुछ सीखने को मिला.  1989में सबसे पहली एल्बम 'दाग कहां से पड़ी'और 'गवनवा काहे ले अईलअमेरी पहली एल्बम थी जो मैंने आर-सिरीज़ में रिकॉर्ड किया. उसके बाद टी-सीरिज से भी बहुत सारे एल्बम रिकॉर्ड किए.
व्यास जी आप भोजपुरी में लगभग साढ़े चार दशक से गायन के क्षेत्र में काम कर रहे हैं.शायद ही इतना लम्बा अनुभव किसी और के पास हो.आपके समय और अब के समय में भोजपुरी में आप क्या फर्क देखते हैं?
मैंने भजन, लोकगीत, निर्गुण और बहुत तरह के गीत गाए हैं और अब भी गा रहा हूं. पहले के लगभग सभी गायक ऐसे ही थे.  लेकिन अब भोजपुरी में भक्ति गीत और निर्गुण भक्ति गीत नहीं के बराबर और अश्लील गीत ज्यादा गाए जा रहे हैं. आज भोजपुरी गायकों में ऐसे गीतकार, गायक और कैसेट कंपनियों का दबदबा हो गया है जो अपने स्वार्थ के लिए मातृभाषा, धर्म, संस्कृति और ईमान, सब बेच चुके हैं. मुझे बहुत दु:ख होता है,जब कोई मेरी भोजपुरी को अश्लीलता की भाषा कहता है. एक अजीब और लिजलिजी किस्म की जल्दबाजी नए गायकों में है और वह गायकी से लेकर परदे तक है. हालाँकि उनमें कईयों की आवाज़ अच्छी है पर उनकी जल्दबाजी वाली फितरत ने भोजपुरी गायकी के लिए अच्छी स्थिति पैदा नहीं की है. सब एक ही ढर्रे पर हैं. यह स्थायी नहीं रह सकेगी. कालजीवी गायकी त्याग, गंभीरता  और साधना मांगती है. तभी आप अपनी संस्कृति का सही प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. फ़िलहाल कोई सूरत नजर नहीं आती. मैंने मुन्ना सिंह, नथुनी सिंह को सुना है, पांडे नगीना और गायत्री ठाकुर जी जैसे लोगों के साथ काम किया है.  भिखारी ठाकुर जी के लय को भी फॉलो करने की कोशिश की और आज जब इन नए कलाकारों को देखता हूं तो दु:ख होता है. इन्होंने भोजपुरी का भाषा के तौर पर छीछालेदर कर दिया है.आप अबकी गायन को पहले से जोड़ ही नहीं सकते.
निर्गुण गायकी ही आपके गाने का आधार क्यों बना?
आपको बता दूं कि निर्गुण तो मैंने तब गाना शुरु किया, जब मुझे गाते हुए बीस साल हो चुके थे. पहले आप निर्गुण का अर्थ समझिए. जैसा कि भगवान कृष्ण ने बताया है कि मनुष्य के तीन गुण होते हैं, सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण. हर इंसान इन्हीं तीन गुणों के अनुसार अपना जीवन जीता है.
निर्गुण का अर्थ होता है आत्मा
, जिसके ऊपर किसी भी गुण का कोई असर नहीं होता. जो अब परमात्मा के अलावा कुछ नहीं जानता और सगुण जो है वह ठीक निर्गुण के उल्टा होता है.  हम जो जीवित, सांसारिक लोग हैं वो सगुण है. और ईश्वर प्राप्ति के लिए जो आत्मा है वह निर्गुण है.
मैंने शुरु से रामायण और शास्त्रवत गाया और पढ़ा. मुझमें वही संस्कार था.
 फिर कबीर को पढ़ा तब दिल में इच्छा हुई कि क्यों ना निर्गुण गाया जाए. भोजपुरी में निर्गुण उसके पहले बहुत कम या न के बराबर था.
मैंने पहला निर्गुण
'गवनवा के साड़ी' 1992में टी-सीरिज के एल्बम में गाया. कोहलीजी ने पूछा ये क्या है. तब मैंने उन्हें समझाया. उन्होंने बहुत मुश्किल से इसके लिए हामी भरी.पर जब यह कैसेट बाज़ार में उतरा तो इसने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. इतना ही नहीं इसके बाद सभी कंपनियों ने अपने गायकों से निर्गुण गाने की शर्त रख दी. अभी तक निर्गुण के कुल 40 कैसेट बाजार में आ चुके हैं.

भोजपुरी गायन की विरासत कलकत्ता से भी जुड़ी है. आपकी भी इस दुनिया में एंट्री वहीं से हुई है. क्या अब के कोलकाता में तब के कलकत्ते जितनी भोजपुरी बाकी रह गई है? 

सन 71 में जब पहली बार यहां आया तब उम्र भी कम थी और तजुर्बा तो कुछ था ही नहीं. पर वहाँ कुछ लोग जैसे बच्चन मिसिर
, गायत्री ठाकुर, राज किशोर तिवारी जैसे लोगों का बहुत साथ मिला.कलकत्ता पहुंचने के अगले ही दिन हिन्दुस्तान मोटर्स कॉलोनी में रामायण का आयोजन था, जहाँ मैं भी दर्शक बनकर पहुंचा था.  
ब्रेक के दौरान वहीं पर आए एक आदमी ने मुझे पहचान लिया और पूछा कि कलकत्ता क्या करने आए हो.
मैंने जवाब दिया गाना सीखने, तो उन्होने मुझे उसी रामायण मंडली में गाने का मौका दे दिया.  फिर गाते गया और सीखते गया. अब वह दिन है और आज का दिन. जहाँ तक कलकते में तब जितनी भोजपुरी की बात है तो वह तो हमलोगों के पलायन का बड़ा केंद्र रहा है. अब वहाँ बड़ी संख्या में स्थापित भोजपुरिये हैं. कलकत्ता सांस्कृतिक रूप से भी बहुत उर्वर है.
आपको कभी ऐसा लगा नहीं कि अभी के ट्रेंड के अनुसार चलने में ज्यादा फायदा है?
कोई भी गीतकार या कलाकार फायदा-नुकसान का सोचेगा तो वह कलाकार नहीं व्यापारी कहलाएगा.
आप खुद भी देख लीजिए. कोई भी गायक जिसने क्षणिक लाभ यानी कुछ कागज़ के नोटो के लिए अश्लील गाने गाए हैं, उसका आज कोई नामलेवा नहीं है. मेरी शुरु से ऐसी प्रवृत्ति रही है कि मैंने जूझते कलाकार को आगे बढ़ाने का काम किया है.  चाहे वो गोपाल राय हों या कोई भी, सबको मैंने अपनी क्षमता भर मदद की है.
कुछ ऐसे भी हैं जिनका मैं नाम नहीं लूँगा, जिनको मैंने आगे बढ़ाया पर आज वह अश्लील गाने गाते हैं.
सामने अब मुझसे नज़रें चुराते हैं, शर्माते हैं.पर मैंने अपने जीवन में कभी ना गलत सोचा नहीं कभी किया.  हमारा नैतिक कर्तव्य है कि आने वाले पीढ़ी के लिए कुछ अच्छा छोड़ कर जाएं.
यह रास्ता कठिन है लेकिन स्थायी महत्त्व का है. इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए.
इधर लड़कियों में चन्दन तिवारी एक उम्मीद की तरह है, लालच वाले बाजार के सामने उसकी भी राह कठिन है लेकिन वह बेहतर कर रही है.
मुझे यह संतोष है कि आज से पचास साल बाद जब मेरी भावी पीढ़ी मेरे गीत सुनेगी तो मुझे गाली नहीं देगी. दूसरी बात संस्कारों की है.
मैंने शुरु से राम और कृष्ण को ही गाया है. कबीर को पढ़ा है.निर्गुण गाया है. इसलिए कभी दिमाग नहीं गया अश्लीलता की तरफ.  हां! जीवन में मौका बहुत मिला है, अश्लील गाने के लिए. मेरे कैसेट कंपनी वाले बोलते थे कि भरत जी कुछ चटकदार गाइए लोग पसंद करेंगे. बहुत बार तो प्रेशर भी किया गया पर मैंने झुकना नहीं सीखा है गलत चीज़ों के सामने.
आप आज भी लगातार शो करते हैं. विदेश तक शो करने जाते हैं. कोई ऐसा वाकया उन शोज के दौरान को जो आप कभी नहीं भूलना चाहेंगे.
देखिए, मेरी सारी गायकी, मेरे सारे कार्यक्रम, सब तो मेरे अपने ही हैं.  मैं हज़ारों जगह घूमा, गाया और लोगों को झुमाया.सब खास हैं, कुछ कम और कुछ ज्यादा नहीं. पर कुछ यादें जैसे मॉरिशस के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित होना खुशी देता है. पर इन सब से बढ़कर मैं मानता हूं कि मेरे प्रोग्राम में जितने मर्द होते हैं, उनसे ज्यादा औरतें होती हैं.
आज बस मेरे ही कार्यक्रम में हमारी महिला श्रोताएं आती हैं.
 बाकी सब जो आज कल के गायक हैं, उनके शो में हिस्सा लेने से डरती हैं. यह  मेरी उपलब्धि है मेरी गायकी का सम्मान है. लोगों की आँखों में श्रद्धा देखता हूँ तो तमाम चीजें अलग हो जाती हैं और क्या चाहिए. ऐसा वह नहीं कह सकते जो ख़ुद तो गंदा गाते ही हैं, साथ ही साथ नाचने -गाने वाले हुडदंग मचाने वालों को भी अपने साथ स्टेज पर जगह देते हैं.  
मैं आज भी जूता पहन कर स्टेज पर नहीं जाता. जब भी गाता हूं तो बैठ कर गाता हूं. कोई अभद्र भाषा या व्यवहार करने वाला मेरे अगल-बगल भी नहीं रहता. भजन
, निर्गुण गाता हूं. महिलाएँ सुनती हैं, झूमती हैं.  यही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है.कोई सम्मान इससे बढ़कर हो ही नहीं सकता. इसलिए मेरे लिए मेरा हर शो मेरे तमाम दर्शक मेरे लिए न भूलने वाले वाकये हैं, किसी को कम कह भी कैसे दूँ. सब यादगार लम्हें हैं. 
आपकी जीवनी लिखी जा रही है,  कुछ बताइए उसके बारे में.
मेरी लगभग आधी जीवनी वर्ष 2000में ही मेरे मित्रगणेश दत्त किरण जी ने लिख दी थी. असमय उनकी मृत्यु हो गई. उसमें बहुत कम ही लिखा गया था. फिर कुछ लेखकों ने कहा कि वह लिखना चाहते हैं, पर नहीं हो पाया.
पिछले साल एक युवक
 उदीप्त निधि मुझसे मिलने मेरे घर आया और उसने आग्रह किया कि वो मेरी जीवनी लिखना चाहता है. वह युवा पत्रकार है.  “The TrickyScribeजो कि दिल्ली की एक अंग्रेजी मैगज़ीन है,उसमें पटना की तरफ से बतौर लीड रिसर्चर का काम करता है. भोजपुरी उनकी मातृभाषा है और डुमरांव इनका पैतृक घर. मैंने उन्हें अपनी जीवनी लिखने की अनुमति दी है और करीब 8महीने से यह काम लगातार चल रहा है. मैं बता दूं कि लेखक भी दो तरह के होते हैं.एक जो कल्पना की दुनिया में डूब कर लिखते हैं और दूसरे वह जो रिसर्च करके डॉक्युमेंटेड फैक्ट लिखते हैं. उदीप्त दूसरी तरह के लेखक हैं.वह मेरी जीवनी पहले अंग्रेजी में लिख रहे हैं, फिर इसका हिन्दी वर्जन भी आएगा. उम्मीद है 4-5महीने में यह पुस्तक मार्केट में आप सब के बीच होगी.
...................
भरत शर्मा व्यास के भक्ति गीतों के लिंक
 https://www.youtube.com/watch?v=d0IDoIO1LMA
https://www.youtube.com/watch?v=3EY-PoL0I_A
निर्गुण
https://www.youtube.com/watch?v=iASX3VdR9Y0
https://www.youtube.com/watch?v=4-fJAHGpaZQ
अन्य
https://www.youtube.com/watch?v=MrOpIrJnPnM
https://www.youtube.com/watch?v=Ltc9eMO4A2c



जिसके लिए तवायफों ने अपने गहने उतार दिए : पूरबी सम्राट महेंद्र मिश्र

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मुजफ्फरपुर के एक कोठे पर गाने वाली ढेलाबाई की बड़ी धूम थी, सारण के बाबू हलिवंत सहाय के लिए महेंद्र मिश्र ने उसका अपहरण कर लिया. बाद में अपने इस कर्म पर उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ और फिर उन्होंने ढेलाबाई कि मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी.
घर, परिवार और गायक का उभार
पुरबी सम्राट महेंदर मिसिरजी के बिआह रुपरेखा देवी से भईल रहे जिनका से हिकायत मिसिर के नाव से एगो लईका भी भईल, बाकी घर गृहस्थी मे मन ना लागला के कारन महेन्दर मिसिर जी हर तरह से गीत संगीत कीर्तन गवनई मे जुटि गईनी । बाबुजी के स्वर्ग सिधरला के बाद जमीदार हलिवंत सहाय जी से जब ढेर नजदीकी भईल त उहा खातिरमुजफ्फरपुर के एगो गावे वाली के बेटी ढेलाबाई के अपहरण कई के सहाय जी के लगे चहुंपा देहनी । बाद मे एह बात के बहुत दुख पहुंचल आ पश्चाताप भी कईनी संगे संगे सहाय जी के गइला के बाद, ढेला बाई के हक दियावे खातिर महेन्दर मिसिर जी कवनो कसर बाकी ना रखनी !
महेंद्र मिश्र का जन्म छपरा के मिश्रवलिया में आज ही के दिन 16 मार्च 1886 को हुआ था. महेंद्र मिश्र बचपन से ही पहलवानी, घुड़सवारी, गीत, संगीत में तेज थे. उनको विरासत में संस्कृत का ज्ञान और आसपास के समाज में अभाव का जीवन मिला था जिसमें वह अपने अंत समय तक भाव भरते रहे. इसीलिए उनकी रचनाओं में देशानुराग से लेकर भक्ति, श्रृंगार और वियोग के कई दृश्य मिलते हैं. भोजपुरी साहित्य में गायकी की जब-जब चर्चा होती महेंद्र मिश्र की पूरबी सामने खड़ी हो जाती है. शोहरत का आलम यह कि  भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के जिस-जिस हिस्से (फिजी, मारिशस, सूरीनाम, नीदरलैंड, त्रिनिदाद, ब्रिटिश गुयाना) में गिरमिटिए गए महेंद्र मिश्र की गायकी उनके सफ़र और अपनी मिटटी का पाथेय बनकर साथ गई. साहित्य संगीत के इतिहास में विरला ही कोई होगा जो एक साथ ही शास्त्रीय और लोक संगीत पर गायन-वादन में दक्षता भी रखता हो और अपने आसपास के राजनीतिक-सामाजिक हलचलों में सक्रिय भागीदारी रखता हो और पहलवानी का शौक भी रखता हो. महेंद्र मिश्र का जीवन रूमानियत के साथ भक्ति का भी साहचर्य साथ-साथ का रहा है. इस कवि का मित्रभाव ऐसा था कि उन्होंने अपने जमींदार मित्र हलिवंत सहाय के प्रेम के लिए मुजफ्फरपुर से ढेलाबाई का अपहरण करके लाकर मित्र के यहाँ पहुंचा दिया. हालांकि अपने इस काम के पश्चाताप स्वरुप वह ढेलाबाई के साथ अंत तक हलिवंत सहाय के गुजरने के बाद भी रहकर निभाते रहे. उनके जमींदारी के मामलों की देखरेख करते रहे. महेंद्र मिश्र के जीवन के इतने रंग है कि आप जितना घुसते जाते हैं लगता है एक और छवि निकल कर सामने आ रही है. गोया कोई फिल्म देख रहे हों. पहलवानी का कसा लम्बा-चौड़ा बदन, चमकता माथा, देह पर सिल्क का कुर्ता, गर्दन में सोने की चेन और मुँह में पान की गिलौरी ऐसा आकर्षक था महेंद्र मिश्र का व्यक्तित्व.       
                                                                                                                                                                                                                                    लोककलाकार भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र
भोजपुरी के भारतेंदु कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र समकालीन थे. लोकश्रुति यह भी है कि भिखारी ठाकुर के साहित्यिक सांगीतिक गुरु महेंद्र मिश्र ही थे.भिखारी ठाकुर पर शुरुआती दौर के किताब लिखने वालेभोजपुरी के विद्वान आलोचक महेश्वराचार्य जी के हवाले से कहा गया है कि 'जो महेंद्र न होते तो भिखारी ठाकुर भी नहीं पनपते. उनकी एक एक कड़ी लेकर भिखारी ने भोजपुरी संगीत रूपक का सृजन किया है. भिखारी की रंगकर्मिता, कलाकारिता के मूल महेंद्र मिश्र हैं जिनका उन्होंने कहीं नाम नहीं लिया है. महेंद्र मिश्र भिखारी ठाकुर के रचना-गुरु, शैली गुरु हैं. महेंद्र मिश्र का 'टुटही पलानी'वाला गीत भिखारी ठाकुर के 'बिदेसिया'की नींव बना.'महेंद्र मिश्र के अध्येता सुरेश मिश्र इस संदर्भ में भिखारी ठाकुर के समाजियों 'भदई राम', 'शिवलाल बारी'और 'शिवनाथ बारी'के साक्षात्कार का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि 'पूरी बरसात भिखारी ठाकुर महेंद्र मिश्र के दरवाजे पर बिताते थे तथा महेंद्र मिश्र ने भिखारी ठाकुर को झाल बजाना सिखाया था.'इतना ही नहीं महेंद्र मिश्र को पुरबी का जनक कहा जाता है और भिखारी ठाकुर के नाटकों में प्रयुक्त कई कविताओं की धुन पूरबी ही है. लोकसंस्कृति के अध्येताओं को अभी इस  ओर अभी और शोध करने की आवश्यकता है. 
स्वतंत्रता संग्राम और महेंद्र मिश्र
महेंद्र मिश्र का समय गाँधी के उदय का समय है. बिहार स्वतंत्रता सेनानी संघ के अध्यक्ष विश्वनाथ सिंह तथा इस इलाके के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री तापसी सिंह ने अपने एक लेख में यह दर्ज किया है कि महेंद्र मिश्र स्वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद किया करते थे. इस सन्दर्भ में अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मलेन के चौदहवें अधिवेशन, मुबारकपुर, सारण'इयाद के दरपन में'देखा जा सकता है. सारण के इलाके के कई स्वतंत्रता सेनानी और कालांतर में सांसद भी (बाबू रामशेखर सिंह और श्री दईब दयाल सिंह) ने अपने यह बात कही है कि महेंद्र मिश्र का घर स्वंतंत्रता संग्राम के सिपाहियों का गुप्त अड्डा हुआ करता था. उनके घर की बैठकों में संगीत और गीत गवनई के अलावा राजनीतिक चर्चाएँ भी खूब हुआ करती थी. उनके गाँव के अनेक समकालीन बुजुर्गों ने इस बात की पुष्टि की है कि महेंद्र मिश्र स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की खुले हाथों से सहायता किया करते थे. आखिर उनके भी हिस्से वह दर्द तो था ही कि 
"हमरा नीको ना लागे राम गोरन के करनी 
 
