नट सम रिझवन तोहि की टेक : भारतेंदु का रंगचिंतन
देसवा और भोजपुरी के सामने के सवाल
लौंडा डांस, रसूल मियां : एक विस्मृत गाँधीवादी
# एक थे रसूल मियां नाच वाले
रसूल पर अपना शोध-पत्र लिखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाषचंद्र कुशवाहा कहते हैं ‘मेरे पिताजी नाच देखने के शौक़ीन थे. मैंने रसूल और उनके नाच के बारे में बचपन से पिताजी कथा सुनी थी कि उन्होंने तमकुही राज (उत्तर प्रदेश और बिहार का सीमाई इलाका) में रसूल का नाच देखा था. वहां नाच में रसूल ने गीत गाया था ‘इ बुढ़िया, जहर के पुड़िया, ना माने मोर बतिया रे, अपना पिया से ठाठ उड़ावे, यार से करे बतिया रे’ किसी ने रानी को यह चुगली कर दी कि रसूल ने इस गीत में आप पर तंज कसा है. फिर क्या था रानी ने रसूल को बुलवाया और उनकी पिटाई करवा दी, जिसकी वजह से रसूल के आगे के दांत टूट गए. लेकिन बाद में शोध के क्रम में मैंने पाया कि यह मामला तमकुही नहीं बल्कि हथुआ स्टेट (महाराजा ऑफ़ हथवा) दरबार से जुड़ा हुआ था. बाद में रानी ने रसूल को खेत और कुछ और इनाम देकर सम्मानित किया. लेकिन एक जरुरी बात इसमें यह भी है कि रसूल के ऊपर कोई लिखित दस्तावेज मौज़ूद न होने की वजह से मैंने जो उनके समकालीनों से सुना और जो थोड़ा बहुत मिला, उसी के आधार पर एक मौखिक इतिहास को लिखित फॉर्म में सामने लाया.
# पैदाईश का समय
# गांधी, सुराज और रसूल
# नज़ीर अकबराबादी की परंपरा के रसूल
# रसूल मियां, फिल्में और चित्रगुप्त
यह प्रामाणिक सत्य है कि दोनों ही सट्टा लिखाकर नाच दिखाते थे. प्रसिद्ध नचनिया(नर्त्तक) के नाम पर रसूल के पास राजकुमार थे तो भिखारी ठाकुर के पास रामचंद्र। दोनों में एक बड़ी समानता अभिनय क्षमता की भी थी।दोनों ही अपने नाटकों में मुख्य भूमिका निभाते थे. भिखारी ठाकुर जहाँ ‘बिदेसिया’ में ‘बटोही’, ‘गबरघिचोर’ में ‘पञ्च’, ‘कलियुग प्रेम’ में ‘नशाखोर पति’, ‘राधेश्याम बहार’ में ‘बूढ़ी सखी’ तथा ‘बेटी वियोग’ में ‘पंडित’ की भूमिकाक निभाते थे, वहीं रसूल ‘आज़ादी’ में ‘जमींदार’, ‘गंगा नहान’ में बुढ़िया, ‘चंदा कुदरत’ में ‘शराबी’, ‘शांति’ में ‘मुनीम’, सेठ-सेठानी’ में ‘मुनीम’ धोबिया-धोबिन’ में ‘धोबी’ की भूमिका निभाते थे – सन्दर्भ : लोकरंग-1
रसूल मियाँ के अब तक जितने भी प्राप्त गीत हैं, वह नाच के मंच पर सब खेले गए गीत हैं उन्होंने साहित्य सर्जना के लिए गीत नहीं लिखे थे बल्कि अपने लौंडा नाच पार्टी के कथाओं को आगे बढाने के लिए जनता को अपने साथ जोड़ने के लिए लिखा. दुर्भाग्य है कि उनको नचनिए या नाच पार्टी चलाने वाले के तौर पर याद रखा गया. रसूल के नाच और गीतों में समाज के सवाल तो हैं पर उनकी राजनीतिक समझ बेहद बारीक है और इस मामले में में वह भिखारी ठाकुर से बीस ठहरते हैं पर यहाँ सबकी किस्मत में भिखारी ठाकुर होना कहाँ लिखा होता है.
जिसकी जुबां उर्दू की तरह थी दिल हिंदुस्तान की तरह - टॉम आल्टर सन्दर्भ : किताब / कमलेश के मिश्र
https://www.youtube.com/watch?v=oez4TSdZvJI सचिन और टॉम अल्टर का लिंक |
राज्यसभा टीवी के एक कार्यक्रम में साक्षात्कार देते हुए टॉम आल्टर ने कहा "मैं राजेश खन्ना का भक्त हू और नसीरुद्दीन शाह की एक्टिंग का दीवाना". राजेश खन्ना की फिल्म आराधना से प्रभावित होकर ही वह अभिनय में आए थे. |
https://www.youtube.com/watch?v=HcFaA9hRjOcकिताब शार्ट फिल्म टीजर लिंक |
गायकी में जल्दबाजी नहीं चलती - भरत शर्मा 'व्यास'
कलकत्ते में मेरी मुलाकात कुछ व्यास लोगों से हुई, जिनके सानिध्य में बहुत कुछ सीखने को मिला. वहाँ बहुत सालों तक रामायण गाया. फिर जब ऑडियो का जमाना आया तब मैंने अपने गाने रिकॉर्ड भी करवाने शुरु कर दिए. लोकगीत और भजन गायन से मैंने अपने कैरियर की शुरुआत की थी. साल 1971में गांव के एक कार्यक्रम से अपनी कैरियर की शुरूआत की थी. जैसाकि मैंने कहा फिर मैं कलकत्ता गया, जहाँ बहुत कुछ सीखने को मिला. 1989में सबसे पहली एल्बम 'दाग कहां से पड़ी'और 'गवनवा काहे ले अईलअ’मेरी पहली एल्बम थी जो मैंने आर-सिरीज़ में रिकॉर्ड किया. उसके बाद टी-सीरिज से भी बहुत सारे एल्बम रिकॉर्ड किए.
निर्गुण का अर्थ होता है आत्मा, जिसके ऊपर किसी भी गुण का कोई असर नहीं होता. जो अब परमात्मा के अलावा कुछ नहीं जानता और सगुण जो है वह ठीक निर्गुण के उल्टा होता है. हम जो जीवित, सांसारिक लोग हैं वो सगुण है. और ईश्वर प्राप्ति के लिए जो आत्मा है वह निर्गुण है.
मैंने शुरु से रामायण और शास्त्रवत गाया और पढ़ा. मुझमें वही संस्कार था. फिर कबीर को पढ़ा तब दिल में इच्छा हुई कि क्यों ना निर्गुण गाया जाए. भोजपुरी में निर्गुण उसके पहले बहुत कम या न के बराबर था.
मैंने पहला निर्गुण 'गवनवा के साड़ी' 1992में टी-सीरिज के एल्बम में गाया. कोहलीजी ने पूछा ये क्या है. तब मैंने उन्हें समझाया. उन्होंने बहुत मुश्किल से इसके लिए हामी भरी.पर जब यह कैसेट बाज़ार में उतरा तो इसने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. इतना ही नहीं इसके बाद सभी कंपनियों ने अपने गायकों से निर्गुण गाने की शर्त रख दी. अभी तक निर्गुण के कुल 40 कैसेट बाजार में आ चुके हैं.
सन 71 में जब पहली बार यहां आया तब उम्र भी कम थी और तजुर्बा तो कुछ था ही नहीं. पर वहाँ कुछ लोग जैसे बच्चन मिसिर, गायत्री ठाकुर, राज किशोर तिवारी जैसे लोगों का बहुत साथ मिला.कलकत्ता पहुंचने के अगले ही दिन हिन्दुस्तान मोटर्स कॉलोनी में रामायण का आयोजन था, जहाँ मैं भी दर्शक बनकर पहुंचा था.