रुपया ले गईले,पईसा ले गईलें,ले सारा गिन्नी 
 
ओकरा बदला में दे गईले ढल्ली के दुअन्नी'
पूरबी सम्राट महेंद्र मिश्र के साथ यह अजब संयोग ही है कि उनकी रचनाएँ अपार लोकप्रियता के सोपान तक पहुँची. भोजपुरी अंचल ने टूट कर उनके गीतों को अपने दिलों में जगह दी किन्तु साहित्य इतिहासकारों की नजर में महेंद्र मिश्र अछूत ही बने रहे. किसी ने उनपर ढंग से बात करने की कोशिश नहीं की. अलबता एकाध पैराग्राफ में निपटाने की कुछ सूचनात्मक कोशिशें हुई जरुर. रामनाथ पाण्डेय लिखित भोजपुरी उपन्यास 'महेंदर मिसिर'और पाण्डेय कपिल रचित उपन्यास 'फूलसुंघी'पंडित जगन्नाथ का 'पूरबी पुरोधा'और जौहर सफियाबादी द्वारा लिखित 'पूरबी के धाह'लिखी है. प्रसिद्ध नाटककार रवीन्द्र भारती ने 'कंपनी उस्ताद'नाम से एक नाटक लिखा है जिसे वरिष्ठ रंगकर्मी संजय उपाध्याय ने खूब खेला भी है. भोजपुरी मैथिली के फिल्मकार नितिन नीरा चंद्रा भी महेंद्र मिश्र पर एक फिल्म की तैयारी में हैं. रत्नाकर त्रिपाठी ने आर्ट कनेक्ट में 'टू लाइफ ऑफ़ महेंद्र मिश्र'नाम से के शानदार लेख लिखा है. इधर जैसी कि सूचना है बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् जल्दी ही महेंद्र मिश्र की रचनावली का प्रकाशन करने जा रहा है.
नकली नोट की छपाई का किस्सा और गोपीचंद जासूस
महेंद्र मिश्र का कलकत्ता आना जाना खूब होता था. तब कलकता न केवल बिहारी मजदूरों के पलायन का सबसे बड़ा केंद्र बल्कि राजनीतिक गतिविधियों की भी सबसे उर्वर जमीन बना हुआ था. कलकते में ही उनका परिचय एक अंग्रेज से हो गया था जो उनकी गायकी का मुरीद था. उसने लन्दन लौटने के क्रम में नकली नोट छापने की मशीन महेंद्र मिश्र को दे दी जिसे लेकर वह गाँव चले आए और वहाँ अपने भाईयों के साथ मिलकर नकली नोटों की छपाई शुरू कर दी और सारण इलाके में अपने छापे नकली नोटों से अंग्रेजी सत्ता की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोडनी शुरू कर दी. महेंद्र मिश्र पर पहला उपन्यास लिखने वाले रामनाथ पाण्डेय ने अपने उपन्यास 'महेंदर मिसिर'में लिखा है कि 'महेंद्र मिश्र अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि शोषक ब्रिटिश हुकूमत की अर्थव्यवस्था को धराशायी करने और उसकी अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे'. इस बात की भनक लगते ही अंग्रेजी सरकार ने अपने सीआईडी जटाधारी प्रसाद और सुरेन्द्र लाल घोष के नेतृत्व में अपना जासूसी तंत्र को सक्रिय कर दिया और अपने जासूस हर तरफ लगा दिए. सुरेन्द्रलाल घोष तीन साल तक महेंद्र मिश्र के यहाँ गोपीचंद नामक नौकर बनकर रहे और उनके खिलाफ तमाम जानकारियाँ इकट्ठा की. तीन साल बाद 16 अप्रैल 1924 को गोपीचंद के इशारे पर अंग्रेज सिपाहियों ने महेंद्र मिश्र को उनके भाइयों के साथ पकड़ लिया. गोपीचंद की जासूसी और गद्दारी के लिए महेंद्र मिश्र ने एक गीत गोपीचंद को देखते हुए गाया -
पाकल पाकल पानवा खिअवले गोपीचनवा पिरितिया लगा के ना,
हंसी हंसी पानवा खिअवले गोपीचानवा पिरितिया लगा के ना
मोहे भेजले जेहलखानवा रे पिरितिया लगा के ना
गोपीचंद जासूस ने जब यह सुना तो वह भी उदास हो गया. वह भी मिश्र जी के प्रभाव में तुकबंदियाँ सीख गया था. उसने भी गाकर ही उत्तर दिया -
नोटवा जे छापि छपि गिनिया भजवलs ए महेन्दर मिसिर
ब्रिटिस के कईलs हलकान ए महेन्दर मिसिर
सगरे जहानवा मे कईले बाडs नाम ए महेन्दर मिसिर
पड़ल बा पुलिसिया से काम ए महेन्दर मिसिर
सुरेश मिश्र इस घटनाक्रम के बारे में लिखते हैं - 'एक दिन किसी अंग्रेज अफसर ने जो खूब भोजपुरी और बांग्ला भी समझता था,इनको 'देशवाली'समाज में गाते देखा । उसने इनको नृत्य-गीत के एक विशेष स्थान पर बुलवाया । ये गए । बातें हुईं ।वह अँगरेज़ उनसे बहुत प्रभावित हुआ । इनके कवि की विवशता,हृदय का हाहाकार,ढेलाबाई के दुखमय जीवन की कथा,घर परिवार की खस्ताहाली तथा राष्ट्र के लिए कुछ करने की ईमानदार तड़प देखकर उसने इनसे कहा- तुम्हारे भीतर कुछ ईमानदार कोशिशें हैं । हम लन्दन जा रहे हैं । नोट छापने की यह मशीन लो और मुझसे दो-चार दिन काम सीख लो । यह सब घटनाएँ 1915-1920  के आस-पास की हैं.'
पटना उच्च न्यायालय में महेंद्र मिश्र के केस की पैरवी विप्लवी हेमचन्द्र मिश्र और मशहूर स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास ने की. महेंद्र मिश्र की लोकप्रियता का आलम यह था कि उनके गिरफ्तारी की खबर मिलते भी बनारस से कलकत्ता की तवायफों ने विशेषकर ढेलाबाई, विद्याधरी बाई, केशरबाई  ने अपने गहने उतार कर अधिकारीयों को देने शुरू कर दिए कि इन्हें लेकर मिश्र जी को छोड़ दिया जाए. सुनवाई तीन महीने तक चली. लगता था कि मिश्र जी छूट जाएँगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उन्होंने अपना अपराध कबूल लिया. महेंद्र मिश्र को दस वर्ष की सजा सुना दी गई और बक्सर जेल भेज दिया गया. महेंद्र मिश्र के भीतर के कवि, गायक ने जेल में जल्दी ही सबको अपना प्रशंसक बना लिया और उनके संगीत और कविताई पर मुग्ध होकर तत्कालीन जेलर ने उन्हें जेल से निकाल कर अपने घर पर रख लिया. वहीं पर महेंद्र मिश्र जेलर के बीवी बच्चों को भजन एवं कविता सुनाते तथा सत्संग करने लगे.वहीं महेंद्र मिश्र ने भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य और अपने काव्य का  गौरव-ग्रन्थ "अपूर्व रामायण"रचा.मुख्य रूप से पूरबी के लिए मशहूर महेंद्र मिश्र ने कई फुटकर रचनाओं के अलावा महेन्द्र मंजरी, महेन्द्र बिनोद, महेन्द्र मयंक, भीष्म प्रतिज्ञा, कृष्ण गीतावली, महेन्द्र प्रभाकर, महेन्द्र रत्नावली , महेन्द्र चन्द्रिका, महेन्द्र कवितावली आदि कई रचनाओं की सर्जना की.
प्रेम की पीर और प्रेम में मुक्ति का कवि-गायक
यह ज्ञात तथ्य है कि कलकत्ता, बनारस, मुजफ्फरपुर आदि जगह की कई तवायफें महेंद्र मिश्र को अपना गुरु मानती थी. इनके लिखे कई गीतों को उनके कोठों पर सजी महफ़िलों में गाया जाता था. पूरबी की परंपरा का सूत्र पहले भी दिखा है लेकिन उसकी प्रसिद्धि महेंद्र मिश्र से ही हुई. चूँकि मिश्र जी हारमोनियम, तबला, झाल, पखाउज, मृदंग, बांसुरी पर अद्भुत अधिकार रखते थे तो वहीं ठुमरी टप्पा, गजल, कजरी, दादरा, खेमटा जैसी गायकी और अन्य कई शास्त्रीय शैलियों पर जबरदस्त अधिकार भी था. इसलिए उनकी हर रचना का सांगीतिक पक्ष इतना मजबूत है कि जुबान पर आसानी से चढ़ जाते थे सो इन तवायफों ने उनके गीतों को खूब गाया भी. उनकी पूरबी गीतों में बियोग के साथ-साथ गहरे रूमानियत का अहसास भी बहुत दिखता है जो कि अन्य भोजपुरी कविताओं में कम ही दिखायी देती हैं.
अंगुरी मे डंसले बिआ नगिनिया, ए ननदी दिअवा जरा दे/ सासु मोरा मारे रामा बांस के छिउंकिया, सुसुकति पनिया के जाय, पानी भरे जात रहनी पकवा इनरवा, बनवारी हो लागी गईले ठग बटमार /  आधि आधि रतिया के पिहके पपीहरा, बैरनिया भईली ना, मोरे अंखिया के निनिया बैरनिया भईली ना / पिया मोरे गईले सखी पुरबी बनिजिया, से दे के गईले ना, एगो सुनगा खेलवना से दे के गईले ना, जैसे असंख्य गीत में बसा विरह और प्रेम का भाव पत्थर पिघलाने की क्षमता रखता है. कहा तो यह भी जाता है कि महेंद्र मिश्र के गीतों में जो दर्द है वह ढेलाबाई और अन्य कई तवायफों की मजबूरी, दुख:दर्द के वजह से भी है. ढेलाबाई से महेंद्र मिश्र की मित्रता के कई पाठ लोक प्रचलन में हैं लेकिन एक स्तर पर यह घनानंद की प्रेम की पीर सरीखा है. इसलिए महेंद्र मिश्र के यहाँ भी प्रेम में विरह की वेदना की तीव्रता इतनी है कि दगादार से यारी निभाने की हद तक चला जाता है. ढेलाबाई और महेंद्र मिश्र के बीच के नेह-बंध को ऐसे देख सकते हैं. वैसे भी प्रेम में मुक्ति का जो स्वर महेंद्र के यहाँ हैं वह लोकसाहित्य में विरल है. कहते हैं उनके गायकी से पत्थर पिघलते थे, सारण से गुजरने वाली नदियाँ गंगा और नारायणी की धार मंद पड़ जाती थी. यह गायकी का जोर था महेंद्र मिश्र का, लेकिन अफ़सोस भोजपुरी का यह नायब हीरा अपने जाने के सात दशकों में किंवदन्तियो और मिथकों सरीखा बना दिया गया है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमने अपने लोक का इतिहास संरक्षित करने में हमेशा से उपेक्षा का भाव रखा. हमारे पास राजाओं और शासकों का इतिहास है लेकिन लोक ह्रदय सम्राटों का नहीं. महेंद्र मिश्र इसी उपेक्षा के मारे ऐसे ही कलाकार हैं. 16 मार्च 1886 से शुरू हुई यात्रा से 26 अक्टुबर 1946 को ढेलाबाई के कोठा के पास बने शिवमंदिर में पूरबी के इस सम्राट ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उसका दिल बड़ा था लेकिन उसके लिए दुनिया ही छोटी थी. उन्होंने अपनी प्रेम गीतों में दगादार से भी यारी और प्रेम में स्वतंत्रता का भाव विशेषकर स्त्रियों के पक्ष में का भाव पैदा किया. भोजपुरी के लगभग सभी गायकों शारदा सिन्हा से लेकर चन्दन तिवारी तक ने महेंद्र मिश्र के गीतों को अपनी आवाज़ दी है. कहते हैं होंगे कई कवि-गायक महेंद्र मिश्र जैसा कोई दूजा न, हुआ न होगा.   
महेंद्र मिश्र के गीतों के वेबलिंक्स
https://www.youtube.com/watch?v=qXuSvy6ragI
https://www.youtube.com/watch?v=j8Ev5v07rH0
https://www.youtube.com/watch?v=rYhEKhkkWho

हीरा मन अभिनेता : पंकज त्रिपाठी

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एक बेहतर अभिनेता वह है जो अपने रचे हुए फार्म को बार बार तोड़ता है, उसमें नित नए प्रयोग करता है और अपने दर्शकों, आलोचकों, समीक्षकों को चौंकाता है। अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने लगातार इस तरह के प्रयोग करते हुए अपने ही रचे फार्म को बार-बार तोड़ा है। आप हमेशा पाएंगे कि इस अभिनेता का काम कैसे एक से दूसरे में अलग तरह से ही ट्रासंफार्म हो जाता है और वह भी सहज सरलता से दिखता हुआ लेकिन जादुई तरीके से आपको ठिठकने पर मज़बूर करता हुआ लेकिन आपकी आंखों और होंठों पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान के साथ। यानी नरोत्तम मिश्रा के सामने मुन्ना माइकल का गुंडा और नील बट्टे का प्रिंसिपल, सुल्तान से कैसे जुदा हो जाता है वैसे ही तीन ग्रे शेड्स वाले अलग किरदार पाउडर का नावेद अंसारी, गुडगाँव का केहरी सिंह और मिर्ज़ापुर के अखंडानंद त्रिपाठी एक खास मनोवृति के दिखने वाली दुनिया में रहते हुए पर्दे पर नितांत अलग-अलग हैं और जब मैं अलग कह रहा हूँ तो वह ठीक पूरब और पश्चिम वाले अलग हैं। यह अभिनेता पंकज त्रिपाठी के अभिनय शैली की उत्कृष्टता के विभिन्न सोपान और छवियाँ हैं। अब The Man मैगज़ीन ने पंकज त्रिपाठी के व्यक्तित्व का एक अनूठा पहलू सामने पेश किया है। मैं मजाक में कहता था कि नावेद अंसारी के कपड़े पहनने और देहभाषा के तरीके को कईयों ने नोटिस किया और अपनाया था पर कायदे से 'द मैन'मैगज़ीन टीम ने पंकज त्रिपाठी के इस पहलू को पहचानकर उन तमाम आलोचकों के मुँह पर ताला जड़ दिया है जो इस अदाकार को एक खास फ्रेम में देखने की जुगत में थे। यह अभिनेताओं का दौर है । यह हमारे जीवन वन के वह फूल हैं जो निश्चित ही ड्राइंग रूम और बालकनी के फूलों से अधिक खुशबू दे रहे हैं, यही इनकी विशेषता भी है, यह वनफूल अकेले नहीं महकते, इनकी खुश्बू में प्रकृति नर्तन करती है। कहते हैं वनबेला फूलती है तो समूचा वन महकता है और जब समूचा वन महकता है तो प्रकृति अपने सबसे सुंदर रूप में होती है. तो दोस्तों! यह वनबेला के फूल के खिलने, सुवाषित होने की रुत है इस मैगज़ीन की स्टोरी से उल्लसित होइए, यह पढ़ने से अधिक महसूसने की बात है। पंकज भैया इसी सुंदर का स्वप्न हैं। यह फ़ोटो कई मामलों में विशेष है। इस अंग्रेजी मैगज़ीन के कवर को देखिए इसकी जबान भी भारत के सुदूर देहात के लिए अबूझ दुनिया का जादुई लोक है। इस पर छपे हर्फ़ ही केवल अतिशयता का संसार नहीं रचते बल्कि तस्वीरें भी लौकिकता से ऊपर उठती जान पड़ती हैं। और हुजूर इल्म से शायरी बेशक न आती हो लेकिन देखिए इल्म, प्रतिभा और मेहनत का सुंदर संगम हो तो ऐसे दूर के जादुई लोक को अपने भीतर रखे हर्फ़ वाले आम मानस में अलग तरह से बैठे मैगज़ीन भी जनता के अभिनेता, कलाकार को, सोने के दिल वाले हिरामन को अपने कवर पर रखते हैं, गौरवान्वित होते हैं कौन कहता है कि पंकज त्रिपाठी नाम के इस अभिनय की पाठशाला व्यक्तित्व का आयाम केवल मसान, नील बट्टे सन्नाटा, बरेली की बर्फी, गैंग्स ऑफ वासेपुर, मैंगो ड्रीम्स, गुड़गांव, पाउडर, मिर्ज़ापुर, योर्स ट्रुली तक ही है। यह तस्वीर बयान कर रही है कि पंकज त्रिपाठी की प्रतिभा और उनके डिफरेंट शेड्स किसी भी भाषायी और क्षेत्रीय पहचानों से ऊपर अब अंतरराष्ट्रीय पटल और कई अन्य भाषा भाषियों के कला के अन्य रूपों में कार्यरत और चाहने वाले लोगों में है। यह मैगज़ीन और इसके कवर पर अंकित छवि केवल किरदारी मामला नहीं है बल्कि यह कह रही है कि उस अभिनेता के मैनरिज्म का यह पहलू आपने नहीं देखा तो अब तक क्या देखा , तो देखिए स्टाइल, चलने का ढंग, वह ठसक, राजस, फिर भी आपका अपना। बहुत कम कलाकारों को अपने चाहने वालों का यह भरोसा नसीब होता है कि वह कुछ करे और घर के बड़े पूछे ये वाला कलाकार कह रहा है तो कुछ बात होगी। यह एक मैगज़ीन के कवर ब्यॉय की तस्वीर भर नहीं बल्कि एक कलाकार के बहुआयामी व्यक्तित्व की एक और पड़ताल है और यकीन जानिए इस तस्वीर और कवर स्टोरी ने कई गुदड़ी के लालों को सुंदर का सपना देखने को प्रेरित किया है। कस्तूरी सरीखे महकते रहिये, इस संसार को थोड़े सुगंध की जरूरत है यह वाकई वनबेला के फूलने की रुत है। अभी तो फसाने और आने हैं.  यह बरसात की पहली बूंद के धरती पर उतरने और उसकी सोंधी सुगंध के चहुं ओर फैलने की मानिंद है। ''इस खुशबू को पेट्रिकोरकहते हैं, जो ग्रीक भाषा के शब्द पेट्रा से बना है, जिसका अर्थ स्टोन या आईकर होता है, और माना जाता है कि यह वही तरल है, जो ईश्वर की नसों में रक्त के रूप में बहता है।''यह कलाकार और उसकी अलग छवियाँ अपने ईमानदार काम से ईश्वरीय नसों में रक्त की मानिंद संचरणशील है। वह बरसात की वही सोंधी गंध है जो आपके नथुनों में उतरते ही आपकी जड़ता तोड़ अपनी ओर खींच लेता है। मैं सोचता हूँ, इन सबसे परे इस बदलाव और लंबी यात्रा के पीछे की प्रेरक कहाँ है? मेरे एक और अज़ीज़ रंगकर्मी हबीब तनवीर के मशहूर नाटक 'कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना'का गीत उनके लिए याद आ रहा है जो इस हीरा-मन कलाकार के पीछे चुपचाप मुस्कुराती प्रेरणा शक्ति बन खड़ी हैं और पंकज त्रिपाठी की सफलता की आधी हकदार उनकी जीवन संगिनी मृदुला त्रिपाठी के लिए सच में यही गीत इस वक़्त मुझे सबसे मुफीद लगता है -
"
मुझे पता है मेरे बन की रानी कहाँ सोई है/
जहाँ चमेली महक रही है और सरसो फूली है/
जहां कनेर के पेड़ पे, पीले - पीले फूल सजे हैं/
आस -पास कुछ उगे फूलों की भी बेल चढ़ी है/
जहां गुलाब के, गुलअब्बास के फूल ही फूल खिले हैं..."
यह वाकई उसी वनबेला के फूलने का समय है।
शुक्रिया

Image may contain: Pankaj Tripathi, text



हर्षिल डायरी - 1

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जाना मंदाकिनी वाली गंगा के इलाके में हर्षिल डायरी : भाग -
बिना किसी बड़ी योजना के यूँ ही Joginder ने उस दिन तैयार कर लिया कि कम से कम चीला होकर आ जाएँगे. लेकिन चीला में दो रातों बाद ऋषिकेश के पहाड़ों ने ऊपर आने के लिए डाक देना शुरू किया और वह यह काम पहले दिन की सुबह से ही करने लगे थे. उन्हें पता था कि इस आदमी (मैं ही) के भीतर बेचैनी बैठी रहती है कि गढ़वाल हिमालय के दुर्गम इलाकों की झलक ना ली तो क्या उतराखंड आए. मुझे हमेशा लगता है हरिद्वार ऋषिकेश आना गढ़वाल आना नहीं बस गंगा दर्शन और डुबकी, संध्या आरती के लिए आना भर ही है यह मुहाने से लौटना है इसलिए ऋषिकेश से उपर चढ़ते लगता है किसी रोगी को ऑक्सीजन दे दिया गया हो. नीत्शे बबवा कह गया था 'मैं यायावर हूँ और मुझे पहाड़ों पर चढ़ना पसंद है.'लेकिन मेरे लिए भी सच यही है. चीला से आगे जाने की बात सुन फारेस्ट गेट के टपरी वाले चाय दूकान पर पंडित जी ने पूछा था कहाँ की ओर ? अनमने ढंग से पहले कहा - सोचा है खिर्सू लेकिन हम हर्षिल (गंगोत्री) चल दिए. वैसे हर्षिल वाली बात सुनकर पंडित जी ने वही कहा होता जो खिर्सू सुनकर मुस्कुराकर कहा था - शुभास्तु पंथान : . और हम हर्षिल चल दिए. मेरे ख्याल से जोगी, ऋचा और कौस्तुभ के लिए तो ठीक था कि वह नज़ारे देख देख प्रफुल्लित हो रहे थे पर कसम से यही मौका होता है जब पहाड़ों में ड्राईविंग करने वाले मेरे जैसे मैदानी लोग अपनी किस्मत खूब कोसते हैं और दूसरों की किस्मत से रस्क खाते हैं क्यूंकि सामने नज़र रखते और हर मोड़ पर सतर्क रहते आधा सौन्दर्यबोध यूँ ही हवा रहता है लेकिन बाकी के आधे में मन कहता है -चरन्वं मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदुम्बरम् - चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है- सो चरैवेति चरैवेति - सो मैं भी चलता रहा आखिर पहाड़ी राजा विल्सन के इलाके के सेबों की मिठास और 2500 मीटर की ऊँचाई के देवदारों, सेबों के बागान और महार और जाट रेजिमेंट के बीच से गंगा को नीचे देखते जाने की कबसे तमन्ना थी जो एक बार बीए में पूरी हुई सो अब तक बदस्तूर जारी है. फिर मेरे लिए कैशोर्य अवस्था से वह पोस्ट ऑफिस भी तो एक बड़ा आकर्षण रहा है जहाँ गंगा हँसते हुए पोस्टमास्टर बाबू को यह कहते हुए निकल जाती कि पहाड़ों की डाक व्यवस्था अजीब है. हाय! राजकपूर ने भी क्या खूब जगह चुनी. गंगा और बंगाली भद्र मानुष नरेन के मिलन बिछुरन वाले प्रेम कथा के लिए. इस जगह से मुफीद जगह क्या ही होती. किस्से पर वापसी - उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर चढ़ते हुए 4 से थोड़ा ऊपर का समय हो या था तिस पर अक्टूबर और पहाड़ों में अँधेरा वैसे ही तेजी से उतर जाता है और यदि वह पहाड़ी रास्ता उतरकाशी से हर्षिल-गंगोत्री रूट पर हो, शाम ढल रही हो, सर्दियों का उठान हो और गाड़ी चलाने वाला एक ही व्यक्ति हो तो आगे की सोच कर चलना ही ठीक रहता है. हमने थोड़ी देर उत्तरकाशी से थोड़ा ऊपर रूककर चाय और मैगी गटकने के बाद तय किया कि जिस तरह ऋषिकेश से यहाँ तक आए हैं उस लिहाज से आगे 3 साढ़े 3 घंटे में हर्षिल पहुँचकर ही आराम करेंगे. मुझे कुछ ख़ास थकान नहीं लग रही थी और सच कहूँ तो मन के कुहरे में वह बात साफ़ थी कि अब रुकें तो हर्षिल ही, सो चल पड़े. शाम उतरने लगी थी,वातावरण में ठंडक बढ़ रही थी और गाड़ी के भीतर इसका अहसास हो रहा था. सब खुश थे पिकू महाराज भी एक गहरी नींद मार जाग चुके थे और उनके लिए मैंने उनके पसंद के गीतों को चला दिया था. इस पूरे रास्ते में मैंने अतिउत्साह में एक गलती की थी जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वह खामियाजा भी एक नया और अलग अर्थ में सुखद याद बन गया. सुकी मठ हर्षिल से थोड़ा पहले है और उससे पहले आईटीबीपी का कैम्प है. यह जगह हर्षिल से भी ऊँची है और इस गाँव में भी सेब खूब होता है पर इस जगह कोई यात्री नहीं रुकता वह या तो हर्षिल , धराली या सीधे गंगोत्री ही रुकता है जो यहाँ से 2 घंटे आगे है. इसी सुकी मठ गाँव से 2 किमी नीचे कार ने एकाएक धुआँ देकर चुप्पी साध ली बेचारी सुबह से लगातार टेढ़े मेधे ऊँचे नीचे अच्छे ख़राब रास्तों पर चल रही थी वह उस सांझ, वीरान जगह पर मुँह फुला झटके बैठ गई - मैंने ध्यान नहीं दिया था उसका हीट लेवल बढ़ा हुआ था और मैं बतकुच्चन में बिना ध्यान दिए गाड़ी को तेजी से राम तेरी गंगा मैली के इलाके में खींचे जा रहा था. गाड़ी का वाटर पम्प पता नहीं कैसे टूट गया था. सारा कूलेंट पानी स्वाहा. थोड़ी देर बाद बगल से गुजरते डम्पर वाले ने देखा कि शहरी बाबु लोग किसी दिक्कत में हैं तो उस संकरे रस्ते पर आकर उसने अपना बेशकीमती आधे घंटे का समय हमारे हिस्से खर्च किया. किस्मत अच्छी थी कि ठीक बगल में एक पहाड़ी नाला ऊपर से आता हुआ तेजी से नीचे खाई में चिल्लाता हुआ गंगा में उतर रहा था. उसके पानी से कार का गुस्सा ठंडा किया गया और अब गाड़ी इस हालत में आ गयी थी कि सुक्की तक चली जाए पर आईटीबीपी कैम्प तक चढ़ते चढ़ते गाड़ी ने अजीब चीखें मारनी शुरू की और हर्षिल गंगोत्री जाने वाले समझ सकते हैं कि उस रास्ते पर सुकी गाँव के पास निहायत खड़ी चढ़ाई है, जैसे मसूरी में लैंढूर से चार दूकान की ओर जाते हुए का रास्ता. खैर कैम्प के आगे बलवंत सिंह जी की चाय की दूकान लगभग बंद हो ही गई थी पर हमें देख उनकी उम्मीद बढ़ी कि थोड़ी देर और रुक गया तो कुछ आमदनी हो जाएगी. उनकी उम्मीद गलत नहीं थी. हमनें दबा के मैगी और ग्लास भर निम्बू चाय पी, दूकान के जलतीनुमा आग में सम्भावना तलाशते हुए सुकी में रुकने का मन बना लिया. वहाँ होटल जैसा कुछ नहीं था कमरे मिल गए थे जिसमें शौचालय था और खाना बनाने का रिवाज होटल वाले ने सीखा नहीं था-रात पूरे चाँद की थी. उस पर फिर कभी लेकिन कार के खड़ी किए जाने की जगह से रुकने की जगह भी 3 किमी थी पर सुविधा यह थी कि कमरे के बाहर आकर सामने झाँकों तो ताज़ी झरी सफेदी ओढ़े हिमालय उसके पैताने उत्तरकाशी, महादानव टिहरी बांध, देवप्रयाग को जाती भागीरथी और उसके आगे जाती गंगा तो दाहिनी ओर नीचे दिखते हरियल छत के कैम्प के कोने में बलवंत जी के टपरी के मुहाने अगले दिन आने 70 किमी दूर नीचे उत्तरकाशी से आने वाले मिस्त्री की और उपकरणों की उम्मीद मे हमारी डिजायर 1040.और हाँ उस जगह हमने मज़बूरी में शरण ली और तीन दिन रुके उसी जगह ख़ुशी ख़ुशी जी वही जगह जहाँ रात को खाना भी खुद ही बनाने में होट-ल वाले भले युवक के परिवार का सक्रिय सहयोगी बनना पड़ता था .इतनी दफे गंगोत्री गया हर्षिल गया दो बार आगे गोमुख और तपोवन तक गया पर हर्षिल इ थोड़ा ही पहले पड़ते इस जगह पर नजर ही नहीं जाती थी.सच ही तो है जीवन में कई बड़ी दूर की आसन्न खुशियों और चीजों के फेर में हम छोटी और पास की चीजों को कैसे अनदेखा कर देते हैं अनजाने ही ...(क्रमशः)



हर्षिल डायरी - 2

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गतांक से आगे 
...सुकी गाँव में दिल्ली वाले नेटवर्क को समस्या हो रही थी लेकिन बीती शाम में ही ऋचा के सलाह अनुसार होटल वाले के फ़ोन में मैंने देहरादून में ऋचा के पिता जी को अपनी लोकेशन और गाड़ी की स्थिति बता दी थी. पहले तो उन्होंने जोर का ठहाका लगाया कि हमलोग जाकर एक जगह फंस गए हैं लेकिन ठीक हैं. मामला यह था था कि मैंने चंबा से आगे आते समय उनको फ़ोन करके खूब चिढ़ाया था कि आप देहरादून ही रह गए और देखिए हमने बिना प्लान के गंगोत्री तक का रास्ता नापने निकल गए और उसी बातचीत में ऋचा के पापा ने कहा आज रात आप उत्तरकाशी रुकोगे तो सुबह हमलोग आपको पीछे से ज्वाइन कर लेंगे, लेकिन मैंने कहाँ अजी आज की रात तो हर्षिल ही रुकेगी यह गाड़ी और संयोग देखिए न उत्तरकाशी ना हर्षिल गाड़ी सुकी गाँव के पास सुस्ती में आई और शायद विधाता ने यही मिलने का करार तय किया हुआ था. शायद इसे ही कहते हैं अपना चेता होत नहीं प्रभु चेता तत्काल. अब सुकी की रात भी गज़ब बीती. ऋचा के पापा भी देहरादून से सुबह दास बजे के करीब सुकी आ गए और नीचे उत्तरकाशी में एक मिस्त्री को बोल आए थे. एक और कमाल बात थी कि बाहर के नम्बर की ख़राब कार को देखते हुए तक़रीबन हर दूसरे सवारी कार वाले ने उत्तरकाशी में किसी न किसी मिस्त्री को हमारे होटल वाले का नम्बर दे दिया था ताकि उसके हिसाब से बात करके वह सुकी आकर कैम्प के पास खड़ी दिल्ली नम्बर की गाड़ी की मरम्मत कर जाए. देर शाम तक एक मिस्त्री अपनी गाड़ी से सुकी आया और हमारी कार की मरम्मत में जुट गया. मैकेनिक कितना दक्ष था यह तो मालूम नहीं पर उसके उत्साह और गाड़ी के डिजाईन को देखते हुए सलाम करने का जी कर रहा था. उसकी कार थी तो स्विफ्ट लेकिन दशहरे की झांकी सरीखी बनी ठनी थी. खैर! 4 से 5 घन्टे की मेहनत और चांदनी रात में सामने वाले पर्वत से बारीक़ से वृहतर होते चांदनी को पसरते देखना एक अलग ही अनुभव ही था. उस दृश्य को बयान करना मुश्किल है जब एकाएक उजाला बढ़ते बढ़ते सामने वाले पर्वत की नोक से एक नगीने की तरह क्षण पर टिका फिर मुकुट की तरह बढ़ा और समूचे वैली और हमारी पीठ की ओर वाले पहाड़ की तीखी ढलान पर सेब के खेतों में भीतर तक छा गया. कार अब ठीक थी, लेकिन जिस रास्ते पर हमें आगे जाना था, उस लिहाज से इस मिस्त्री पर मेरा भरोसा पता नहीं क्यूँ टिक नहीं रहा था. जोगिन्दर की भी यही राय थी, तिस पर सत्रह सौ के वाटर पम्प के साढ़े पाँच हजार चुकाने के बाद मिस्त्री का उदार होकर दिखाना कि 'वह तो भला हो जो मैं ही था अन्यथा कोई और होता तो शायद ही इतने में करता', मूड को थोड़ा ख़राब कर ही गया था लेकिन मन के एक कोने में यह बात संतोष के साथ साँसे ले रही थी कि कल की सुबह हर्षिल में बीतेगी. अफ़सोस इस बात का भी नहीं था कि दो रातें सुकी में बीत गयीं वह भी किसी और वजह से.
जाना पहाड़ी विल्सन राजा के घर हर्षिल में
हर्षिल के पास है मुखबा गाँव. सर्दियों में गंगोत्री धाम की डोली की यहीं पर पूजा अर्चना की जाती है. हर्षिल सेना के दो रेजिमेंट्स के बीच में भागीरथी के सुरम्य तट पर बसा एक बेहद खूबसूरत गाँव है. इसकी ऊँचाई 2500 मी. है और यहाँ के रसीले सेब नीचे खूब मशहूर हैं. कहते हैं इस इलाके में सेबों की फसल से पहला परिचय अंग्रेज फ्रेडरिक विल्सन ने कराया था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग पहाड़ी विल्सन के नाम से पुकारते हैं. हर्षिल आने का एक बड़ा कारण यह विल्सन भी रहा, वह अंग्रेज जिसका इस इलाके में आना, झूले वाले पुल का बनाना, स्थानीय युवती से विवाह बंधन में बंधना और फिर उस पर रोबर्ट हचिन्सन का द राजा ऑफ़ हर्षिल नाम से किताब लिखना, अपने आप में मिथकीय और जासूसी कथाओं की तरह रोमांचक है. विल्सन का पुराना कॉटेज एक दुर्घटना में जल गया था लेकिन जंगलात वालों ने उस जगह पर लगभग उसी तरह का एक कॉटेज बनवाया हुआ है जिसमें उत्तरकाशी और नीचे से आने वाले अधिकारी वगैरह ठहरते हैं. हर्षिल के पुराने निवासी कहते हैं आज जो कॉटेज आप देख रहे हैं हैं वह तो कुछ भी नहीं जो विल्सन के समय की थी. वैसे भी हर पुरानी चीज जो केवल कथाओं में बाख गई हो अपने किस्सों में बड़ा आकार ले ही लेती है. संभव है विल्सन के कॉटेज के साथ ही यह रहा हो. अलबता, कहने को हर्षिल की ख़ूबसूरती ने राजकपूर सरीखे फिल्मकार को अपनी ओर आकर्षित किया और गंगोत्री धाम जाने वालों तीर्थयात्रियों को भी पर कायदे से इस हर्षिल गाँव को देखने के लिए एक दिन भी पूरा है और महसूसने के लिए हफ्ता भी कम है. हर्षिल महसूसने की जगह है. यहाँ की सुबह-दोपहर-शाम तय कीजिए
अहले सुबह की चाय के बाद भागीरथी के फैलाव के साथ किनारे-किनारे दूर तक ढलानों पर तने खड़े खुशबूदार देवदार से बतियाते और उनको अपने नथुनों में भरते जाईये और लौटते हुए मुख्य सड़क पर किसी छोटी धुएं की काली पड़ी दीवारों वाली टपरी के बाहर ताज़ी उतर रही धूप में खड़े चम्मच की दालचीनी अदरक वाली चाय को बंद बटर और ऑमलेट के साथ सुबह का नाश्ता करते हुए अपने कॉटेज लौट आइए. हर्षिल के मुख्य बजर से एक पतली से गली हर्षिल के डाकघर तक जाती है. कहने को यह डाकघर के नाम पर पुरानेपन का एकमात्र ढांचा भर है पर सिनेमाप्रेमी खासकर 'राम तेरी गंगा मैली'वाले इस डाकघर के पास अपनी तस्वीर खिंचवाने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि समय और बाज़ार ने जब जीवन में, प्रकृति में हर ओर एक तरह की तब्दीली कर दी है, वैसे में यह डाकघर समय के उसी बिंदु पर वैसे ही अक्षुण्ण खड़ा है जैसा कि राजकपूर ने अस्सी के दशक में सिनेमा बनाते हुए छोड़ा था. डाक विभाग को भी मोबाइल के ज़माने में बहुत जल्दी नहीं है इस चालू डाकघर को बदलने की और शायद इस छोटे और समय के एक बिंदु पर ठहरे हुए इस एकमात्र दृश्य को उस चाय की दुकान के बाहर के पटरे पर बैठे घंटों ताका जा सकता है क्योंकि कुछ चीजें ठहरी हुई अधिक सुंदर लगती हैं. अब बेशक चिट्ठियाँ बहुत नहीं आती-जाती पर सुदूर इलाके में इसके खम्भे पर टिक्के लेटरबॉक्स का मुँह  मुस्कुराते हुए खुला रहता है, राजकपूर की नायिका ने इसी के पास डाकबाबू को दिक् किया था - 'पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है डाक बाबू, आने वाले पहले आ जाते हैं और उनके आने की खबर देने वाली चिट्ठियाँ बाद में'. यह हर्षिल का वही सुंदर डाकघर है जो व्यक्तिगत तौर पर मुझे और ऋचा को बेहद पसंद है.
हर्षिल की दुपहरी बाजार से बाहर रेजिमेंट एरिया से निकल पर विल्सन के कॉटेज के पीछे बहते पहाड़ी झरने को पार करके उस गाँव की जाने का समय है जहाँ स्थानीय बुनकर ऊनी दस्ताने, स्वेटर, बंडी, मोज़े, मफलर, टोपी, अचार, मुरब्बे आदि बनाकर बेचते हैं. यह सब हर्षिल के स्थानीय बाजार के अलावा बाहर भी भेजी जाती हैं. मेरे लिए इस इलाके का सबसे सुन्दर समय अक्टूबर तय है क्योंकि ठण्ड की बहुतायत न होने की वजह से सफ़ेद धूप खिलती मिलती है, आसपास सस्ते सेब खूब मिलते हैं और रास्ते खुले होने की वजह से आप उन जगहों पर आसानी से घूम आते हैं जो सामान्यत: बर्फ के मौसम में आप नहीं देख सकते. वैसे भी पहाड़ों में बर्फ एक किस्म का रंग भर देती है और आप उसके परे जाकर उस इलाके की वास्तविक ख़ूबसूरती नहीं देख पाते हैं. हर्षिल में भी खूब बर्फ़बारी होती है लेकिन हर्षिल के रंग अक्टूबर-नवंबर में ही अधिक चटख दिखेंगे और जो रंगों का वैविध्य लिए होते हैं. दोपहर की गढ़वाली कढ़ी, चावल के भोजन के बाद, शाम दूसरी दुनिया में ले जाती है. वैसे जिन महानुभावों को माँसाहार और मदिरा का शौक हो उनके लिए भी हर्षिल मुफीद जगह है क्योंकि गंगोत्री से छह कोस से अधिक की दूरी और दो रेजिमेंट्स के बीच बसे होने की खासियत ने कुछ सहूलियत यहाँ प्रदान कर रखी है. हर्षिल वैसे भी आपको बहुत कुछ एडवेंचर्स के लिए आमंत्रित नहीं करती बल्कि वह आपको अपने भीतर की कृत्रिमता से बाहर खींच लेती है जहाँ आपके शहर का जंग लगा इंसान झटके से नया हो उठता है. हमलोगों के लिए वही तो स्थिति थी. यहाँ विज्ञापनों वाली पर्वतीय दुनिया से अलग करने-महसूसने को बहुत कुछ न होने की स्थिति में भी वह क्या है जो हर्षिल के लिए अपना प्यार और दैवीय आकर्षण बनाये रखा है. उस शाम मुख्य सड़क से टहल कर आते भागीरथी के पुल के ऊपर सनसन बहती बर्फीली हवा और नदी के शोर से अधिक उस पुल पर बंधे कपड़ों के तिकोनों की फरफराहट के बीच जोगी रुक कर बोला 'सर यहाँ न माल रोड जैसी चहलकदमी है, न बिजली लट्टुओं की जगमग, न बहुत सुविधाएँ लेकिन कुछ ऐसा है, जिसे मैं हमेशा यहाँ आकर जीना चाहूँगा और शायद यही वह 'कुछ'रहा जिसके लिए सुकी में दो रातें खराब कार के ठीक होने की उम्मीद में टिके होने के बावजूद हमें हर्षिल ले आया.
हर्षिल का राजा - फ्रेडरिक 'पहाड़ी'विल्सन - किस्सा अनूठा उर्फ़ जितने मुँह उतनी बातें
हालाँकि फ्रेडरिक 'पहाड़ी'विल्सन को पहाड़ी विल्सन का पुकार नाम उसके इस इलाके के प्रति प्यार की वजह से मिला है और यह ऐतिहासिक रूप से इस इलाके में आया सच्चा किरदार है लेकिन राबर्ट हचिसन ने लिखा है कि यदि आप इस इलाके में विल्सन की कथा सुनने निकलते हैं तो सबसे बड़ी समस्या यह है कि छह लोगों के पास छह किस्म की कहानी है लेकिन उनमें किंचित समानता होते हुए भी पर्याप्त भेद भी है. पर यह ज्ञात तथ्य है कि उसकी दो पत्नियाँ थी जो पास के ही पड़ोसी गाँव मुखबा की थीं. पहली रैमत्ता से कोई संतान न होने की स्थिति में उसने सुगरामी(गुलाबी) से विवाह किया और जिससे उसके तीन बेटे - नथनिअल, चार्ल्स और हेनरी हुए. हर्षिल और मुखबा के स्थानीय नागरिक उन्हें स्थानीय उच्चारण के हिसाब से नाथू, चार्ली साहिब और इंद्री कहा करते थे. हर्षिल में विल्सन की आमद कैसे हुई थी यह बाद बहुत स्पष्ट नहीं है. कोई कहता अंग्रेजों की पलटन का निकाला हुआ सिपाही या अधिकारी था तो कोई किसी और कथा का आधार देता. मसलन, वह योर्कशायर के मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता था और अपने को व्यापारी, फोरेस्टर या कॉन्ट्रेक्टर कहा करता लेकिन इतना जरुर है कि इधर के इलाके में सेब कीई खेती और झूला पुल बनाने की कारीगरी विल्सन की प्रसिद्धि का बड़ा कारण रही है. विल्सन ने गंगोत्री और हर्षिल के बीच भैरोघाटी के पास एक संस्पेंशन ब्रिज का निर्माण किया था, जिसपर से आरपार जाने में स्थानीय नागरिकों की आनाकानी और अविश्वास को देखते हुए उसने अपने घोड़े पर चढ़कर इस पार से उसपार जाकर जनता में वह विश्वास बहल किया कि इस झूला पुल से घाटी और नदी के प्रबल और भयावह प्रवाह को पार किया जा सकता है. उस रात की डिनर के समय मेरे, ऋचा, पीकू, ऋचा के मम्मी-पापा ने विल्सन के बारे जानने का मन बनाया और रात के लिए गर्म पानी पहुँचाने आए मध्यवर्गीय उम्र वाले वेटर से जब मैंने यह सवाल किया कि पहाड़ी विल्सन के बारे में कुछ बताओ? उसने फ़िल्मी रहस्य ओढने के बाद मुझी से पूछा - 'आप कैसे जानते हो पहाड़ी राजा विल्सन के बारे में ?  रात में उसके बारे में बार नहीं करना, वह आज भी हर चांदनी रात को अपने घोड़े पर बैठकर रस्सी के झूले वाले पुल से गुजरता है. हर्षिल और मुखबा के अनेक ग्रामीणों ने उसके घोड़े की टापों की आवाज़ देर रात गए सुनी है. वह आज भी इन्हीं पहाड़ों में घूमता है.'- मुझे उसके बताने के तरीके में मजा आ रहा था और वह वेटर अपनी पूरी शक्ति से हमें डराने में लगा हुआ था. विल्सन की कथा हर्षिल के शानदार यादों में से है. एक तो इस किस्से को इस इलाके के लगभग सभी ट्रेवेलर्स ने कमोबेश पढ़ रखा है दूसरे एक दूर दराज के अंग्रेज के स्थानीय महिलाओं से विवाह स्थिर कर ताउम्र यहीं ठहर जाने की प्यारी-सी कथा का सुयोग जो इसमें ठहरा है, जहाँ वह विल्सन से स्थानीय 'हुल्सेन साहिब'बन गया था. गढ़वाल के इस हिस्से में यह अंग्रेज साहिब संभवतः रुडयार्ड किपलिंग के उस कथा 'द मैन हु वुड बी किंग'का आधार बना था, यह मैं नहीं कहता, हचिसन साहिब का कहना है. पर यह तो तय जानिए कि ब्रिटिश आर्मी का एक युवा अधिकारी पहले अफगान युद्ध से लौटकर हिमालय के इस इलाके में आता है और इस इलाके में एक बदलाव की जमीन तैयार करता हुआ किंवदंती बन जाता है. मैं सपरिवार और अपने पहले स्टूडेंट जोगी के साथ हर्षिल बार-बार लौटने की भूमिका रचता हुआ नीचे उतरता हूँ. एक डोर-सी बंधी है मेरे और गढ़वाल के बीच जो दिल्ली रहकर भी लौटा लाने को आतुर है हमेशा. पंच केदार की जमीन हो कि गंगोत्री-गोमुख-तपोवन. हर्षिल वाकई यात्रा का अंत नहीं बल्कि शेष है जो कई दफे भी उस 'शेष'को बचा ही रखती है. सम्पूर्णता वैसे भी मृत्यु है और हर्षिल तो जीवन ही जीवन उसका शेष होना श्रेयस है. यात्रा का दुर्गम हर्षिल में इतना रमणीय हो जाता है कि फिर-फिर लौटने की प्रबल उत्कंठा उस दुर्गम के सुगम मान लेती है. चीला वाली टपरी पर खिर्सू सुनकर हंसने वाले फिर गंगोत्री जाना समझ उस पंडित जी ने किसी दैवयोग से ही कहा होगा - शुभास्तु पंथान: और देखिए वही रहा.                              
                       