ब्रेक के दौरान वहीं पर आए एक आदमी ने मुझे पहचान लिया और पूछा कि कलकत्ता क्या करने आए हो.मैंने जवाब दिया गाना सीखने, तो उन्होने मुझे उसी रामायण मंडली में गाने का मौका दे दिया. फिर गाते गया और सीखते गया. अब वह दिन है और आज का दिन. जहाँ तक कलकते में तब जितनी भोजपुरी की बात है तो वह तो हमलोगों के पलायन का बड़ा केंद्र रहा है. अब वहाँ बड़ी संख्या में स्थापित भोजपुरिये हैं. कलकत्ता सांस्कृतिक रूप से भी बहुत उर्वर है.
कोई भी गीतकार या कलाकार फायदा-नुकसान का सोचेगा तो वह कलाकार नहीं व्यापारी कहलाएगा.आप खुद भी देख लीजिए. कोई भी गायक जिसने क्षणिक लाभ यानी कुछ कागज़ के नोटो के लिए अश्लील गाने गाए हैं, उसका आज कोई नामलेवा नहीं है. मेरी शुरु से ऐसी प्रवृत्ति रही है कि मैंने जूझते कलाकार को आगे बढ़ाने का काम किया है. चाहे वो गोपाल राय हों या कोई भी, सबको मैंने अपनी क्षमता भर मदद की है.
कुछ ऐसे भी हैं जिनका मैं नाम नहीं लूँगा, जिनको मैंने आगे बढ़ाया पर आज वह अश्लील गाने गाते हैं.सामने अब मुझसे नज़रें चुराते हैं, शर्माते हैं.पर मैंने अपने जीवन में कभी ना गलत सोचा नहीं कभी किया. हमारा नैतिक कर्तव्य है कि आने वाले पीढ़ी के लिए कुछ अच्छा छोड़ कर जाएं.
यह रास्ता कठिन है लेकिन स्थायी महत्त्व का है. इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए.इधर लड़कियों में चन्दन तिवारी एक उम्मीद की तरह है, लालच वाले बाजार के सामने उसकी भी राह कठिन है लेकिन वह बेहतर कर रही है.
मुझे यह संतोष है कि आज से पचास साल बाद जब मेरी भावी पीढ़ी मेरे गीत सुनेगी तो मुझे गाली नहीं देगी. दूसरी बात संस्कारों की है.मैंने शुरु से राम और कृष्ण को ही गाया है. कबीर को पढ़ा है.निर्गुण गाया है. इसलिए कभी दिमाग नहीं गया अश्लीलता की तरफ. हां! जीवन में मौका बहुत मिला है, अश्लील गाने के लिए. मेरे कैसेट कंपनी वाले बोलते थे कि भरत जी कुछ चटकदार गाइए लोग पसंद करेंगे. बहुत बार तो प्रेशर भी किया गया पर मैंने झुकना नहीं सीखा है गलत चीज़ों के सामने.
आज बस मेरे ही कार्यक्रम में हमारी महिला श्रोताएं आती हैं. बाकी सब जो आज कल के गायक हैं, उनके शो में हिस्सा लेने से डरती हैं. यह मेरी उपलब्धि है मेरी गायकी का सम्मान है. लोगों की आँखों में श्रद्धा देखता हूँ तो तमाम चीजें अलग हो जाती हैं और क्या चाहिए. ऐसा वह नहीं कह सकते जो ख़ुद तो गंदा गाते ही हैं, साथ ही साथ नाचने -गाने वाले हुडदंग मचाने वालों को भी अपने साथ स्टेज पर जगह देते हैं.
मैं आज भी जूता पहन कर स्टेज पर नहीं जाता. जब भी गाता हूं तो बैठ कर गाता हूं. कोई अभद्र भाषा या व्यवहार करने वाला मेरे अगल-बगल भी नहीं रहता. भजन, निर्गुण गाता हूं. महिलाएँ सुनती हैं, झूमती हैं. यही मेरे लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है.कोई सम्मान इससे बढ़कर हो ही नहीं सकता. इसलिए मेरे लिए मेरा हर शो मेरे तमाम दर्शक मेरे लिए न भूलने वाले वाकये हैं, किसी को कम कह भी कैसे दूँ. सब यादगार लम्हें हैं.