स्क्रीन पर दर्दीली कविता की उपस्थिति : म्यूजिक टीचर

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स्क्रीन पर दर्दीली कविता की उपस्थिति : म्यूजिक टीचर
लेखिका और कवयित्री अनामिका अपने उपन्यास 'लालटेन बाज़ार'में लिखती हैं "संबंधों की इतिश्री की बात करते हो? प्रेम कोई नाटक नहीं जिसका परदा अचानक गिरा दिया जाए. ईश्वर की तरह प्रेम भी अनादि, अनंत है और इसलिए पूज्य भी. प्रेम का उपहास करने वाले मानवता का अपमान करते हैं और प्रकारांतर में ईश्वर का."नेटफ्लिक्स रिलीज 'म्यूजिक टीचर'इसी तरह के भावबोध का संसार रचती है. एक छोटे शहर का संगीत शिक्षक बेनीमाधव (मानव कौल) अपने भीतर एक पीड़ा, एक तरह का अफ़सोस, एक वियोग लिए, अपने भीतर एक एकांत लिए एक आसन्न की प्रतीक्षा में है. वह जो कभी उसका था, वह जो उसका हो न सका, वह जो अब उसके शहर आना है, उससे मिले भी या न मिले. क्या उसे मिलकर अपनी उस शिष्या, प्रेयसी जिसको उसने बड़े लाड़, प्रेम और फटकार से तैयार किया था. वह अपनी ज्योत्स्ना (अमृता बागची) जो अब बड़ी गायिका हो चुकी है से मिलना भी चाहता है और उसके उस सवाल का अब उत्तर दे देना चाहता है कि हाँ वह उसी पुल के ऊपर देवदारों की छाँव में उसका घंटों इंतज़ार करता है, जहाँ उसने ज्योत्स्ना के उस प्रश्न का सीधा जवाब नहीं दिया था कि हाँ! मैं तुमसे प्रेम करता हूँ. क्या वाकई प्रेम इतना सपाटबयानी में अभिव्यक्त हो सकता है? क्या हमेशा से पुरुषों ने स्त्री के इस उत्तर का कि 'देव कल हमारा फैसला होना है, मैं तुम्हारा निर्णय जानना चाहती हूँ. तुम्हारा निर्णय क्या है देव'और देवदासों ने अधिकतर वही उत्तर दिया 'रात बहुत हो चुकी है, कोई देख लेगा, तुम चली जाओ'. म्यूजिक टीचर बेनी माधव के उत्तर ना दे सकने की स्थितियाँ इससे इतर नहीं हैं. ज्योत्स्ना बेनी से कहती है 'आपकी हाँ मेरे माँ बाबा को ना कहने की हिम्मत दे देगी.'वह हाँ, न पारो को मिला, न ज्योत्स्ना को. यही वजह है कि भरे मन से ज्योत्स्ना के चले जाने के बाद एक शाश्वत पीड़ा बेनी का स्थायी भाव बन जाती है. यदि 'हाँ'मिल जाता तो क्या ये कथाएं इतनी ऊँचाई पर जा पाती? लेकिन यह भी सत्य है कि प्रेमियों की प्रतीक्षा में अतीव धैर्य होता है. बेनीमाधव इसका अपवाद नहीं है. मानव कौल संभवतः अब तक के अपने सर्वश्रेष्ठ किरदार में हैं. बेनी ने बस निर्णय अपने मन से नहीं लिया सो कहता भी है - 'माँ! जो कुछ भी है दे दो. मैंने कब खुद अपनी मर्जी से चुना है.'उसे जिंदगी में हर चीज परफेक्ट चाहिए थी जबकि जिंदगी कभी परफेक्ट नहीं होती. यह उस संगीत के शिक्षक के अल्फाज़ हैं जिसके लिए 'जो दिल को छू जाए वह संगीत है, उसके लिए तो संगीत कम से कम यही है'. लेकिन वह संगीत का महारथी है, अच्छा शिक्षक है पर समय आने पर उसका दिल खुद की ही नहीं सुन सका. जिंदगी परफेक्शन की नहीं अधूरेपन का महाकाव्य है और संभवतः यही अधूरापन उसके प्रति आसक्ति का सबसे बड़ा कारण है. म्यूजिक टीचर हिमालय की खूबसूरत वादियों की गहराई लिए, देवदारों के घने जंगलों में फंसीं ठहरी ठंडी धुंध, बर्फीली नदियों के अनवरत प्रवाह सरीखी खूबसूरत भावनाओं और उसकी बारीकियों की सिल्वर स्क्रीन उपस्थिति है. एक किरदार गीता (दिव्या दत्ता) का है जो जितनी देर स्क्रीन पर रहता है, दर्शक उसकी पीड़ा में एकाकार हो जाते हैं. उसका पति दिल्ली में एक और शादी करके बस गया है और पीछे उसके बीमार ससुर की देखभाल दिव्या दत्ता के जिम्मे है लेकिन इसमें उसके भीतर की बर्फीली ख़ामोशी को जिस तरह से दिव्या जीती हैं वह उनको समकालीन अभिनेत्रियों से कोसों आगे खड़ा करता है. इस किरदार के हिस्से सबसे खूबसूरत संवाद आए हैं और देवदार के घने जंगलों की सघनता और पहाड़ों की मुर्दा शांति उसके जीवन में बेतरह समायी हुई है. इस फिल्म के कुछ संवाद दर्शक को देर तक भिंगों कर रखते हैं 'रिश्ते जबरदस्ती जोड़े जा सकते हैं, दिल नहीं', 'ये जो पहाड़ है न यहाँ जितनी मर्जी रो लो, जितना मर्जी चिल्ला लो, आवाज़ वापस हम तक ही पहुँचती है', 'जीवन में अपनी मर्जी की हर चीज नहीं मिलती', 'कभी-कभी दिल की भी सुन लेते हैं, हर बात दिमाग से तय नहीं किया जाता', 'मैं अपने दोस्तों पर बोझ नहीं बनती', 'मैं सोचती हूँ जो ख्वाहिशें पूरी ही नहीं की जा सकती उनका इंतज़ार कितना मुश्किल होता होगा, लेकिन अब लगता है कि ज़िन्दगी में बा सेक ख्वाहिश रह जाए न, तो इंतजार छोड़ देना और भी मुश्किल हो जाता है.'दिव्या दत्ता जब-जब अपने संवाद लेकर आती है दर्शक उनके किरदार के प्रेम में डूबता चला जाता है. म्यूजिक टीचर हृदय का पाठ है, बुद्धि का नहीं. दिव्या इस फिल्म के जिस भी फ्रेम में आई हैं, अपने हिस्से का दर्शकीय प्यार टोकरी भर ले जाती हैं. वह और मानव कौल मिलकर इंतज़ार को भी खूबसूरत बना देते हैं. कभी-कभी लगता है सीनियर एक्टर्स दिनों-दिन इमरौती होते जा रहे है नीना गुप्ता का किरदार इसकी पुष्टि करता है. बहन 'उर्मी'के रोल में निहारिका लयरा दत्त प्रभावित करती हैं. निर्देशक सार्थक दासगुप्ता ने इस फिल्म को लिखा भी है और गानों को रोचक कोहली ने अपने संगीत से जान दी है. फिल्म के एक गीतकार अधीश वर्मा भविष्य की उम्मीद जगाते हैं - 'एक मोड़ तू मिली जिंदगी / कुछ देर मिली फिर खो गई...टूटा तारा हूँ मैं / गिरता हूँ बेवजह / तेरे साए में मांगूँ मैं पनाह / ऐसा भी क्या हुआ ज़िन्दगी / मेरी हमसफ़र बनी / फिर हुई अज़नबी'. - यह गीत पपोन और नीति मोहन की आवाज़ में फिल्म का ओपनिंग और क्लोजिंग फ्रेम बड़े शानदार तरीके से तैयार करता है. बैकग्राउंड संगीत और कौशिक मंडल की फोटोग्राफी वर्क किस्से में बेहद खूबसूरती से उतरा है यानी जितनी प्यारी कथा उतना सुंदर फिल्मांकन. प्रेम, दर्द, विरह और पीड़ा म्यूजिक टीचर का शाश्वत और स्थायी भाव है, जहाँ ज्योत्स्ना की आवाज़ दूर तक वादियों में बेनी दा के कानों में गूंजती रहती है. इस भाव को लेखक-निर्देशक सार्थक दासगुप्ता, संवाद लेखक गौरव शर्मा, संगीतकार रोचक कोहली ने बड़े जातां से सिनेमाई कैनवास पर उतारा है. यह वाकई एक खूबसरत फिल्म नहीं बल्कि एक दर्दीली कविता है जो बड़ी देर तक आपके जेहन में समायी रहने वाली है. किरदारों के लिए जिस तरह के जीवन की रचना लेखक-निर्देशक की कल्पना की है, उसकी अनिवार्य पूर्ति कैमरा, प्रकाश, वातावरण और किशोर के गीत करते हैं. 'काँच के ख्वाबों को पलकों में लिए, फिर वही रात म्यूजिक टीचर को एक विशिष्ट ऊँचाई देती है. 'फिर वही रात है, रिमझिम गिरे सावन'जैसे पुराने गीतों का दृश्य अनुसार नूतन प्रयोग आजकल के रिमिक्स की हिंसा पैदा नहीं करता बल्कि सुकून के साथ आपको अपने साथ बहा ले जाता है. इतना ही नहीं, इसके किरदारों के हिस्से का दर्द आपका अपना बनकर साथ आता है और यही वजह है कि म्यूजिक टीचर एक ख़ास फिल्म बन जाती है. यह स्क्रीन पर प्रेम कविता की उपस्थिति है. जहाँ यह सन्देश निहित है 'चाहे जितनी जी जान लड़ा लो कोशिश कर लो ओर फिर भी जिंदगी परफेक्ट नहीं बन पाती. कभी हालात साथ नहीं देते तो कभी माँग, पर फिर भी ज़िन्दगी से कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, कभी नहीं.'वैसे भी 'गाने में एक सुर गलत लग जाए तो गाना छोड़ नहीं देते'. और हम जानते भी हैं कि 'मिलन अंत है सुखद प्रेम का और विरह है जीवन'. प्रेम का स्थायी भाव विरह. म्यूजिक टीचर देख लीजिए तब अहसास होगा कि किसी ने सच ही लिखा है 'Never underestimate the pain of a person because in all honesty everyone is struggling. just some people are better at hiding it than others.
* मुन्ना के. पाण्डेय                       
यह फिल्म समीक्षा मूलतः http://filmaniaentertainment.com/film_review.aspxके लिए लिखी गई है. 
फिल्म का टीज़र इs लिंक पर है  https://www.youtube.com/watch?v=OJ4Frv6JQtU
फिल्म netflix पर मौजूद है. 

एक थे रसूल मियाँ नाच वाले

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भिखारी ठाकुर के नाच का यह सौंवा साल है लेकिन भोजपुर अंचल के जिस कलाकार की हम बात कर रहे हैं उसी परंपरा में भिखारी ठाकुर से लगभग डेढ़ दशक पहले एक और नाच कलाकार रसूल मियाँ हुए । रसूल मियाँ गुलाम भारत में न केवल अपने समय की राजनीति को देख-समझ रहे थे बल्कि उसके खिलाफ अपने नाच और कविताई के मार्फ़त अपने तरीके से जनजागृति का काम भी कर रहे थे । रसूल मियाँ भोजपुरी के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश में गाँधी जी के समय में गिने जाएँगे लेकिन अफ़सोस उनके बारे में अभी भी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है और इस इलाके के जिन बुजुर्गों में रसूल की याद है उनके लिए रसूल नचनिए से अधिक कुछ नहीं । यह वही समाज है जिसे भिखारी ठाकुर भी नचनिया या नाच पार्टी चलाने वाले से अधिक नहीं लगते ।
रसूल मियाँ  की ओर समाज की नजर प्रसिद्ध कथाकार सुभाषचंद्र कुशवाहा जी के शोधपरक लेख से गई, जिसे उन्होंने लोकरंग-1 में प्रकाशित किया है ।  सच कहा जाए तो यह लेख संभवतः पहला ही लेख है जिसने इस गुमनाम लोक कलाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व की ओर सबका ध्यान खींचा । इस लेख में सुभाष कुशवाहा जी ने लिखा है कि ‘भोजपुरी के शेक्सपियर नाम से चर्चित भिखारी ठाकुर, नाच या नौटंकी की जिस परंपरा के लोक कलाकार थे, उस परंपरा के पिता थे रसूल मियाँ ।" रसूल के बारे में अधिक कुछ उपलब्ध नहीं है । इसलिए इस सन्दर्भ में जो कुछ सुभाषचन्द्र कुशवाहा जी ने लिखा फिलहाल वही प्रमाणिक तथ्य है और कुछ बुजुर्गों के मौखिक किस्से । बाकी एकाध लेख इधर कुछ भोजपुरी लेखकों ने रसूल पर अपने तरीके से लिखे लेकिन वह सब सुभाषचंद्र कुशवाहा जी के लेख की ही रचनात्मक पुनर्प्रस्तुति भर ही है ।
रसूल पर अपना शोध-पत्र लिखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाषचंद्र कुशवाहा कहते हैं ''मेरे पिताजी नाच देखने के शौक़ीन थे । मैंने रसूल और उनके नाच के बारे में बचपन से पिताजी कथा सुनी थी कि उन्होंने तमकुही राज (उत्तरप्रदेश और बिहार का सीमाई इलाका) में रसूल का नाच देखा था । वहाँ नाच में रसूल ने गीत गाया था “इ बुढ़िया, जहर के पुड़िया, ना माने मोर बतिया रे,अपना पिया से ठाठ उड़ावे, यार से करे बतिया रेकिसी ने रानी को यह चुगली क्र दी कि रसूल ने इस गीत में आप पर तंज कसा है । फिर क्या था रानी ने रसूल को बुलवाया और उनकी पिटाई करवा दी, जिसकी वजह से रसूल के आगे के दांत टूट गए । लेकिन बाद में शोध के क्रम में मैंने पाया कि यह मामला तमकुही नहीं बल्कि हथुआ स्टेट (महाराजा ऑफ़ हथवा) दरबार से जुड़ा हुआ था । बाद में रानी ने रसूल को खेत और कुछ और इनाम देकर सम्मानित किया । लेकिन एक जरुरी बात इसमें यह भी है कि रसूल के ऊपर कोई लिखित दस्तावेज मौजूद ना होने की वजह से मैंने जो उनके समकालीनों से सुना और जो थोड़ा बहुत मिला, उसी के आधार पर एक मौखित इतिहास को लिखित फॉर्म में सामने लाया ।"     

रसूल नाच परंपरा (भोजपुरी के लौंडा नाच परंपरा) के कलाकार थे पर अपने तत्कालीन परिवेश से पूरी तरह वाकिफ थे । इस मामले में वह अपने समय के नाच के कलाकारो से मीलों आगे ठहरते हैं -  
“छोड़ द गोरकी के अब तु खुशामी बालमा । (गोरी की खुशामद करना छोड़ दो, बलमा)
एकर कहिया ले करबs गुलामी बालमा । (इसकी कब तक करोगे गुलामी बलमा)
देसवा हमार बनल ई आ के रानी । ( हमारे देश में आकर यह रानी बनी)
करे ले हमनीं पर ई हुक्मरानी । (हमलोगों पर यह हुक्म चलाती है)
एकर छोड़ द अब दीहल सलामी बालमा । (इसकी सलामी देना छोड़ दो बलमा)
एकर कहिया ले करबs गुलामी बालमा ।” ( इसकी कब तक करोगे गुलामी बलमा)

पैदाईश का समय
रसूल मियाँ का जन्म गोपालगंज जिला के जिगना मजार टोला में गुलाम भारत में भिखारी ठाकुर से पैदाईश से चौदह-पंद्रह वर्ष पहले का है, इस हिसाब से उन का जन्म वर्ष 1872 के आस पास ठहरता है । उन्हें पारिवारिक विरासत में नाच-गाना-बजाना और राजनीतिक-सामाजिक विरासत में गुलामी का परिवेश मिला था  । रसूल मियाँ के अब्बा भी कलकत्ता छावनी (मार्कुस लाइन) में बावर्ची के काम करते थे और रसूल के लिए कलकत्ते का परिवेश जाना-पहचाना भी था । रसूल एक तरफ वह विदेशी सत्ता के खिलाफ लिख रहे थे, तो दूसरी ओर राष्ट्रप्रेम की कवितायें भी रच रहे थे । भारत-पकिस्तान के बँटवारे में जहाँ चारों ओर धार्मिक वैमनस्य और दंगों का जहर वातावरण में घुला हुआ था, वहाँ भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के पैरवीकार रसूल मियाँ ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर एक गीत लिखा और कबीर की तरह भरे समाज गाया -
‘‘सर पर चढ़ल आज़ाद गगरिया, संभल के चलऽ डगरिया ना
एक कुइंयां पर दू पनिहारन, एक ही लागल डोर
कोई खींचे हिंदुस्तान की ओर, कोई पाकिस्तान की ओर
 ...हिंदू दौड़े पुराण लेकर, मुसलमान कुरान
आपस में दूनों मिल-जुल लिहो, एके रख ईमान
सब मिलजुल के मंगल गावें, भारत की दुअरिया ना । सर पर...।
कह रसूल भारतवासी से यही बात समुझाई
भारत के कोने-कोने में तिरंगा लहराई
बाँध के मिल्लत की पगड़िया ना  । सर पर । । ।”
(सर पर आज़ादी रूपी गगरी चढ़ गई है/रस्ते पर संभल के चलो/एक कुँएं पर दो पनिहारन हैं/ और एक ही डोर लगी है/कोई हिंदुस्तान की ओर खींच रहा है/कोई पाकिस्तान की ओर/हिन्दू पुराण लेकर दौड़ रहे हैं/मुसलमान कुरान लेकर/एक ईमान रखके दोनों आपस में मिलजुलकर रहो/सब मिलजुलकर मंगल गाओ/भारतभूमि के दरवाजे पर/रसूल भारतवासियों को यही बात समझा रहे हैं/भारत के कोने कोने में तिरंगा लहराएगा/जनतंत्र की पगड़ी बाँधकर )

गाँधी, सुराज और रसूल
गाँधी का प्रभाव भारतीय जनमानस पर जादुई था  । रसूल भी इसका अपवाद नहीं थे, उनकी रचना ‘छोड़ द जमींदारी’ में गाँधीजी के स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव साफ़ दिखता है । अपने इस गीत में सामंती व्यवस्था को नसीहत देते हुए उन्होंने ‘आज़ादी’ नाटक में लिखा कि -

छोड़ द बलमुआ जमींदारी परथा ।(बालम जमींदारी प्रथा छोड़ दो)
सईंया बोअ ना कपास, हम चलाईब चरखा ।(सैयां तुम कपास बोओ, मैं चरखा चलाऊंगा)

रसूल मियाँ के नाच की इन गीतों को पढ़ते समय यह मत भूलिए कि रसूल किस समुदाय के थे और किस विधा को अपने कथ्य का माध्यम बनाकर रचना कर रहे थे । रसूल ने अपने नाच में गाँधी की हत्या का प्रसंग गया है । जहाँ रसूल ने गाँधी जी की हत्या के प्रसंग का गीत गाया है, वहाँ वह कविता के शिल्प और संवेदना के स्तर पर कई नामवर कवियों से मीलों आगे खड़े दिखते है । यह गीत उन्होंने कलकत्ता में अपने नाच के दौरान भरे गले से गाया था -

के मारल हमरा गाँधी के गोली हो, धमाधम तीन गो।(किसने मेरे गाँधी को गोली मारा, धमाधम तीन)
कल्हीये आज़ादी मिलल, आज चललऽ गोली(कल ही आज़ादी मिली, आज गोली चली)
 । । ।कहत रसूल, सूल सबका के दे के, (कहे रसूल शूल सबको देकर)
कहाँ गइले मोर अनार के कली हो, धमाधम तीन गो । । । ।”(कहाँ चले गए मेरे अनार की कली, धमाधम । । ।)

आज़ादी की लड़ाई में भोजपुरी अंचल की भूमिका बहुत सक्रिय रही है । इतिहास पुनर्लेखन की नयी प्रविधियों ने कई अज्ञात रचनाकारों और आंदोलनकर्मियों की खोजबीन की है, जिससे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की एक दूसरी सुखद तस्वीर सामने आई है । रसूल मियाँ की रचनाएँ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । आज बेशक मंदिर-मस्जिद और भारत माता के नाम पर हिन्दुओं-मुसलमानों में सिर फुटौवल हो रहा है लेकिन 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी के अवसर और बंटवारे की आग में झुलसते हिन्दू-मुसलमानों के लिए रसूल ने एकता के साथ रहने और सुराज में जुड़कर रहने का सपना देखा और गाया-
पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस के सुराज मिललऽ (पंद्रह अगस्त सन सैंतालिस को सुराज मिला)
बड़ा कठिन से ताज मिललऽ(बहुत कठिनाई से ताज मिला)
सुन ल हिंदू-मुसलमान भाई,(सुनो हिन्दू और मुसलमान भाई)
अपना देशवा के कर लऽ भलाई (अपने देश की कर लो भलाई)
तोहरे हथवा में हिन्द माता के लाज मिललऽ…”(तुम्हारे हाथ में हिन्द माता कि लाज मिली है)

नजीर अकबराबादी की परंपरा के रसूल  
रसूल अपने नाच से पहले मंगलाचरण के रूप में ‘सरस्वती वंदना’ ‘जो दिल से तेरा गुण गावे, भाव सागर के पार उपावे’भी गाते थे । उन्होंने होली, मुहर्रम त्योहारों पर भी लोकप्रसिद्ध कविताएँ लिखीं । इस लिहाज से देखें तो यह नजीर अकबराबादी की परंपरा में जुड़ते हैं । इसके अलावा उन्होंने जहाँ “ब्रह्मा के मोहलू, विष्णु के मोहलू शिव जी के भंगिया पियवलू हो, तू त पाँचों रनिया” लिखा, तो वहीं यह भी लिखा-
“ । । ।लगी आग लंका में हलचल मची थी,
विभीषण की कुटिया क्यों फिर भी बची थी,
लिखा था यही कुटिया के ऊपर,
हरिओम तत्-सत् 
हरिओम तत्-सत्”

रसूल हिन्दुओं के यहाँ शादी के अवसर पर जनवासे में एक गीत गाते थे -
“तोड़हीं राज किशोर धनुष प्रण को
 । । ।तोडूं तो कैसे तोडूं, शंकर चाप त्रिपुरारी का ।”

इन गीतों को देखें तो आश्चर्य होता है कि जनकवि और लोककलाकारों ने समाज को जोड़ने में कितनी बड़ी भूमिका निभाई है और यह पढ़ते समय मत भूलिए वह भोजपुरिया नाच वाला था, जो बिना अतिरिक्त बकैती के हमारी साझी विरासत को सामने रख रहा था । एक निवेदन भी है कि भूले से भी यह न कह बैठिएगा कि यह उसका पेशा था । वरना आप पर तरस खाने तक के भाव हमारे हिस्से न होगा ।  

रसूल मियाँ, फिल्में और चित्रगुप्त
रसूल के बारे में जो तथ्य सुभाषचंद्र कुशवाहा ने जुटाए हैं, उसके अनुसार रसूल के ही पड़ोस में ही बंबई फिल्म जगत के भोजपुरी और हिंदी फिल्मों के मशहूर संगीतकार ‘चित्रगुप्त’ का गाँव ‘सँवरेज़ी’ था । वे रसूल के नाटकों की प्रसिद्ध कथाओं को बंबई लेकर गए, जहाँ उस पर फिल्में बनीं, इनमें प्रमुख है –‘चंदा-कुदरत’पर ‘लैला-मजनू(1976)’,‘वफादार हैवान का बच्चा उर्फ़ सेठ-सेठानी पर इंसानियत(1955) और ‘गंगा नहान’ पर भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो(1961)’ बनी । इस फिल्म के संगीतकार चित्रगुप्त थे । पर इन फिल्मों से रसूल को कोई फायदा नहीं हुआ । रसूल अंसारी के प्राप्त प्रमुख नाटकों में ‘गंगा नहान’, ‘आज़ादी’, ‘वफादार हैवान का बच्चा उर्फ़ सेठ सेठानी’, ‘सती बसंती-सूरदास’, ‘गरीब की दुनिया साढ़े बावन लाख’, ‘चंदा कुदरत’, ‘बुढ़वा-बुढ़िया’, ‘शांती’, ‘भाई बिरोध’, ‘धोबिया-धोबिन’ आदि प्रमुख हैं । रसूल अंसारी की मृत्यु 1952 में किसी माह के सोमवार को हुई थी । अंदाजा तो इस बाद का भी लगाया जाता है कि रसूल के नाटकों के शीर्षक भाई विरोध, गंगा-नहान और धोबिया-धोबिन ज्यों-के-त्यों भिखारी ठाकुर के नाटकों के भी शीर्षक हैं लेकिन कथ्य के उपलब्ध न होने की वजह से यह साफ़-साफ़ नहीं कहा जा सकता कि दोनों के नाटकों के केवल शीर्षक ही मेल खाते हैं या कथ्य भी । जो भी हो निष्कर्ष मजेदार आएंगे । बस एक ही नाटक के शीर्षक का फेर हैं रसूल का 'गंगा-नहान', भिखारी के यहाँ गंगा-स्नान है । वैसे भी नाच पार्टियों का कथ्य कोई स्थिर कथ्य नहीं होता । केवल नाटकों के शीर्षक के आधार पर रसूल और भिखारी की तुलना उचित नहीं है।
यह प्रामाणिक सत्य है कि दोनों ही सट्टा लिखाकर नाच दिखाते थे। प्रसिद्ध नचनिया(नर्त्तक) के नाम पर रसूल के पास राजकुमार थे तो भिखारी ठाकुर के पास रामचंद्र। दोनों में एक बड़ी समानता अभिनय क्षमता की भी थी।दोनों ही अपने नाटकों में मुख्य भूमिका निभाते थे।भिखारी ठाकुर जहाँ ‘बिदेसिया’ में ‘बटोही’, ‘गबरघिचोर’ में ‘पञ्च’, ‘कलियुग प्रेम’ में ‘नशाखोर पति’, ‘राधेश्याम बहार’ में ‘बूढ़ी सखी’ तथा ‘बेटी वियोग’ में ‘पंडित’ की भूमिकाक निभाते थे, वहीं रसूल ‘आज़ादी’ में ‘जमींदार’, ‘गंगा नहान’ में बुढ़िया, ‘चंदा कुदरत’ में ‘शराबी’, ‘शांति’ में ‘मुनीम’, सेठ-सेठानी’ में ‘मुनीम’ धोबिया-धोबिन’ में ‘धोबी’ की भूमिका निभाते थे - सन्दर्भ : लोकरंग-1

ऐसी जनश्रुति है कि रसूल के गीतों को सुनकर अंग्रेजी सत्ता के लिए कार्यरत बिहारी सिपाहियों ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी । इस वजह से रसूल मियाँ की गिरफ़्तारी भी हुई थी । रसूल मियाँ की रचनाधर्मिता के कई आयाम हैं लेकिन मुख्य रूप से दो अधिक महत्व के हैं । पहला, जब वह अपने नाच, कलाकर्म से स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच उभर के सामने आते हैं, और दूसरा, जब वह गुलाम भारत में सामंती व्यवस्था से टकराते हैं । भोजपुरी अंचल में गंगा-जमुनी संस्कृति के कई लोग हुए पर इस संस्कृति पर सरे-बाजार नाच कर कहने वाला ऐसा कलाकार दूजा नहीं हुआ । अफ़सोस यह है कि उनको कोई महेश्वराचार्य, राहुल सांकृत्यायन, जगदीशचन्द्र माथुर नहीं मिले अन्यथा लौंडा नाच परंपरा के इस अद्भुत कलाकार की ऐतिहासिक उपस्थिति बहुत पहले हो गई होती । सुभाषचंद्र कुशवाहा ने रसूल के दो और गीतों के मिलने का दावा किया है । यद्यपि लोकसंस्कृति का इतिहास इतना क्रूर होता है कि उसका दस्तावेजी रक्षण बेहद कम होने की वजह से उनके कई धरोहर मौखिक परंपरा में गुजरते हुए समाप्त ही हो जाते हैं ।
रसूल मियाँ के अब तक जितने भी प्राप्त गीत हैं, वह नाच के मंच पर सब खेले गए गीत हैं उन्होंने साहित्य सर्जना के लिए गीत नहीं लिखे थे बल्कि अपने लौंडा नाच पार्टी के कथाओं को आगे बढाने के लिए जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए लिखा । दुर्भाग्य है कि उनको नचनिए या नाच पार्टी चलाने वाले के तौर पर याद रखा गया । रसूल के नाच और गीतों में समाज के सवाल तो हैं पर उनकी राजनीतिक समझ बेहद बारीक है और इस मामले में में वह भिखारी ठाकुर से बीस ठहरते हैं पर यहाँ सबकी किस्मत में भिखारी ठाकुर होना कहाँ लिखा होता है ।      
(नोट : इस लेख के सभी तथ्य सुभाषचंद्र कुशवाहा के शोधलेख 'क्यों गुमनाम रहे लोक कलाकार रसूल', लोकरंग - 1 से लिए गए हैं)

खाओ कसम कि अब किसी ... लाली (शॉर्ट फिल्म)

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 लहसनवाँ हीराबाई के यहाँ क्यों टिका? मालूम है? उसने हिरामन और साथियों को बताया था कि ‘हीराबाई के कपड़े धोने के बाद कठौत का पानी अतर गुलाब हो जाता है. उसमें अपनी गमछी डुबाकर छोड़ देता हूँ. लो सूँघो ना कैसी खुशबू आती है.’ – यही खुशबू तो शिवपूजन सहाय बाबू के धोबी को मिली है उसको भी एक दिन संयोग की बात ऐसी सनक सवार हुई कि वह कबूल बैठा ‘मैं उर्वशी और रंभा की साड़ियों और कुर्तियों को एकांत में सूंघ रहा था. उनकी मानसोन्मादिनी सुरभि से मस्तिष्क ऐसा आमोदपूर्ण हो गया कि  आँखों में मादकता की गहरी लाली उतर आयी.’ – शार्ट फ़िल्म “लाली” ( Laali Review ) देखते हुए हम उसके मुख्य नायक के साथ इन मानवीय भावों और उसके मनोविज्ञान को महसूसते हैं जिसे रेणु या शिवपूजन सहाय ने कभी लिखा था. इसमें अनायास ही कथानायक पंकज त्रिपाठी के एकाकी जीवन में यह भाव शामिल हो गया है, जहाँ वह लाली के लालित्य को सूँघता आत्मसात करने लगा है. यह साधारण कथा नहीं है बल्कि इसके हर फ्रेम में चिन्हशास्त्र का अद्भुत आख्यान है.  लेखक ने अपने निर्देशन में एक मुकम्मल साहित्यिक पाठ रचा है, जो शब्दों से अधिक इशारों में संवाद करती है और अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने निर्देशक की सोच को अपने अभिनय कौशल से लोक की नैसर्गिक सरसता में रूपांतरित करके साहित्यिक सिनेमाई भाषा में ढाल दिया है.

Laali Review

अभिरुप बसु लिखित निर्देशित शार्ट फ़िल्म “लाली” आधे घंटे से थोड़े ऊपर जाती है और पूरी कथा का चक्र पंकज त्रिपाठी के किरदार के आसपास चक्कर काटता है. एकावली खन्ना बेहद कम किन्तु जरूरी हिस्से के रूप में आती हैं. निर्देशक को अपनी लिखी कथा और उसके गढ़े दृश्यों में इतना भरोसा और महारत है कि उन्होंने संवाद और दृश्य भी तोल के रखे हैं, न सूत भर कम न, धेले भर ज़्यादा. हम इस फ़िल्म के फ्रेम दर फ्रेम में अभिनेता पंकज त्रिपाठी के अभिनय कौशल की मिश्री को घुलकर आबे-हयात होते देखते हैं. आपको उनका किरदार याद रहता है, उसका मायावी नाम नहीं. शुरुआत ही लंबे वन टेक शॉट के साथ होती है और आप लगातार किरदार के एक्शन्स में खुद भी किस्से के बहाव को तलाशने लगते हैं. किस्सा क्या है – ऊपरी तौर पर बस एक अकेला शख्स, एक जनाना ड्रेस और उसके साथ उस आदमी का जिया गया चंद पहरों में कुछ क्षण. जिनमें वह किरदार है और उस लाली की मधुर स्मृतियाँ, एक बिम्ब, जिसमें उसका, उससे यूँ ही मन का करार था.

बिहार के भोजपुरी इलाकों से कलकत्ते की ओर गए बिदेसियों की एक आधी हकीकत और आधे फसाने की ज़िंदगी का एक सच यह भी रहा है- एककी जीवन में एक लाली का स्वप्न. धर्मतल्ला के आसपास पतुरिया का नाच देख नौजवान बिदेसिया के पास बर बुता जाने को क्या था – देह! उढ़रिया ऐसे ही तो शामिल हुई उसके खालीपन में. और लेखक अभिरुप कलकत्ते की जमीन पर उगे इस दृश्य के एक हिस्से से अपने कथानायक का एकांत और उसकी जिंदगी के एकरसता को चुनते हैं. पंकज त्रिपाठी के लिए कहा जाए तो यह अतिशयोक्ति न होगी कि लाली का यह अभिनेता कोई और ही है, जिससे अपने सिनेजगत का परिचय न था. रेडियो में बेचैन मन का सुकून तलाशते ‘चैन आये मेरे दिल को दुआ कीजिए’ वाला किरदार, एक कमरे और चंद फ्रेम की ज़िंदगी में एक पोस्टर की कोमल कल्पना के साथ उस ड्रेस को शामिल कर दर्शकों को यह बताने में सफल होता है कि हम सब अपने साथ कुछ आद्य स्मृतियाँ रखते हैं और उनके सहारे एक स्वप्न देखते हैं और जीवन कट जाता है. प्रकाश, लेंस, संगीत और सबसे प्रभावी पंकज त्रिपाठी का अभिनय एकाएक मणिकौल के ‘उसकी रोटी’ जैसा प्रभाव पैदा करने लगता है. हालांकि तुलना असंगत है और अभिरुप को अभी अपने को भी सिद्ध करना बाकी है लेकिन वह खालीपन जो सुच्चा की बीवी के हिस्से के इंतज़ार में दिखता था, उसका सबसे जटिलतम और महीन विन्यास पंकज त्रिपाठी के अभिनय में लाली में उभरता है. खासकर उस किरदार के सपने के टूटने और उन चंद घड़ियों की लाली के टूट जाने के क्रम में जब पंकज त्रिपाठी हारकर थसमसा कर बैठते हैं तो लगता है गोया वाकई जीवन का एक हिस्सा ही खत्म हो गया. रेत आखिर कब तक मुट्ठी में ठहरती. मारे गए गुलफाम के किस्से से गुजरते वह बात जेहन में उभरती है “भूख वही अच्छी जो पूरी हो, प्यास वही अच्छा जो मिट सके, प्यार वही अच्छा जहाँ जुनून हो, प्रेमी वही अच्छा जो जोगी हो और कथा वही अच्छी जो अधूरी हो.” वैसे एक बार  जो मन को भा गया , वो तन से साथ न हो, मन में हमेशा रहता है…पूरी तरह से…लेकिन एकाकी और खुद में घुलता. और फिर लाली का कथा नायक तो आईने में झलके अक्स को अपना समझ बैठा है. सो लाली को जाना ही था. यह काव्यात्मक शार्ट फ़िल्म है इसमें उदासी का काफ्काई इफेक्ट है और भावनाओं का ओ हेनरी सिग्नेचर भी.

इस एक मेटाफर को अभिरुप ने बड़ी कमाल और नफासत से रचा है और पंकज त्रिपाठी ने इसे बड़ी खूबसूरती से मूर्त किया है. आखिर गुलफाम के मारे जाने की पीड़ा उनके अध्ययनशील अभिनेता मन ने महसूसा है. ‘मन मतवाला, भोला भाला, भूला जग की रीत . प्रीत की रीत में ऐसा डूबा, प्रीत मिली ना मीत.’…पोस्टर पर गोपालगंज वाली लाली धीरे से अपने नायक को कहती लगती है ‘तुम्हारा जी छोटा हो गया है. है ना मीता? तुम्हारी महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद लिया….’ पर  फिर पंकज त्रिपाठी का किरदार सुन कहाँ रहा है –

‘जो ग़मे हबीब से दूर थे वो खुद आग में जल गए/

जो ग़मे हबीब को पा गए वो ग़मों को हँसके निकल गए.”

लाली धीमे स्वर में बतियाती कविता की तरह का आख्यान है. इसका कथानायक करे क्या! उसके जीवन में एक बिजली की कौंध सुख की, कामना की, एक हल्की रूमानी मादकता साया हुई और तुरंत फना भी. लाली अपने कथा ट्रीटमेंट से मुस्कुराने पर मजबूर करती है. यह देखने लायक जरुरी शार्ट फ़िल्म है. अभिरुप बसु भविष्य की बड़ी उम्मीद जगाते हैं और पंकज त्रिपाठी का यह अनजाना, अनचीन्हा अभिनय है, जिसे अब तक देखा नहीं गया है. एक अभिनेता के लिए लाली का टेक्स्ट और ट्रीटमेंट एक परीक्षा है, पंकज त्रिपाठी ने इसे निभाया भी उसी तरह है. लाली का अंतिम दृश्य हिरामन की कसम की तरह जान पड़ता है. पर किरदार का भाव और प्रसाद की उन काव्य पंक्तियों की तरह है ‘मिला कहाँ वह सुख, जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया, आलिंगन में आते आते मुस्कयाकर जो भाग गया.’ – जब पंकज त्रिपाठी का किरदार गोधूलि के सूर्य सा काउंटर पर दूल्हे की शेरवानी डाले बैठा है. रेत घड़ी ने कहीं सारा रेत उलट कर समय घड़ी को उस पल में रोक दिया है और उसी समय कहीं किसी जगह एक हिरामन बैलों को डपटते हुए कह रहा है – ‘उलट उलट कर क्या देखते हो ? खाओ कसम की अब किसी…और तभी एक बारात सामने से गुजर जाती है. यह दर्शन मन कहाँ समझता है कि सवारी तो अपने मंजिल पर गयी, इसमें उदास होने की क्या बात है. पर मन…मन तो समझते हैं ना आप?

यह पंकज त्रिपाठी के प्रशंसकों के लिए उनके अभिनय का जादुई सरप्राइज है और लेखक निर्देशक अभिरुप बसु के साहित्यिक सिनेमाई सूझ और कौशल का प्रमाण.

-Munna K Pandey

https://www.filmaniaentertainment.com/laali-review-khao-kasam-ki-ab-kisi/

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भोजपुरी के पहले ऑर्केस्ट्रा बैंड वाले 'मोहम्मद खलील'

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वह साठ के आसपास का समय रहा होगा जब भोजपुरी के रत्न गीतकार भोलानाथ गहमरी के लिखे गीत के शब्द "कवने खोंतवा में लुकईलू आई हो बालम चिरई"और देवेंद्र चंचल के लिखे "छलकल गगरिया मोर निरमोहिया, ढलकल गगरिया मोर"- की टांस भोजपुरिया अंचल में गूँजी और घर-घर में, गले-गले में बस गयी। मोतिहारी के भवानीपुर जिरात मोहल्ला के रहने वाले भारतीय रेलवे के एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी मोहम्मद खलील का तबादला बलिया से इलाहाबाद हुआ। फिर इलाहाबाद वह जमीन बना जहाँ उनकी गायकी के शौक ने भोजपुरी के पहले बैंड या यूँ कहिए कि ऑर्केस्ट्रा बैंड "झंकार पार्टी"को मजबूती से स्थापित किया, जिसके नींव बलिया की जमीन में डाली गयी थी। नबीन चंद्रकला कुमार ने इस झंकार पार्टी को भोजपुरी का पहला ऑर्केस्ट्रा बैंड बताते हुए लिखा कि "आज के दौर में जब भोजपुरी इलाके में ऑर्केस्ट्रा संस्कृति का मतलब एक खास तरह के नाच-गान रह गया है वहाँ मोहम्मद खलील का ऑर्केस्ट्रा इस अंचल की सबसे सार्थक सांगीतिक पहचान रहा है।"सीताराम चतुर्वेदी के गीत "छलकत गगरिया मोर निरमोहिया"और "अजब सनेहिया बा तोर निरमोहिया"गाकर मोहम्मद खलील ने भोजपुरी गायकी में वह स्थान और कद पाया, जहाँ से यह पैमाइश की जाने लगी कि यह खलील की गायकी के पासंग है या नहीं। जिस वक़्त भोजपुरी नित नए गायकों के अलबमों की बाढ़ टी-सीरीज जैसे बड़े कंपनियों और चंदा, नीलम जैसे स्थानीय कैसेट कंपनियों से आ रही थी, उस दौर में भी खलील के गायन के स्तर का कोई गायक न हुआ। मोहम्मद खलील की गायन प्रतिभा के लिए भोजपुरी के शिखर साहित्यत्कार कैलाश गौतम ने कहा था 'अब गीत तो हैं पर मोहम्मद खलील के अंदाज़ में टेर लगाने वाला कोई गायक नहीं है। खलील के गीत में आकर्षण ही आकर्षण है। थथमल मीठी आवाज़, अद्भुत संतुलन, खलील का अंदाज़ और गीतों का नयापन, यही था खलील के घर-घर पहुँचने का कारण। अब तो पता नहीं वैसे गीत लिखे जा रहे हैं कि नहीं, आगे खलील जैसे गायक होंगे या नहीं।"- वाकई नब्बे के शुरू में मधुमेह से ग्रस्त मात्र पचपन साल की उम्र में 1991 में जैसे ही मोहम्मद खलील इस दुनिया से रुखसत होते हैं, भोजपुरी गायकी एक अँधेरे कुँए में उतरती है और भोजपुरी को नोच खाने वाले गायकों की बाढ सी आती है पर खलील तक पहुँचने की कुव्वत किसी में नहीं होती। क्षणिक लोकप्रियता और अदूरदर्शिता ने भोजपुरी गायकी में एक शून्य पैदा किया, जिसकी भरपाई करने की कोशिश किसी की नहीं रही। बाद के गायकों ने कोशिश की लेकिन बाजार कहिए कि अधैर्यता कोई उस पैमाने पर खरा न उतरा। गले में शास्त्रीयता ला सकते हैं सुरीलापन ला सकते हैं, मुरकियाँ लगा सकते है, ऊँची तान मार सकते हैं पर मोहम्मद खलील के गाये गीतों की साहित्यिकता, गले की टांसदार, संतुलित आवाज़ और लोक का स्वच्छंद उल्लास कहाँ से लाते। वह मोहम्मद खलील के गायकी में थी, शायद यहीं वजह  जो उन्हें दूसरों से खास बनाती थी। सरस्वती का उनके गले ही नहीं चित्त में भी वास था। आज खलील होते तो पटेया नहीं किस पाले में जबरिया धकेले जाते लेकिन जब तक उनकी गायकी और झंकार पार्टी सलामत रही, गायकी की शुरुआत सरस्वती वंदना और देवी गीत ही गाया जाता था। "बिनइले सारदा भवानी, पत राखीं महारानी"और "माई मोरा गितिया में अस रस भरि दे, जगवा के झूमे जवानी" - भोजपुरी जगत में सरस्वती वंदना के शास्त्रीय मंत्र के सामने लोक की सीधी उपस्थिति है। मोहम्मद खलील को इलाहाबाद में चंदर परदेसी(हारमोनियम), इकबाल अहमद (वायलिन), हजारीलाल चौहान (बाँसुरी) और  मो. इब्राहिम (ढोलक) पर  संगत में मिले और महेंद्र मिश्र, श्रीधर शास्त्री, उमाकांत मालवीय, भोलानाथ गहमरी, राहगीर बनारसी, युक्तिभद्र दीक्षित, मोती बी.ए., बेकल उत्साही, पंडित हरिराम द्विवेदी जैसे गीतकारों के शब्दों को अपने गले में बिठाकर मोहम्मद खलील ने भोजपुरी गायकी में अपनी प्रतिभा का डंका पीट दिया। बाद के समय तो भोलानाथ गहमरी और मोहम्मद खलील का साथ एक दूसरे से ऐसे जुड़ा गोया सुर और ताल एकसम हो गए। मोहम्मद खलील ने भोजपुरी के हर मिज़ाज़ के गीत गए और एक से बढ़कर एक गाये। उनके कुछ बेहद चर्चित गीतों में "प्रीति करीं अइसे जईसे कटहर के लासा"/"गोरी झुकी झुकी काटेली धान, खेतिया भईल भगवान"/"सावन है सखी सावन"/"छिंटिया पहिर गोरी बिटिया हो गईली"/"लेले अईहा बालम बजरिया से चुनरिया"/"लाली लाली बिंदिया"/"प्रीति में ना धोखाधड़ी, प्यार में ना झांसा"/ "अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया हो"- प्रमुख हैं। मोहम्मद खलील के गाए गीतों ने आगे आने वाले कई गीतकारों को न केवल तुकबंदी करने, शब्दों के मेल बिठाने की अक्ल दी बल्कि संगीतकारों को भोजपुरी संगीत की एक तमीज़ सिखाई। मो. खलील ऑल इंडिया रेडियो और बाद के सालों में दूरदर्शन पर भोजपुरी गायकी की अनिवार्य उपस्थिति हो गए थे। पर एस डी ओझा एक अफसोस के साथ लिखते हैं - "जिसने भोजपुरी की नई राह रची, उसके रिकॉर्ड बाज़ार में नहीं हैं। रेडियो स्टेशनों या दूरदर्शन में हो तो हों।"एक पूरी पीढ़ी जिस गायक को सुन सुन रीझती रही उसके रिकॉर्ड उपलब्ध ना होना, भोजपुरी सांगीतिक परम्परा की सबसे बड़ा दुर्भाग्य है पर भोजपुरी के साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को सहेजने वाले ऑनलाइन पोर्टल आखर ने अपने प्लेटफॉर्म पर उनके गीत, उन्हीं की आवाज़ में ही संग्रहित किए हैं। हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद साहब मोहम्मद खलील की इस प्रतिभा के मुरीद थे।  दयानंद पांडेय मोहम्मद खलील पर लिखे अपने एक लेख में दर्ज करते हैं कि "नौशाद उन्हें मुम्बई लेकर आए तो वह अपने साथ परंपरागत साज़ों के साथ ही पहुँचे। नौशाद जब उनको गायकी में तब्दील करने को कहते तो एक दिन आज़ीज़ आकर नौशाद से उन्होंने हाथ जोड़कर कहा - 'नौशाद साहब जरूरत पड़ी तो मैं भोजपुरी के लिए खुद को बेच दूँगा पर अपनी कमाई के लिए भोजपुरी को नहीं बेचूँगा।'और वह चुपचाप अपनी टीम लेकर वापस इलाहाबाद लौट आए।"- भोजपुरी का आज का अधिकतर सांगीतिक परिदृश्य जहाँ फूहड़ शब्द, गायकी और दृश्य के षड्यंत्रों में डूबा हुआ है, वहाँ भोजपुरिये गर्व से सीना ताने कह सकते हैं कि एक दौर वह रहा है, जब हमारे मोहम्मद खलील भी हुए थे, जिसने रेलवे की नौकरी की और भोजपुरी की सेवा। वह दौर था जब भोजपुरी गायकी में द्विअर्थी गीत, ऑकवर्डनेस नहीं, उसका खालिस सौंदर्य था।  जिसमें ऑडिएंस के भेद का थोथा तर्क नहीं था। मो. खलील को मरणोपरांत 'भोजपुरी रत्न'से सम्मानित किया गया। 90 के शुरू में जैसे ही बाजार और उसके प्रभाव में भोजपुरी समाज और संगीत ने करवट ली, मोहम्मद खलील की विरासत भी विदा (1991) हो गई। मोहम्मद खलील के गाये गीत 'कवने खोतवाँ में लुकइलु आईहो बालम चिरई'की मानिंद आज की भोजपुरी की समृद्ध गायकी भी कहीं छिप गयी है। 
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मोहम्मद खलील के गीतों के कुछ लिंक 
https://youtu.be/J1jujZoFuEk (सरस्वती वंदना)

(अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया)

(लेले अईहा बालम बजरिया से)

(लेख द लल्लन टॉप पर प्रकाशित । बिना अनुमति किसी पोर्टल पर पब्लिश न करें - मोडरेटर ) 

विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान -डॉ. रामजीलाल जांगिड

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(यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं। लेखक- डॉ. रामजीलाल जांगिड)

 

विश्व भर में बोलचाल के लिए लगभग 3,500 भाषाओं और बोलियों का प्रयोग किया जाता है, किंतु एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक लिखकर बात पहुँचाने में इनमें से 500 से अधिक भाषाओं या बोलियों का इस्तेमाल नहीं होता। मौखिक और लिखित दोनों प्रकार के संचार के लिए काम आने आने वाली भाषाओं में से लगभग 16 भाषाएँ ऐसी हैं, जिनका व्यवहार 5 करोड़ से अधिक लोग करते हैं। विश्व की ये 16 प्रमुख भाषाएँ हैं: अरबी, अंग्रेजी, इतालवी, उर्दू, चीनी परिवार की भाषाएँ, जर्मन, जापानी, तमिल, तेलुगु, पुर्तग़ाली, फ्रांसीसी, बांगला, मलय-बहासा (भाषा), रूसी, स्पेनी और हिन्दी। यह गौरव की बात है कि भारत ही ऐसा एकमात्र देश है, जिसकी पाँच भाषाएँ विश्व की 16 प्रमुख भाषाओं की सूची में शामिल हैं। भारतीय भाषाएँ बोलने वाले व्यक्ति भारत सहित 137 देशों में फैले हुए हैं। लेकिन यह दु:ख की बात है कि इस सूची में शामिल भारतीय भाषाओं में प्रमुख हिन्दी का व्यवहार करने वालों की प्रामाणिक संख्या अब तक नहीं जानी जा सकी है। विश्व की प्रमुख भाषाओं का व्यवहार करने वालों के बारे में पश्चिमी देशों के कई विद्वानों ने सर्वेक्षण किए हैं, किंतु इन सब के निष्कर्षों में हजारों का अंतर है। दुर्भाग्यवश एक भी पश्चिमी विद्वान ऐसा नहीं है, जिसने भारत की जनगणना में मातृभाषाओं के बारे में एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण करके और अन्य देशों के हिन्दी भाषियों के आंकड़ों का विश्लेषण करके और अन्य देशों के हिन्दी भाषियों के आंकड़े जमा करके विश्व की प्रमुख भाषाओं की सूची में हिन्दी का सही स्थान निर्धारित किया हो। अन्य देशों के विद्वानों को ही क्यों दोष दें, जब स्वयं भारत और अन्य 136 देशों में रहने वालें करोड़ों भारतवासियों में से किसी ने भी अब तक इस दिशा में वैज्ञानिक ढंग से शोध नहीं किया है। विश्व भाषाओं में हिन्दी का सही स्थान तलाशने का काम तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन से ही शुरू कर दिया जाए तो अच्छा रहेगा। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सिडनी कुलबर्ट द्वारा 1970 में जमा किए गए आंकड़ों के अनुसार बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से विश्व की प्रमुख भाषाओं में (चीन और अंग्रेजी के बाद) हिन्दी का तीसरा स्थान था। अमरीका और फ्रांस के कुछ विद्वानों ने (चीनी, अंग्रेजी और रूसी के बाद) हिन्दी को स्पेनी के साथ चौथा स्थान दिया है। किन्तु मेरी मान्यता है कि विश्व की प्रमुख भाषाओं में (चीनी के बाद) हिन्दी का दूसरा स्थान है। मुझे लगता है कि पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय भाषाएँ बालने वालों के आंकड़ों का गहराई से विश्लेषण नहीं किया। मैं अपने उक्त निष्कर्ष पर दो ढंगों से पहुँचा हूँ: पहले, भारत के राज्यों और संघ क्षेत्रों की 1971 की जनसंख्या का विश्लेषण करके, दूसरे विभिन्न भारतीय भाषाओं और बोलियों का व्यवहार करने वालों की संख्या की जांच-पड़ताल करके। विदेशी विद्वानों ने भारती की जनगणना (1971) के आंकड़ों के आधार पर अपनी तालिकाएँ बनाई हैं, इसलिए पहले यह जांच करना जरूरी है कि भारत की जनगणना (1971) में हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के साथ क्या बर्ताव किया गया है? जनगणना करने वालों ने यह प्रश्न पूछा होता कि क्या मातृभाषा के अलावा आप हिन्दी जानते, बोलने या समझते हैं तो हिन्दी का व्यवहार करने वालों की सही स्थिति सामने आ जाती। किंतु जनगणना विभाग ने भाषाओं और बोलियों के आंकड़े तैयार करते समय कई विचित्र भारतीय भाषाओं की ही खोज कर डाली है। उदाहरण के लिए जनगणना विभाग द्वारा प्रकाशित आंकडों के अनुसार 1971 में भारत में 73,847 लोग किसानभाषा, 25,066 लोग क्षत्रियभाषा, 24,624 लोग इस्लामीऔर 5,111 व्यक्ति राजपूतीभाषा बोलते हैं। वास्तव में किसान खेती करने वाले को कहते हैं, जबकि क्षत्रिय या राजपूत जातिसूचक शब्द हैं और इस्लाम एक संप्रदाय है। व्यवसाय, जाति या धर्म को मातृभाषा बना देना कैसे उचित कहा जा सकता है? इन आंकड़ों का खोखलापन इससे ज्यादा क्या प्रकट होगा कि राजस्थानी के विभिन्न रूपोंमारवाड़ी, ढूंढारी, मेवाड़ी और हाड़ौती को स्वतंत्र मातृभाषाएँ मानते हुए, इनका व्यवहार करने वालों के अलग आंकड़े दिए गए हैं। राजस्थान में सरकारी कामकाज, जनसंचार, व्यापार और शिक्षा का माध्यम हिन्दी है, इसलिए इन्हें हिन्दी परिवार में ही शामिल किया जाना चाहिए था। यही व्यवहार ब्रज, अवधी, बिहारी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, पूर्वी, नागरी और हिन्दुस्तानी के अंतर्गत दिए गए आंकड़ों के साथ किया जाना चाहिए था। कुछ शहरों के नाम से भी भाषाएँदे दी गई हैं। जैसे: भागलपुरी, विलासपुरी, नागपुरी, मुजफ्फरपुरी, हजारीबाग और जयपुरी। इस दोषपूर्ण सूचना या नासमझी का परिणाम यह हुआ कि 1971 की जनगणना में 54.78 करोड़ से कुछ अधिक भारतीयों में हिन्दीभाषियों की संख्या घटकर केवल 15.37 करोड़ से कुछ ज्यादा रह गई। जबकि उस समय वास्तव में हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 40 करोड़ थी। हिन्दी को चौथा स्थान देने वाले विद्वान चीनी, अंग्रेजी, रूसी, और हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या क्रमश: 70,30,20 और 16.5 करोड़ मानते हैं। इसी सूची में बिहारी, राजस्थानी, भीली और गोंडी बोलने वालों की संख्या क्रमश: 4 करोड़, 1.5 करोड़, 20 लाख और 15 लाख दी गई है। जिन राज्यों में इन बोलियों का व्यवहार होता है, उनमें राजकाज, जनसंचार, शिक्षा, व्यापार और घर के बाहर संपर्क की भाषा हिन्दी ही है। इसलिए जिस तरह चीनी के विभिन्न रूपों को चीनी भाषा परिवारके अंतर्गत गिना गया है, उसी तरह से इन बोंलियों को हिन्दी भाषा परिवारके अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिए। इन बोलियों का व्यवहार करने वालों की संख्या हिन्दी भाषियों की ऊपर दी गई संख्या (16.5 करोड़) में शामिल होने से योग रूसी भाषियों की संख्या (20 करोड़) और गुजराती बोलने वालों की संख्याओं का योग 16.6 करोड़ है। इन भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले भी हिन्दी फिल्मों, हिन्दी प्रसारणों, हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों से आसानी से लाभ उठाते हैं। दसरे शब्दों में इनके दैनिक व्यवहार में हिन्दी की पैठ है। यदि इन्हें हिन्दी परिवार में शामिल कर लिया जाए, तो योग अंग्रेजी का व्यवहार करने वालों (30 करोड़) से 8.95 करोड़ अधिक पहुँच जाता है। इन क्षेत्रों में हिन्दी क्षेत्रों के लोग भी काफ़ी संख्या में बसे हुए हैं। इसलिए यदि पूरी तरह इन्हें शामिल करने में हिचकिचाहट हो तो इनके आधे (8.3 करोड़) लोगों को भी हिन्दी जानने समझने वालों की सूची में रख लिया जाए तब भी योग अंग्रेजी भाषियों से आगे चला जाता है। अब हम राज्यों की दृष्टि से विचार करते हैं। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार की 1971 में संयुक्त जनसंख्या 22.99 करोड़ से कुछ अधिक थी। यह संख्या भी हिन्दी-भाषियों की संख्या 16.5 करोड़ मानने के मार्ग में बाधा है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दमन व दीव तथा अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में कुल जनसंख्या 9.61 करोड़ से कुछ अधिक थी। इन क्षेत्रों में हिन्दी से अपरिचित शायद ही कोई हो, यदि हिन्दी का व्यवहार करने वालों में इनकी संख्या मिला दें तो योग 32.60 करोड़ हो जाता है। भारत की 1971 की जनसंख्या (54.79 करोड़ से कुछ अधिक) में यह संख्या घटाने पर 22.19 करोड़ का आंकड़ा बचता है। ये लोग 15 राज्यों और संघ क्षेत्रों में बिखरे हुए थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं: 1. मिजोरम, 2. मणिपुर, 3. नागालैंड, 4. अरुणाचल, 5. असम, 6. मेघालय, 7. त्रिपुरा, 8. पश्चिमी बंगाल, 9. ओड़िशा, 10. तमिलनाडु, 11. पांडिचेरी, 12. लक्ष द्वीप व मिनिकोय द्वीप समूह, 13. केरल, 14. कर्नाटक और 15. आंध्र प्रदेश। इनमें से एक तिहाई लोग भी हिन्दी बोलने व समझने वाले माने जाएँ तो भारत में ही हिन्दी बोलने वालों की संख्या 40 करोड़ हो जाती है। ओड़िशा, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और पश्चिमी बंगाल में हिन्दी क्षेत्रों के काफ़ी लोग बसे हुए हैं। यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए। इस तरह हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 1971 में रूसी का व्यवहार करने वालों से दुगुनी और अंग्रेजी का उपयोग करने वालों से सवा गुनी मानी जा सकती है। पश्चिमी विद्वानों ने चीनी भाषा का मुख्य क्षेत्र चीन, अंग्रेजी का अमरीका, कनाडा, इंग्लैंड, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड, रूसी का सोवियत संघ तथा हिन्दी का केवल भारत माना है। 15 जुलाई 1980 के आंकड़ों के अनुसार एक करोड़ 10 लाख भारतीय 136 देशों में बिखरे हुए थे। इनमें नेपाल, श्रीलंका, मलेशिया और मॉरीशस में भारतवंशियों का विशेष जमाव था। उदाहरण के लिए केवल नेपाल में ही 38 लाख भारतीय बसे हुए थे। इसलिए हिन्दी जानने वालों की सही संख्या निर्धारित करते समय इन देशों को भूल जाना ठीक नहीं होगा। इसी प्रकार पाकिस्तान और बंगला देश में उर्दू तथा बंगला राजभाषाएँ होने के बावजूद हिन्दी या हिन्दुस्तानी आम तौर पर समझी जानी वाली विदेशी भाषा है। यदि अंग्रेजी के प्रभाव क्षेत्र में ऊपर दिए गए देशों के अलावा अंग्रेजों के भूतपूर्व उपनिवेशों के दो प्रतिशत अंग्रेजी बोलने या समझने वालों को भी जोड़ लिया जाए तब भी अंग्रेजी का व्यवहार करने वालों की संख्या हिन्दी जानने-समझने वालों की तुलना में कम ही रहेगी। हम लोग स्टेट्समैन इयरबुक के 119 वें संस्करण (1982-83) को आधार मानें तब पता चलता है कि अंग्रेजी के मूल क्षेत्र माने जाने वाले देशों अमरीका (1980 की जनसंख्या 22.65), ग्रेट-ब्रिटेन (1981 की जनसंख्या 5.593 करोड़), कनाडा (1981 की जनसंख्या 2.42 करोड़), आस्ट्रेलिया (1980 की जनसंख्या 1.462 करोड़), आयरलैंड (1979 की जनसंख्या 33.7 लाख), और न्यूजीलैंड (1981 की जनसंख्या 32 लाख) की संयुक्त जनसंख्या 1981 के आस-पास 32.782 करोड़ थी। जबकि इसी वर्ष भारत की जनसंख्या 68.39 करोड़ थी। भारत के लगभाग 70 प्रतिशत लोग राजकाज, जनसंचार, शिक्षा, व्यापार या घर के बाहर संपर्क के लिए हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यह मानने पर हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 47.87 करोड़ बन जाती है। जो विश्व भर में अंग्रेजी के गढ़ देशों की कुल जनसंख्या के लगभग डेढ़ गुना के बराबर है। यदि भारत में आधे लोगों को भी हिन्दी व्यवहार करने वालों में गिना जाए तब भी अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी का ही पलड़ा भारी पड़ता है और हिन्दी विश्व की दूसरी प्रमुख भाषा बन जाती है। 

साभार : भारत कोश (केवल छात्रोंपयोगी ज्ञान हेतु अव्यवसायिक  एवं ज्ञान संपदा विस्तार हेतु प्रकाशित)

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साभार bhartdiscovery.org

मैं तारिक शाह को मोहब्बत इनायत करम की वजह से याद करता हूँ।

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1990 के आसपास एक फ़िल्म आयी थी - बहार आने तक। दूरदर्शन के जमाने में उस फिल्म के गानों ने धूम मचा दिया था। उसका एक गीत रुपा गांगुली और सुमित सहगल पर फिल्माया गया था 'काली तेरी चोटी है परांदा तेरी..इस गीत को मेरे देखे शादियों में वही दर्जा मिला जो 'मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियां'को प्राप्त था। इस फ़िल्म में एक और अभिनेता थे, जिनको नोटिस करना मेरे लिए आज तक आसान इसलिए रहा क्योंकि सुमित सहगल के सामने मझोले से थोड़े चवन्नी कद का एक अभिनेता भी था जो मुनमुन सेन के साथ एक गाने में दिखा और ऋषि कपूर वाली उदात्तता के किरदार को निभाने आया था। उस हीरो का गाना भी खासा हिट हुआ था - 'मोहब्बत इनायत करम देखते हैं, कहाँ हम तुम्हारे सितम देखते हैं'- बहार आने तक के दोनों गाने लंबे समय तक रेडियो और टीवी के चार्ट बस्टर में खूब चले। नब्बे के दशक की रूमानी दुनिया में तैराकी करने वाले अधिकतर लोग तारिक शाह पर फिल्माए   इस गाने को जरूर सुनते हैं।
वह अलग बात है कि दूसरी ओर ग़ज़लों के उस्ताद सुनने वाले इस गाने को खास तवज़्ज़ो नहीं देते उल्टा इसमें वह अपनी एक उस्तादी जरूर ठूस देते हैं कि छोड़ो मियाँ ! यह फ़राज़ साहेब के 'सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं / सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से / सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं'- ऐसे लोगों को हमने बनी-बनाई खीर में नमक डालने वाला माना है और हम भी इस बात पर अड़े हुए हैं। और रही बात गीतों पर ऐसे प्रभावों की तब तो नब्बे छोड़िए आज तक ऐसे गीतों पर प्रभाव ढूंढने पर आएँ तो दुनिया ही कॉपी - पेस्ट- प्रभावित लगने लगे। फिर बेचारे तारिक और मुनमुन का इसमें क्या, पूछने वाले इब्राहिम अश्क से पूछें जिन्होंने यह गीत लिखा। हमारे लिए अनुराधा पौडवाल और पंकज उधास का साथ पाया यह गीत उस दौर का सिग्नेचर गीत बन गया है। वैसे भी जीवन में कुछ ऐसी भी सफलताएं है जिन्होंने मूल के बजाए जेरोक्स से भी टॉप किया तो इसे वैसा मानकर इस बहस से बाहर निकलते हैं, वरना तसव्वर खानम अपना पोटली लिए बैठी हैं, उसी दौर के आशिकी के लिए। 
तारिक शाह के हीरो होने पर मुझे माक़ूल शक था क्योंकि वह पसंद नहीं आये थे। जनता सिनेमा में ही सुमित सहगल की सौतन की बेटी, नागमणि जैसी फिल्में देख हम पसंद कर चुके थे। लेकिन केवल इस एक गाने और लाउड ड्रामा वाले विशुद्ध नब्बे की इस फ़िल्म में तारिक के एक गीत और उसके कथ्य में उनके किरदार में पैवस्त ऋषि कपूराना इफेक्ट की वजह से वह भी न चाहते हुए याद रह गए। हालांकि यह मेरी सोच में रहा कि ऐसे औसत अभिनय वाले और औसत दिखने वाले आदमी की, जिसकी सिनेमाई उपस्थिति सीनियर एक्टर मनमोहन कृष्णा की पुअर कॉपी जैसी है, उसकी कास्टिंग कैसे हुई होगी तो बाद में पता चला तारिक शाह अभिनेता ही नहीं थे बल्कि निर्देशक भी रहे।
दूरदर्शन के दौर में उनके कुछ चर्चित कामों में 'कड़वा सच', 'एहसास'वगैरह हैं और उनके उल्लेखनीय फिल्मी कामों में 'जन्मकुंडली', 'महानता', 'भेदभाव', 'करवट', 'मुम्बई सेंट्रल'जैसी कुछ दर्जन भर के आसपास फिल्में रही हैं। तारिक के बारे में कहा जाता रहा कि वह दिलीप कुमार की खोज थे और अस्सी के शुरू में सत्य नाम की किसी फ़िल्म को वह दिलीप कपूर के साथ बनाने वाले भी थे पर किन्हीं कारणों से उस प्रोजेक्ट ने कभी उड़ान ही नहीं भरा। किस्से हैं किस्सों का क्या, मायानगरी में ऐसे किस्से और घटनाएँ आम हैं, समय के पहिए के साथ चलते हीरो को जोकर नान जाना पड़ता है। नीरज बाबा ने सही तो लिखा है - ए भाई। तारिक जल्दी ही चरित्र भूमिकाओं में आ गए थे। तारिक ने शोमा आनंद से शादी की थी और काफी दिनों से किडनी की समस्या से जूझते बीते तीन अप्रैल को मुम्बई के एक निजी अस्पताल में उन्होंने इस दुनिया को वि दा कह दिया।
व्यक्तिगत तौर पर तारिक शाह अपने केवल एक गीत से ही याद रह गए हैं जबकि उनके छोटे या बड़े पर्दे पर आने पर यह जरूर लगता है कि यह आदमी भला किरदार ही होगा। वैसे भी एक दृश्य काफी है किसी की याद के लिए मेरे लिए तारिक शाह का वही गीत बहुत है - 'मोहब्बत इनायत करम देखते हैं/ तुम्हें कितनी चाहत से हम देखते हैं।
अलविदा तारिक शाह, नब्बे के दीवाने जब जब तुम्हारे इस गीत को देखेंगे, तुम्हें बेहद चाहत से देखेंगे।
 (डॉ मुन्ना के पांडेय)
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गढ़वाल का नीलम : हर्षिल

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 हर्षिल पहली बार मेरी जेहन में राजकपूर की फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली'की वजह से आया था । बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के क्रम में जब गंगोत्री-गोमुख-तपोवन ट्रेकिंग पर गया तो इस इलाके में दो हफ्ते से अधिक समय तक रहा । फिर तो यह जगह उत्तराखण्ड के मेरे महबूब जगहों में से एक हो गई । देवदारों में खो जाना, दूर तक फैले साफ और इस ऊँचाई पर आश्चर्यजनक रूप से लगभग मैदानी इलाकों की तरह समतल भागीरथी के किनारों पर कैंपिंग करना, देर तक टहलना, बतकुच्चन करना, आग जलाना, अहले सुबह दूर दूधिया हिमालय पर सूरज की पहली रोशनी को आंखमिचौली खेलते देखना, कभी धुंध को देवदारों में अटका हुआ देख देर तक निहारना, रेजिमेंट से शाम की घंटी सुनकर ठंड को महसूसते लौटना । शाम को बाजार में पकौड़ियाँ और चाय - क्या ही कहना, हर्षिल के । रात के भोजन के बाद स्टीरियो पर कानों में 'हुस्न पहाड़ों का क्या कहना कि बारह महीने यहां मौसम जाड़ों का'को हल्की आवाज में सुनते किसी मदहोशी में टहलना एक अलग ही दुनिया में ले जाता । सच कहा जाए तो यही वह समय है जब आप दुनिया की सबसे प्यारी जगहों में से एक दुनियावी दाँव-पेंचों से अलग,सुंदर का सपना देखते तारों के नीचे भटकती हुए सुंदर आत्मा होते हैं । असल में इस बार हर्षिल जाना लिस्ट में नहीं था, पर हर्षिल ने फिर से पुकार ही लिया । गंगोत्री को जाते पर्यटको को हर्षिल घाटी से गुजरते भागीरथी की नीली धारा नीलम की तरह लगती है । 

 

जाना हर्षिल की ओर 

 

विश्वविद्यालय में अक्टूबर की दस दिनों वाली छुट्टियाँ हो गयी थीं और मेरे कुछ पुराने स्टूडेंट्स भी आ गए थे । उन सबके साथ एक शाम की चाय के बाद बिना किसी बड़ी योजना के यूँ ही मेरे एक छात्र जोगिंदर ने हमें तैयार कर लिया कि चलिए कम से कम चीला होकर आ जाएँगे । लेकिन चीला में दो रातों के बाद ऋषिकेश के पहाड़ों ने ऊपर आने के लिए डाक देना शुरू किया और यह काम वह पहले दिन की सुबह से ही करने लगे थे । उन्हें पता था कि इस आदमी (मेरे) के भीतर बेचैनी बैठी रहती है कि गढ़वाल हिमालय के दुर्गम इलाकों की झलक ना ली तो क्या उतराखंड आए । मुझे हमेशा लगता है हरिद्वार ऋषिकेश आना गढ़वाल आना नहीं,बस गंगा दर्शन और डुबकी, संध्या आरती के लिए आना भर ही है । यह मुहाने से लौटना है, कुछ अधूरापन रह ही जाता है । इसलिए ऋषिकेश से उपर चढ़ते लगता हूँ तो लगता है गोया किसी डूबती नब्ज़ वाले रोगी को ऑक्सीजन दे दिया गया हो । नीत्शे बाबा ने कभी कहा था 'मैं यायावर हूँ और मुझे पहाड़ों पर चढ़ना पसंद है ।'मेरे लिए भी सच यही है । चीला से आगे जाने की बात सुन चीला के फारेस्ट गेट के टपरी वाले चाय दूकान पर पंडित जी ने पूछा था कहाँ की ओर ? अनमने ढंग से पहले कहा - सोचा है खिर्सू । लेकिन हम हर्षिल (गंगोत्री) चल दिए । वैसे हर्षिल वाली बात सुनकर पंडित जी ने वही कहा होता जो खिर्सू सुनकर मुस्कुराकर कहा था - शुभास्तु पंथान : । हम हर्षिल चल दिए । मेरे ख्याल से जोगी, ऋचा और कौस्तुभ के लिए तो ठीक था कि वह नज़ारे देख-देख प्रफुल्लित हो रहे थे पर कसम से यही वह वक़्त होता है,जब पहाड़ों में ड्राईविंग करने वाले मेरे जैसे मैदानी लोग अपनी किस्मत खूब कोसते हैं और दूसरों की किस्मत से रस्क खाते हैं क्योंकि सामने नज़र रखते और हर मोड़ पर सतर्क रहते आधा सौन्दर्यबोध यूँ ही हवा रहता है लेकिन बाकी का आधा मन कहता है - चरन्वं मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदुम्बरम् - चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है - सो चरैवेति चरैवेति - सो मैं भी चलता रहा । आखिर  पहाड़ी राजा विल्सन के इलाके के सेबों की मिठास और 2500 मीटर की ऊँचाई के देवदारों, सेबों के बागान और महार और जाट रेजिमेंट के बीच से गंगा को नीचे देखते जाने की कबसे तमन्ना थी,जो एक बार बीए में पूरी हुई  सो अब तक इस इलाके में यह यात्रा बदस्तूर जारी है । फिर मेरे लिए कैशोर्य अवस्था से वह पोस्ट ऑफिस भी तो एक बड़ा आकर्षण रहा है,जहाँ राज कपूर की नायिका गंगा हँसते हुए पोस्टमास्टर बाबू को यह कहते हुए निकल जाती कि पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है । हाय! राजकपूर ने भी क्या खूब जगह चुनी ! गंगा और बंगाली भद्र मानुष नरेन के मिलन बिछुरन वाले प्रेम कथा के लिए । इस जगह से मुफीद जगह क्या ही होती ।

किस्से पर वापसी - उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर चढ़ते हुए साँझ के चार से थोड़ा ऊपर का समय हो आया था,तिस पर अक्टूबर का महिना । पहाड़ों में अँधेरा वैसे ही तेजी से उतर जाता है और यदि वह पहाड़ी रास्ता उतरकाशी से हर्षिल-गंगोत्री रूट पर हो, शाम ढल रही हो, सर्दियों का उठान हो और गाड़ी चलाने वाला एक ही व्यक्ति हो तो आगे के राह की सोच कर चलना ही ठीक रहता है । हमने उत्तरकाशी से थोड़ा ऊपर रूककर चाय गटकने और मैगी लीलने के बाद तय किया कि जिस तरह ऋषिकेश से यहाँ तक समय से आ गए हैं, उस लिहाज से आगे आराम से तीन-साढ़े तीन घंटे में हर्षिल पहुँचकर ही आराम करेंगे । मुझे कुछ ख़ास थकान नहीं लग रही थी और सच कहूँ तो मन के कुहरे में वह बात साफ़ थी कि अब रुकें तो हर्षिल ही, सो चल पड़े । शाम उतरने लगी थी,अक्टूबर का पहला ही हफ्ता थावातावरण में ठंडक बढ़ रही थी और गाड़ी के भीतर इसका अहसास भी हो रहा था । सब खुश थे । मेरे सुपुत्र कौस्तुभ महाराज भी एक गहरी नींद मार जाग चुके थे और उनके लिए मैंने उनके पसंद के गीतों को चला दिया था । गाड़ी उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर सर्पीले रास्तों पर चढ़ती चली जा रही थी । 

इस पूरे यात्रा में मैंने अतिउत्साह में एक गलती की थी, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वह खामियाजा भी एक नया और अलग अर्थ में सुखद याद बन गया । सुक्की गाँव हर्षिल से थोड़ा पहले है और उससे भी पहले आईटीबीपी का कैम्प है । यह जगह हर्षिल से ऊँची है और इस गाँव में सेब भी खूब होता है पर इस जगह पर अमूमन कोई यात्री नहीं रुकता । वह या तो हर्षिल, धराली या सीधे गंगोत्री ही रुकता है । इसी सुक्की गाँव से दो कि.मी. नीचे कार ने एकाएक धुआँ देकर चुप्पी साध ली बेचारी सुबह से लगातार टेढ़े-मेढ़े,ऊँचे-नीचे,अच्छे-ख़राब रास्तों पर चल रही थी । सो वह उस सांझ, एक वीरान जगह पर मुँह फुला झटके बैठ गई । मैंने ध्यान नहीं दिया था उसका हीट लेवल बढ़ा हुआ था और मैं बतकुच्चन और हर्षिल पहुँचने की झोंक में बिना ध्यान दिए गाड़ी को तेजी से इस दुर्गम पर्वतीय इलाके में खींचे जा रहा था । इस दौरान गाड़ी का वाटर पम्प पता नहीं कैसे और कहाँ टूट गया था । सारा कूलेंट,पानी स्वाहा । हम सब उतर कर कार को निहार ही रहे थे कि बगल से गुजरते डम्पर वाले ने देखा कि शहरी बाबु लोग किसी दिक्कत में हैं । उस संकरे,एकांत रास्ते पर उसने अपना बेशकीमती आधे घंटे का समय हमारे हिस्से खर्च किया. किस्मत अच्छी थी कि ठीक बगल में एक पहाड़ी नाला ऊपर से आता हुआ तेजी से नीचे खाई में चिल्लाता हुआ गंगा में उतर रहा था. उसके पानी से कार का गुस्सा ठंडा किया गया और अब गाड़ी इस हालत में  आ गयी थी कि सुक्की तक चली जाए पर आईटीबीपी कैम्प तक चढ़ते चढ़ते गाड़ी ने अजीब चीखें मारनी शुरू की और हर्षिल गंगोत्री जाने वाले समझ सकते हैं कि उस रास्ते पर सुकी गाँव के पास निहायत खड़ी चढ़ाई है, जैसे मसूरी में लैंढूर से चार दूकान की ओर जाने का रास्ता। खैर कैम्प के आगे के रास्ते एक कोने पर बलवंत सिंह जी की चाय की टपरी थी,जो लगभग बंद हो ही गई थी पर हमें देख उनकी उम्मीद बढ़ी कि थोड़ी देर और रुक गया तो कुछ आमदनी हो जाएगी । उनकी उम्मीद गलत नहीं थी । हमने बीमार कार वहीं खड़ी की और वहाँ दबा के ऑमलेट, मैगी और ग्लास भर निम्बू चाय पी । दुकान की बुझती हुई आग में गर्मी की सम्भावना तलाशते हुए हमने कार ठीक होने तक सुक्की में ही रुकने का मन बना लिया । ऊपर की ओर एक इमारत थी जिसे एक तरह से होटल कह भी सकते थे और एक लिहाज से सरायनुमा भी कहा जा सकता था । वहाँ ऐसे कमरे मिल गए थेजिसमें शौचालय अटैच्ड था । आज चाहे मैं जो कहूँ पर उस वक़्त वह जगह हमारे लिए ईश्वरीय थी । खाना बनाने का रिवाज होटल वाले ने इसलिए नहीं सीखा था क्योंकि वहाँ चार धाम यात्रा के अतिरिक्त कभी कोई रुकेगा इसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी । वहाँ खाने के नाम पर मैगी,चाय, बिस्कुट,अंडे का सीमित इंतजाम था । लेकिन जैसा कि हमारे साथ अधिकतर यह हुआ कि गढ़वाल में ऐसी किसी भी जगह ठहरे तो पूरा परिवार साथ हो लेता है । यहाँ भी यही हुआ । मुझे जल्दी ही लग गया कि किस्मत ने किसी वजह से हर्षिल से पहले इस अज्ञात-कुल शील जगह पर रोका था । सुक्की की वह रात पूरे चाँद की थी । हमने अपनी कार जिस बैंड पर खड़ी की थी उस जगह से रिहाइश घूमकर दो किलोमीटर थी पर सुविधा यह थी कि कमरे के बाहर आकर सामने झाँकों तो ताज़ी झरी सफेदी ओढ़े हिमालय,उसके पैताने उत्तरकाशी, महादानव टिहरी बांध, देवप्रयाग को जाती भागीरथी के प्रबल अबाध प्रवाह की ध्वनि और दाहिनी ओर नीचे दिखते हरियल छत वाले कैम्प के कोने में बलवंत जी की टपरी के मुहाने पर अगले दिन सत्तर कि.मी. दूर नीचे उत्तरकाशी से आने वाले मिस्त्री की उम्मीद में हमारी कार खड़ी दिख रही थी । और हाँ ! उस जगह हमने मज़बूरी में शरण ली पर तीन दिन रुके ख़ुशी-ख़ुशी । जी ! वही जगह जहाँ रात को खाना भी खुद ही बनाने में होटल वाले भले युवक के परिवार का सक्रिय सहयोगी बनना पड़ता था । मैं इतनी दफे गंगोत्री गया, हर्षिल गया और दो बार आगे गोमुख और तपोवन तक गया । पर हर्षिल से थोड़ा ही पहले पड़ते इस खूबसूरत जगह पर कभी नजर ही नहीं गयी थी । सच है जीवन में हम कई बार बड़ी दूर की आसन्न खुशियों और चीजों के फेर में छोटी और पास की चीजों को  जाने-अनजाने अनदेखा कर देते हैं । यकीन जानिए, अब यह परेशानी हमारे लिए एक अलग ही सुख का अनुभव करा रही थी । कौस्तुभ वहाँ के स्थानीय बच्चों के लिए खिलौना हो गया था, उसकी उम्र को यह कहाँ पता था कि माता-पिता यहाँ क्यों रुके हैं । आखिर यह भी तो रामनारायण उपाध्याय की कविता को अनजाने में छुटपन से ही समझने लगा है -धरती से मुझे प्यार है और आसमान जी को बहुत भाता है/एक से मेरे शरीर का और दूसरे से मन का नाता है । हिमालय है ही ऐसा । आप आते अपरिचित हैं पर थोड़े ही समय में लगता है आप यहीं के हैं,यहीं के थे । मेरे ऐसा समझने के पीछे यह भी तो हो सकता है कि हमारे पूर्वज कभी इन्हीं रस्तों और पर्वतों-देवदारों की छांव में गुजर कर अपनी तीर्थयात्राएँ पूरी की हों ।  

सुक्की गाँव में दिल्ली वाले नेटवर्क को समस्या हो रही थी सो बीती शाम को ही ऋचा के सलाह अनुसार होटल वाले के फ़ोन से मैंने नीचे देहरादून में ऋचा के पिता जी को अपनी लोकेशन और गाड़ी की स्थिति बता दी थी । उन्होंने जोर का ठहाका लगाया कि हमलोग जाकर एक जगह फंस गए हैं । मामला यह था कि मैंने चंबा से आगे आते समय उनको फ़ोन करके खूब चिढ़ाया था कि आप देहरादून ही रह गए और देखिए हम बिना प्लान के गंगोत्री तक का रास्ता नापने निकल गए और उसी बातचीत में ऋचा के पापा ने कहा आज रात आप उत्तरकाशी रुकोगे तो सुबह हमलोग आपको पीछे से ज्वाइन कर लेंगे । लेकिन मैंने कहाँ अजी कहाँ ! आज की रात तो यह गाड़ी हर्षिल ही रुकेगी और संयोग देखिए, न उत्तरकाशी ना हर्षिल,गाड़ी सुक्की गाँव के पास सुस्ती में आई और शायद विधाता ने यही मिलने का करार तय किया हुआ था । शायद इसे ही कहते हैं अपना चेता होत नहीं प्रभु चेता तत्काल । ऋचा के पापा-मम्मी भी देहरादून से सुबह दस बजे के करीब सुक्की आ गए और नीचे उत्तरकाशी में एक मिस्त्री को बोल आए थे । एक और कमाल बात समझने की है कि इधर के इलाके में सहयोग बिना अतिरिक्त प्रयास के मिल जाता है । हमारे साथ यही हुआ,बाहर के नम्बर की ख़राब कार को देखते हुए तक़रीबन हर दूसरे सवारी वाहन या मालवाहक वाहन वाले ने उत्तरकाशी में किसी न किसी मिस्त्री को हमारे होटल वाले का नम्बर दे दिया था ताकि उसके हिसाब से बात करके वह सुक्की आकर आईटीबीपी कैम्प के पास खड़ी दिल्ली नम्बर की गाड़ी की मरम्मत कर जाए । पहाड़ों की यह व्यवस्था चमत्कृत करती है । देर शाम तक एक मिस्त्री अपनी गाड़ी से सुक्की आया और हमारी कार की मरम्मत में जुट गया । मैकेनिक कितना दक्ष था यह तो मालूम नहीं पर उसके उत्साह और उसकी गाड़ी की सजावट को देखते हुए,उसे सलाम करने का जी कर रहा था । उसकी कार दशहरे की झांकी सरीखी बनी ठनी थी । खैर ! चार से पाँच घन्टे की मेहनत और चांदनी रात में सामने वाले पर्वत से बारीक़ से वृहतर होते चाँद और उसकी चांदनी को पसरते और पूरे इलाके को दूधिया रोशनी में नहाते देखना भी एक अलग ही अनुभव ही था । उस दृश्य को बयान करना मुश्किल है, जब एकाएक उजाला बढ़ते-बढ़ते सामने वाले पर्वत की नोक से एक नगीने की तरह क्षण पर टिका फिर मुकुट की तरह बढ़ा और समूचे वैली और हमारी पीठ की ओर वाले पहाड़ की तीखी ढलान पर पसरे हुए सेब के खेतों में भीतर तक छा गया । कार अब ठीक थी, लेकिन जिस रास्ते पर हमें आगे जाना था, उस लिहाज से इस मिस्त्री पर मेरा भरोसा पता नहीं क्यों टिक नहीं रहा था । जोगिन्दर की भी यही राय थी, तिस पर सत्रह सौ के वाटर पम्प के साढ़े पाँच हजार चुकाने के बाद मिस्त्री का उदार होकर दिखाना कि 'वह तो भला हो जो मैं ही था अन्यथा कोई और होता तो शायद ही इतने में करता', मूड को थोड़ा ख़राब कर ही गया था लेकिन मन के एक कोने में यह बात संतोष के साथ साँसे ले रही थी कि कल की सुबह हर्षिल में बीतेगी । अफ़सोस इस बात का भी नहीं था कि दो रातें सुकी में बीत गयीं वह भी किसी अन्य वजह से ।

 

जाना पहाड़ी विल्सन राजा के घर हर्षिल में 

 

हर्षिल के पास है मुखबा गाँव । सर्दियों में गंगोत्री धाम की डोली की यहीं पर पूजा अर्चना की जाती है । हर्षिल सेना के दो रेजिमेंट्स के बीच में भागीरथी के सुरम्य तट पर बसा एक बेहद खूबसूरत गाँव है ।  इसकी ऊँचाई 2500 मी. है और यहाँ के रसीले सेब नीचे खूब मशहूर हैं । कहते हैं इस इलाके में सेबों की फसल से पहला परिचय अंग्रेज फ्रेडरिक विल्सन ने कराया था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग पहाड़ी विल्सन के नाम से पुकारते हैं । हर्षिल आने का एक बड़ा कारण यह विल्सन भी रहा । वह अंग्रेज जिसका इस इलाके में आना, झूले वाले पुल का बनाना, स्थानीय युवती से विवाह बंधन में बंधना और फिर उस पर राबर्ट हचिन्सन का द राजा ऑफ़ हर्षिल नाम से किताब लिखना, अपने आप में मिथकीय और जासूसी कथाओं की तरह रोमांचक है । विल्सन का पुराना कॉटेज एक दुर्घटना में जल गया था लेकिन जंगलात वालों ने उस जगह पर लगभग उसी तरह का एक कॉटेज बनवाया हुआ है,जिसमें उत्तरकाशी और नीचे से आने वाले अधिकारी वगैरह ठहरते हैं । हर्षिल के पुराने निवासी कहते हैं-आज जो कॉटेज आप देख रहे हैं हैं,वह तो कुछ भी नहीं,जो विल्सन के समय की थी । वैसे भी हर पुरानी चीज जो केवल मौखिक कथाओं में बच गई हो,अपने किस्सों में अलग-अलग और बड़ा आकार ले ही लेती है । संभव है विल्सन के कॉटेज के साथ ही यह रहा हो । अलबता, हर्षिल की ख़ूबसूरती ने राजकपूर सरीखे फिल्मकार को अपनी ओर आकर्षित किया और गंगोत्री धाम जाने वालों तीर्थयात्रियों को भी ।  पर कायदे से इस हर्षिल गाँव को देखने के लिए एक दिन भी पूरा है और महसूसने के लिए हफ्ता भी कम है । हर्षिल महसूसने की जगह है । हम अब हर्षिल में थे,वह साथी मिल गया था जिसे पाने को पिछ्ले कुछ दिनों से जी बेकरार था । अब हमारे कुछ सुकून के दिन हर्षिल में बीतने वाले थे ।

 

•  हर्षिल का राजा - फ्रेडरिक 'पहाड़ी'विल्सन :किस्सा अनूठा उर्फ़ जितने मुँह उतनी बातें 

हालाँकि फ्रेडरिक 'पहाड़ी'विल्सन को पहाड़ी विल्सन का पुकार नाम उसके इस इलाके के प्रति प्यार की वजह से मिला है । यह ऐतिहासिक रूप से इस इलाके में आया सच्चा किरदार है लेकिन राबर्ट हचिसन ने लिखा है कि यदि आप इस इलाके में विल्सन की कथा सुनने निकलते हैं तो सबसे बड़ी समस्या यह है कि छह लोगों के पास छह किस्म की कहानी है लेकिन उनमें किंचित समानता होते हुए भी पर्याप्त भेद भी है । पर यह ज्ञात तथ्य है कि उसकी दो पत्नियाँ थी जो पास के ही पड़ोसी गाँव मुखबा की थीं । पहली रैमत्ता से कोई संतान न होने की स्थिति में उसने सुगरामी(गुलाबी) से विवाह किया और जिससे उसके तीन बेटे - नथनिअल, चार्ल्स और हेनरी हुए । हर्षिल और मुखबा के स्थानीय नागरिक उन्हें स्थानीय उच्चारण के हिसाब से नाथू, चार्ली साहिब और इंद्री कहा करते थे ।  हर्षिल में विल्सन की आमद कैसे हुई थी यह बात बहुत स्पष्ट नहीं है । कोई कहता वह अंग्रेजों की पलटन का निकाला हुआ सिपाही या अधिकारी था तो कोई किसी और कथा का आधार देता ।  मसलन, वह योर्कशायर के मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता था और अपने को व्यापारी, फोरेस्टर या कॉन्ट्रेक्टर कहा करता लेकिन इतना जरुर है कि इधर के इलाके में सेब की खेती और झूला पुल बनाने की कारीगरी विल्सन की प्रसिद्धि का बड़ा कारण रही है । विल्सन ने गंगोत्री और हर्षिल के बीच भैरोघाटी के पास एक संस्पेंशन ब्रिज का निर्माण किया था, जिस पर से आरपार जाने में स्थानीय नागरिकों की आनाकानी और अविश्वास को देखते हुए उसने अपने घोड़े पर चढ़कर इस पार से उस पार जाकर जनता में वह विश्वास बहल किया कि इस झूला पुल से घाटी और नदी के प्रबल और भयावह प्रवाह को पार किया जा सकता है । उस रात की डिनर के समय मेरे, ऋचा, पीकू, ऋचा के मम्मी-पापा ने विल्सन के बारे जानना चाहा । कमरे में रात के लिए गर्म पानी पहुँचाने आए मध्यवय वाले वेटर से जब मैंने यह सवाल किया कि पहाड़ी विल्सन के बारे में कुछ बताओ? उसने फ़िल्मी रहस्य ओढने के बाद मुझसे ही पूछा - 'आप कैसे जानते हो पहाड़ी राजा विल्सन के बारे में रात में उसके बारे में बात नहीं करना । वह आज भी हर चांदनी रात को अपने घोड़े पर बैठकर रस्सी के झूले वाले पुल से गुजरता है । हर्षिल और मुखबा के अनेक ग्रामीणों ने उसके घोड़े की टापों की आवाज़ देर रात गए सुनी है । वह आज भी इन्हीं पहाड़ों में घूमता है । '- मुझे उसके बताने के तरीके में मजा आ रहा था और वह वेटर अपनी पूरी कथाशक्ति और आंगिक अभिनय से हमें डराने में लगा हुआ था । विल्सन की कथा हर्षिल के शानदार हिस्सों में से है । एक तो इस किस्से को इस इलाके में आने वाले लगभग सभी ट्रेवेलर्स ने कमोबेश पढ़-जान रखा है । दूसरे एक दूर-दराज के अंग्रेज के स्थानीय महिलाओं से विवाह स्थिर कर ताउम्र यहीं ठहर जाने की प्यारी-सी कथा का सुयोग जो इसमें ठहरा है, जहाँ वह विल्सन से स्थानीय 'हुल्सेन साहिब'बन गया । गढ़वाल के इस हिस्से में यह अंग्रेज साहिब संभवतः रुडयार्ड किपलिंग के उस कथा 'द मैन हु वुड बी किंग'का आधार बना था, यह मैं नहीं कहता, हचिसन साहिब का कहना है । पर यह तो तय जानिए कि ब्रिटिश आर्मी का एक युवा अधिकारी पहले अफगान युद्ध से लौटकर हिमालय के इस इलाके में आता है और इस इलाके में एक बदलाव की जमीन तैयार करता हुआ किंवदंती बन जाता है । मैं सपरिवार और अपने स्टूडेंट जोगी के साथ हर्षिल बार-बार लौटने की भूमिका रचता हुआ नीचे उतरता हूँ । एक डोर-सी बंधी है मेरे और गढ़वाल के बीच,जो दिल्ली रहकर भी लौटा लाने को आतुर है हमेशा । पंच केदार की जमीन हो कि गंगोत्री-गोमुख-तपोवन । हर्षिल वाकई यात्रा का अंत नहीं बल्कि शेष है जो कई दफे भी उस 'शेष'को बचाकर ही रखती है । सम्पूर्णता वैसे भी मृत्यु है और हर्षिल तो जीवन ही जीवन है ,उसका शेष होना ही श्रेयस है । यात्रा का दुर्गम हर्षिल में इतना रमणीय हो जाता है कि फिर-फिर लौटने की प्रबल उत्कंठा उस दुर्गम के सुगम मान लेती है । चीला वाली टपरी पर खिर्सू सुनकर हंसने वाले,फिर गंगोत्री जाना समझ उस पंडित जी ने किसी दैवयोग से ही कहा होगा - शुभास्तु पंथान: और देखिए वही रहा । तो देर किस बात की है आप भी हो आइए हर्षिल, फिर यह जगह आपकी पसंदीदा जगहों में शुमार हो जाएगी । जिसे आप बार-बार जीना चाहेंगे । 

 

यहाँ की सुबह-दोपहर-शाम तय कीजिए 

 

सुबह का आरंभ जल्दी कीजिए । सुबह की चाय के बाद भागीरथी के फैलाव के साथ किनारे-किनारे दूर तक ढलानों पर तने खड़े खुशबूदार देवदार से बतियाते और उनकी सुगंधी को अपने नथुनों में भरते जाइए और लौटते हुए मुख्य सड़क पर किसी छोटी काठ की पुरानी दीवारों वाली टपरी के बाहर ताज़ी उतर रही धूप में दालचीनी,अदरक वाली चाय को बंद बटर और ऑमलेट के साथ स्वाद लेते हुए अपने रुकने की जगह लौट आइए । मुख्य बाजार से एक पतली-सी गली हर्षिल के डाकघर तक जाती है । यह डाकघर के नाम पर पुरानेपन का एकमात्र ढांचा भर दिखता है पर है सक्रिय । सिनेमाप्रेमी खासकर 'राम तेरी गंगा मैली'वाले इस डाकघर के पास अपनी तस्वीर खिंचवाने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि जब समय और बाज़ार ने जीवन में, प्रकृति में हर ओर एक तरह की तब्दीली कर दी है, वैसे में यह डाकघर समय के उसी बिंदु पर वैसे ही अक्षुण्ण खड़ा है जैसा कि राजकपूर ने अस्सी के दशक में सिनेमा बनाते हुए छोड़ा था । डाक विभाग को भी मोबाइल के ज़माने में इस चालू डाकघर को बदलने की बहुत जल्दी नहीं है । इस छोटे और समय के एक बिंदु पर ठहरे हुए से सुंदर दृश्यों को यहाँ की चाय की दुकान के बाहर के पटरे पर बैठे घंटों ताका जा सकता है क्योंकि हर्षिल आपसे आपका परिचय तब कराता है,जब आप शहराती भागमभाग में खुद को भी भूल चुके होते हैं । यहाँ आकर लगता है कुछ चीजें ठहरी हुई अधिक सुंदर लगती हैं । अब बेशक चिट्ठियाँ बहुत नहीं आती-जाती पर सुदूर इलाके में इस जगह के खम्भे पर टिके लेटरबॉक्स का मुँह  मुस्कुराते हुए खुला रहता है ।  राजकपूर की नायिका ने इसी के पास डाकबाबू को दिक् किया था - 'पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है डाक बाबू, आने वाले पहले आ जाते हैं और उनके आने की खबर देने वाली चिट्ठियाँ बाद में'। हर्षिल का वह सुंदर डाकघर व्यक्तिगत तौर पर मुझे और ऋचा को बेहद पसंद है ।

हर्षिल की दुपहरी बाजार से बाहर रेजिमेंट एरिया से निकल कर विल्सन के कॉटेज के पीछे बहते पहाड़ी झरने को पार करके उस गाँव की ओर जाने का समय है,जहाँ स्थानीय बुनकर ऊनी दस्ताने, स्वेटर, बंडी, मोज़े, मफलर, टोपी, अचार, मुरब्बे आदि बनाकर बेचते हैं । यह सब हर्षिल के स्थानीय बाजार के अलावा बाहर भी भेजी जाती हैं । मेरे लिए इस इलाके का सबसे सुन्दर समय अक्टूबर तय है क्योंकि ठण्ड की बहुतायत न होने की वजह से मौसम और नदी-झरने साफ,सफ़ेद धूप खिली मिलती है । आसपास सस्ते सेब खूब मिलते हैं और रास्ते खुले होने की वजह से आप उन जगहों पर आसानी से घूम आते हैं,जो सामान्यत: बर्फ के मौसम में आप नहीं देख सकते । वैसे भी पहाड़ों में बर्फ एक किस्म का रंग भर देती है और आप उसके परे जाकर उस इलाके की वास्तविक ख़ूबसूरती नहीं देख पाते हैं । हालांकि इसकी अपनी सुंदरता है । हर्षिल में भी खूब बर्फ़बारी होती है लेकिन हर्षिल के रंग अक्टूबर-नवंबर में ही वैविध्य लिए अधिक चटख दिखेंगे । दोपहर की गढ़वाली कढ़ी, चावल के भोजन के बाद, शाम दूसरी दुनिया में ले जाती है । वैसे रात को आप अपने होटल वाले से मड़ुवे की रोटी वाले स्थानीय भोजन की मांग करें । हर्षिल वैसे भी आपको बहुत एडवेंचर्स के लिए आमंत्रित नहीं करती बल्कि वह आपको अपने भीतर की कृत्रिमता से बाहर खींच लेती है । जहाँ आपके शहर का जंग लगा इंसान झटके से नया हो उठता है । यहाँ विज्ञापनों वाली दुनिया से अलग एक इत्मीनान है । यही कारण है कि हर्षिल के लिए अपना प्यार और दैवीय आकर्षण बनाये रखा है । तभी तो उस शाम मुख्य सड़क से टहल कर आते भागीरथी के पुल के ऊपर सनसन बहती बर्फीली हवा और नदी के शोर से अधिक उस पुल पर बंधे कपड़ों के तिकोनों की फरफराहट के बीच जोगी रुक कर बोला 'सर यहाँ न माल रोड जैसी चहलकदमी है, न बिजली लट्टुओं की जगमग, न बहुत सुविधाएँ लेकिन कुछ ऐसा है, जिसे मैं हमेशा यहाँ आकर जीना चाहूँगा । शायद यही वह 'कुछ'था,जिसके लिए सुकी में दो रातें खराब कार के ठीक होने की उम्मीद में टिके होने के बावजूद हमें हर्षिल ले आया ।  

 

 

कैसे जाएं : 

यदि आप देहरादून से हर्षिल जाते हैं तो सुवाखोली से सीधे उतरकाशी का रास्ता लें । एक दूसरा रास्ता धनौल्टी, कनाताल, टिहरी, चंबा होते हुए, उत्तरकाशी और हर्षिल को जाता है । ऋषिकेश से आप नरेंद्र नगर, चंबा, होते हुए उत्तरकाशी और हर्षिल पहुँच सकते हैं । हर्षिल गंगोत्री मुख्य मार्ग पर है ।   

 

कहाँ ठहरें :

हर्षिल में हर वर्ग के लिए हर बजट में किफायती जगहें मौजूद हैं । मुख्य बाजार और उसके आसपास छोटे-छोटे होटल हैं,जिनमें आप खासा मोल-तोल करके रुक सकते हैं । इसके अतिरिक्त होम स्टे और गढ़वाल मंडल का गेस्ट हाउस भी अन्य विकल्प है । हर्षिल छोटी-सी जगह है । यहाँ वैसे तो भीड़ नहीं होती पर यात्रा सीजन में भीड़ होने की स्थिति में आप हर्षिल से थोड़ा आगे गंगोत्री मुख्य मार्ग पर धराली में भी रुक सकते हैं ।

 

क्या देखें :

हर्षिल में पहाड़ों की शांति और गंगा के विस्तार को देवदारों के साथ टहलते हुए देखिए । स्थानीय गाँवों तक यात्रा कीजिए और उनके हस्तकारी के काम को देखिए और खरीदिए । यह सब उत्पाद उत्कृष्ट और किफायती हैं । ट्रेक करने वाले तिब्बती मंदिर तक चढ़ाई कर सकते हैं । थोड़ी दूर की यात्रा कर मुखबा गाँव में गंगा माँ की शीतकालीन गद्दी के दर्शन किया जा सकता हैं । हर्षिल में अंग्रेज राजा फ्रेडरिक पहाड़ी विल्सन का आवासीय परिसर यहाँ का एक दर्शनीय स्थल हैं । हालांकि अब इसकी रंगत पूर्ववत नहीं और यह फोरेस्ट वालों की देख रेख में हैं । किसी शाम अलाव के पास बैठ चाय पीते किसी स्थानीय बुजुर्ग से विल्सन के कारनामें सुनिए । हिमालयी वृक्षों फूलों और उनपर पलता वन्य जीवन निहारिए । भागीरथी के साथ टहलते हुए फेफड़ों को ताजगी दीजिये और प्रकृति का संगीत सुनिए ।

 

यात्रा का बेहतरीन मौसम :

हर्षिल उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित चार धाम यात्रा के गंगोत्री धाम वाले रास्ते में गंगोत्री से 25 कि.मी. पहले स्थित है । यहाँ आने के लिए मार्च से नवम्बर का समय सर्वथा उचित है । जब भी आयें गरम कपड़े लेकर आएं । गर्मियों में यहाँ की रात ठंडी ही होती है । सर्दियों में हर्षिल में बर्फबारी बहुत होती है और लगभग यह इलाका मुख्यालय से एक तरह से कटा हुआ रहता है फिर भी एडवेंचर के शौकीन इस मौसम में भी यहाँ आना पसंद करते हैं ।

 

तो देर किस बात की है हो आइये गढ़वाल के इस नीलम के साथ अपनी यादें जीने के लिए । हर्षिल भागीरथी के इलाके का नीलम ही है,सुंदर और बेशकीमती ।

(c) डॉ॰ मुन्ना कुमार पांडेय

सहायक प्रोफेसर

हिन्दी-विभाग,सत्यवती कॉलेज

दिल्ली विश्वविद्यालय

(यह संस्मरण हिमालयी सरोकारों के लिए समर्पित पत्रिका "हिमांतर"के वर्ष -1, अंक - 3, अप्रैल - सितंबर, 2021 (संयुक्तांक) में प्रकाशित है। इसे www.himantar.com पर भी पढ़ा जा सकता है। इस लेख को बिना लेखक के संज्ञान में लाए छापना और अपने ब्लॉग पर शेयर करना मना है ।)     



यादें: दो बाँके, एक फिल्म और जूही चावला की "मैं तेरी रानी तू राजा मेरा"

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डिस्केलमर : ग्लोब के किसी हिस्से में नब्बे के दो दीवाने हुए। दो असल गंजहे। पर कानूनन यही कहना है कि इस किस्से का मजमून काल्पनिक माना जाए और किसी से इसका कोई हिस्सा जुड़ता है तो वह महज संयोग है।


वह तीन भाई थे। पर बीच वाले और छोटे वाले की उम्र में महज एक साल का फासला होने की वज़ह से उनका रिश्ता बड़े-छोटे के बजाए दोस्ताना अधिक था। बड़े वाले भाई कुछ अधिक ही बड़े थे और इसकी वजह उनके और बाकी दो भाईयों के बीच तीन बहनों का लम्बा फ़ासला था। इस कारण वह अनुभव एवं व्यवहार में पिता के आसपास ठहरते थे। किस्से में दोनों छोटों का नाम लेना ठीक नहीं है पर ये जानने की बात है कि दोनों के शौक में इतनी साम्यता थी कि वे आपस में फिल्मों, नाच और तिरंगा/पांच हजार गुटखा के ईमानदार साझीदार थे। सिनेमची ऐसे कि उनसे राजा बाबू, दिलवाले, जान तेरे नाम, मोहरा,बाजीगर, चीता से लेकर नसीब और रंग जैसी एक फ़िल्म न छूटी थी। उनको दौर-ए-नब्बे के तमाम नशीले गीत कंठस्थ थे। सिनेमा देखने के लिए वह कैसा भी झूठ रच लेते, प्रपंच कर लेते। हालांकि परिवार में उनकी शराफत का आलम यह था कि उनकी आँखों में दिखाने को ही सही पर बाबूजी और भैया का डर अवश्य था। उनके बाबूजी के पास ईंट भट्ठा, जिले के दो चीनी मिलों के फ्रेस और भीतरी सड़कों का ठेका समेत आसपास के जरूरतमंदों को सूद पर पैसे दिए जाने जैसे काफी काम थे। इन सबसे घर में ठीक-ठाक पैसा आता था। उनसे इलाके के बीसेक घर जीते-खाते भी थे। सब ठीक चल रहा था। यहाँ तक सब नार्मल था। उथल-पुथल वहाँ से शुरू हुई, जब उनके दोनों मस्ताने छोटे लाडलों ने कटेया बाज़ार स्थित राज चित्र मंदिर में सन्नी देओल, जूही चावला वाली 'लुटेरे'देख ली। फ़िल्म तो कोई ऐसी मारक नहीं थी, जिसका नशा इन पर चढ़ता पर उन बाँको ने जूही चावला का समुद्री गीत 'मैं तेरी रानी तू राजा मेरा/ सपनों में देखा है चेहरा तेरा / आ तू बसा दे ये जीवन मेरा" - देख लिया। जूही का झूमकर, नहाकर गाया हुआ यह गीत सीधे कलेजे में जा धँसा। उधर छोटे भाई को "तूने दिल पर जो डाले हैं डोरे, ओ लुटेरे ओ लुटेरे ओ लुटेरे'अपने लिए गाया हुआ लग गया। यह घटना जीवन के ऐसे क्षण में घटित हुई कि दोनों सामान्य न रह सके।

उनको जूही की धुन सवार हुई या कि उस गीत की, यह तो वही जाने। पर उसी रोज दोनों ने यह तय किया कि यह फ़िल्म टॉकीज से नहीं उतरनी चाहिए। मन पक्का हुआ। अब इस इरादे को कोई समझौता नहीं रोक सकता था, हालांकि यह इक आग का दरिया था और डूबके जाना था । टॉकीज मालिक भी दबंग और रसूख वाला था। मामला कैसे सेट हो? पर प्रेम में पतझड़ कहाँ - दो दिनों तक लगातार आठ शो में जूही के पुकार से जी को बसंत किया गया। दिल को बहलाने की भरपूर कोशिशों के बाद भी मन की दहक शांत न हुई। जैसे ही पर्दे पर जूही घोषणा करती "मैं तेरी रानी तू राजा मेरा", मन सीट छोड़ पर्दे में समा जाता और छोटे वाले बड़े भाई के लिहाज में किनारे छुपकर "ओ लुटेरे ओ लुटेरे"में अपनी तपिश को भोगते। दोनों शो देखकर हर बार बाहर आते, बिस्तर पर लेटे इस चंद दिनों की ही तड़प को वही महसूस कर सकता है, जिसने बारहमासा पढ़ा हो। इनका बारहमासा दो दिनों में उरूज पर आ गया था। दोनों अपने कमरे में सोते तो दूर से जूही पुकारती लगती। उस पर्दे वाली जूही चावला को क्या पता था वह क्या कर गई है। कुछ दिन और बीते अब दोनों को फिल्म का हर संवाद, दृश्य तक याद हो गया था। बेचैनी कम न होती थी। सिनेमचियों ने एक रोज यह इशारा दिया कि जल्दी नई फिल्म लगने वाली है।

अब कोई और राह न सूझती देख एक रोज इरादा पक्का हुआ कि सिनेमा हॉल खरीदा ही जाएगा । यह फ़िल्म किसी सूरत में हॉल से उतरनी नहीं चाहिए। वह नशेड़ी नहीं थे पर उनपर इस वाले नशेके असर पक्का हो गया था। उनका इरादा चौथे दिन के नाईट शो के बाद से ही पक्का हो गया था। अगली सुबह हिम्मत करके यह बात बैठक में बैठे पिता को कह दी गयी। पिताजी ने एक उड़ती-सी नज़र उनके चेहरे पर फेंकी और मोटा-सा विशेषण धर दिया। बैठक में बैठे जन- मजूर तक हँस दिए।

दोनों बेइज्जत होकर भारी मन से बाहर निकले और टंडैली करने की आदत से मजबूर दोनों फिर राज टॉकीज के टिकट काउंटर जा पहुँचे। आज भी जूही चावला उनके इन्तज़ार में समुंदर से निकल पोस्टर पर थी। कानों में गीत बज रहे थे- मैं तेरी रानी तू...। आग और भभक उठी। अब क्या हो? छोटे ने मचलकर कहा - "भाई जी ! बाबूजी तो बहुत बेइज्जत किए । हम लोग बेटा हैं और वह समझ नहीं रहे कि बेटे घी का लड्डू होते हैं। और हमारी ही इच्छा का सम्मान... हॉल खरीदना ही है, क्या कहते हो?"- साल भर बड़े ने टोक दिया - "बस बबुआ! आज रात ही फैसला होगा। या तो हम या बाबूजी।"
रात हुई, बाबूजी दुनिया भर से सूद वसूल चैन से खर्राटे मारते अपने पलंग पर लेटे थे। तभी उनकी कनपटी पर ठंडे धातु का स्पर्श हुआ। बेटे के हाथ में सजा बाबूजी का लाइसेंसी रिवॉल्वर बाबूजी की ही कनपटी पर था। पिताजी हड़बड़ा कर जागे। दोनों बेटे 'लुटेरे'की जूही चावला के फेर में, 'डर'का शाहरुख खान बने हुए थे। बड़े ने दाँत पीसते हुए कहा - "बाबूजी! किरिया खाइए कि राज टॉकीज खरीदेंगे। हम जानते हैं कि आपके पास बहुत पैसा है। देखिए नहीं मत कीजियेगा, वरना हम लोग भूल जाएंगे कि आप हमारे बाबूजी हैं।"- छोटे ने इमोशनल कार्ड खेला -"किसके लिए कमा रहे हैं जी? हमारे लिए ही न? संतान का सुख नहीं पसंद है, आपको? कहिए! अब हॉल ख़रीदाएगा।"-
पिताजी हड़बड़ी में बोले - "ख़रीदाएगा एकदम ख़रीदाएगा बेटा।"- दोनों का प्लान सफल हुआ। पिताजी मान गए - "बिल्कुल ख़रीदाएगा।"-
इस सृष्टि का नियम है रात की कहानी और सुबह की कहानी से अलग होती है। दोनों नायक दुनियादारी के खिलाड़ी पिताजी के दाँव-पेंचों से गहरे वाकिफ न थे। उनके पिता जी ने इस जीरे भर की जगह में कैसे अपना साम्राज्य विस्तार किया था, उनको पता नहीं था। वह रात का करार था, अब दिन निकल आया था।

उधर दोनों बाँके इस मौज में थे कि अब 'राज'में केवल 'लुटेरे'चलेगी। अठनिया तिरंगा गुटखा मुँह में फेंक बड़े ने टिकट काउंटर वाले सुदामा से कहा - "ऐ सुदामा ! अब तुम हमारे लिए टिकट काटोगे कल से। हॉल खरीद रहे हैं हमारे बाबूजी।"- सुदामा इन निठल्लों को जानता था पर मुस्कुराकर बोला - "ठीक है देवता, हमारा भी ख्याल रखिएगा।"- उसकी यह बात सुन दोनों के भीतर का 'होने वाला'हॉल मालिक जाग गया। वह अब जूही को उम्र भर नचा सकते थे, 'लुटेरे'चलती रहेगी।

जैसा कि उनके पिताजी के लक्षण थे, वह खानदानी लक्षण सामने उभर आए।

पर कहा न! रात और दिन का फसाना अलग है। उस रोज दोपहर के शो के बाद हॉल के अंधेरे से बाहर निकलते उनकी आँखें अभी सेट ही हो रही थीं कि एक करारा थप्पड़ छोटे के मुँह पर पड़ा। पिताजी और पिताजीनुमा बड़े भैया सामने खड़े थे। जूही को कौन याद करे, सन्नी देओल भी बेचारा क्या करता। वह अपने रकीबों से दूर पोस्टर पर ही जमा रहा। दोनों बांके पब्लिकली पीटा गए। उनको भी रात और दिन का फर्क समझ आ गया था। दोनों को पकड़ कर गरियाते हुए घर लाया गया। ऐसे इलाकों में पिक्चर जुमे की मोहताज नहीं होती, सिनेड़ी समाज के उम्मीदों के अनुसार, अगले ही रोज वहाँ 'खलनायक'लगा दी गयी थी।

गाँव वालों ने इस कांड के बाद दोनों को लखेरा और पागल घोषित किया। कुछ रोज तक सपनों में जूही बुलाती रही । 'ओ लुटेरे ओ लुटेरे''मैं तेरी रानी'और थक-हारकर, नाच-गाकर पर्दे और मन से उतर भी गयी। हालांकि जाते-जाते एक रोज सपने में वह छोटे वाले से शिकवा भी कर गयी थी "कुछ भी ना कहके हम तो हारे हैं, तुम हमारे हो, हम तुम्हारे हैं"- पर असल हार तो इन दोनों बाँको की ही हुई थी। कहने वाले कहते हैं कि वैसे बांके सिनेमची पूरे इलाके में न हुए। वह तो शुक्र है बाप ने उन्हें अलगा दिया वरना जूही को क्या पता कि उनके लिए किन्हीं दो दीवानों ने हॉल तक खरीदने की कोशिशें की थी। गोपालगंज के एक इलाके को यह गौरव एक अदद खलनायक पिता की वादाखिलाफी के कारण मिलते मिलते रह गया। एक को सऊदी की ओर भेज दिया गया दूसरा बाप के साथ चीनी मिल के फ्रेस की ठेकेदारी में मन मारकर हाथ बंटाने लगा। अरमानों की कली फूल न बन सकी। कौन कहता है आज मुगल-ए-आज़म नहीं होते और शहज़ादे सलीम को अनारकली से जबरिया अलग नहीं किया जाता? ऐसे कितने ही 'मासूम'सपने हवा हुए हैं। खैर, "ओ लुटेरे ओ लुटेरे ओ लुटेरे...मेरे अपने भी जो गए तेरे"- जो कभी जूही ने कही, वह उन दीवानों के गाँव वालों द्वारा मजाक बनाये जाने पर खत्म हुई लेकिन वह अपने मन को समझाते रहे - "प्रीत की रीत सदा चली आयी, हीर पे रांझा मरता है।"- एक रोज छोटे से बात हुई तो वह खैनी रगड़ कर मुँह में डालते हुए बोले - "बड़े भाई न रहे, हमारी जोड़ी टूट गयी। नहीं तो कहाँ-कहाँ जाकर न देखें थे, एक से एक सिनेमा। अब क्या देखे फ़िल्म भाई, छत्ता में से मध (शहद) निकल गया। अब जो सिनेमा हैं, वह अपना नहीं।"- धानरोपनी करवा रहे उस दीवाने को हमने देखा हैं। उनका ड्राइवर बताता है-"भैया के स्कार्पियो में खाली वही सब गीत बजता है"। हद है, ऐसे दीवानों के अरमानों के भी 'लुटेरे'कोई 'सुक्खी लाला'रहे हैं उफ्फ्फ!!


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

 https://www.outlookhindi.com/art-and-culture/story/nostalgia-two-youths-one-film-and-juhi-chawlas-main-teri-rani-tu-raja-mera-64103

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