पिछले साल एक युवक उदीप्त निधि मुझसे मिलने मेरे घर आया और उसने आग्रह किया कि वो मेरी जीवनी लिखना चाहता है. वह युवा पत्रकार है. “The TrickyScribe” जो कि दिल्ली की एक अंग्रेजी मैगज़ीन है,उसमें पटना की तरफ से बतौर लीड रिसर्चर का काम करता है. भोजपुरी उनकी मातृभाषा है और डुमरांव इनका पैतृक घर. मैंने उन्हें अपनी जीवनी लिखने की अनुमति दी है और करीब 8महीने से यह काम लगातार चल रहा है. मैं बता दूं कि लेखक भी दो तरह के होते हैं.एक जो कल्पना की दुनिया में डूब कर लिखते हैं और दूसरे वह जो रिसर्च करके डॉक्युमेंटेड फैक्ट लिखते हैं. उदीप्त दूसरी तरह के लेखक हैं.वह मेरी जीवनी पहले अंग्रेजी में लिख रहे हैं, फिर इसका हिन्दी वर्जन भी आएगा. उम्मीद है 4-5महीने में यह पुस्तक मार्केट में आप सब के बीच होगी.
जिसके लिए तवायफों ने अपने गहने उतार दिए : पूरबी सम्राट महेंद्र मिश्र
रुपया ले गईले,पईसा ले गईलें,ले सारा गिन्नी
ओकरा बदला में दे गईले ढल्ली के दुअन्नी'
हंसी हंसी पानवा खिअवले गोपीचानवा पिरितिया लगा के ना …
मोहे भेजले जेहलखानवा रे पिरितिया लगा के ना …
ब्रिटिस के कईलs हलकान ए महेन्दर मिसिर
सगरे जहानवा मे कईले बाडs नाम ए महेन्दर मिसिर
पड़ल बा पुलिसिया से काम ए महेन्दर मिसिर
हीरा मन अभिनेता : पंकज त्रिपाठी
"मुझे पता है मेरे बन की रानी कहाँ सोई है/
जहाँ चमेली महक रही है और सरसो फूली है/
जहां कनेर के पेड़ पे, पीले - पीले फूल सजे हैं/
आस -पास कुछ उगे फूलों की भी बेल चढ़ी है/
जहां गुलाब के, गुलअब्बास के फूल ही फूल खिले हैं..."
यह वाकई उसी वनबेला के फूलने का समय है।
शुक्रिया
हर्षिल डायरी - 1
बिना किसी बड़ी योजना के यूँ ही Joginder ने उस दिन तैयार कर लिया कि कम से कम चीला होकर आ जाएँगे. लेकिन चीला में दो रातों बाद ऋषिकेश के पहाड़ों ने ऊपर आने के लिए डाक देना शुरू किया और वह यह काम पहले दिन की सुबह से ही करने लगे थे. उन्हें पता था कि इस आदमी (मैं ही) के भीतर बेचैनी बैठी रहती है कि गढ़वाल हिमालय के दुर्गम इलाकों की झलक ना ली तो क्या उतराखंड आए. मुझे हमेशा लगता है हरिद्वार ऋषिकेश आना गढ़वाल आना नहीं बस गंगा दर्शन और डुबकी, संध्या आरती के लिए आना भर ही है यह मुहाने से लौटना है इसलिए ऋषिकेश से उपर चढ़ते लगता है किसी रोगी को ऑक्सीजन दे दिया गया हो. नीत्शे बबवा कह गया था 'मैं यायावर हूँ और मुझे पहाड़ों पर चढ़ना पसंद है.'लेकिन मेरे लिए भी सच यही है. चीला से आगे जाने की बात सुन फारेस्ट गेट के टपरी वाले चाय दूकान पर पंडित जी ने पूछा था कहाँ की ओर ? अनमने ढंग से पहले कहा - सोचा है खिर्सू लेकिन हम हर्षिल (गंगोत्री) चल दिए. वैसे हर्षिल वाली बात सुनकर पंडित जी ने वही कहा होता जो खिर्सू सुनकर मुस्कुराकर कहा था - शुभास्तु पंथान : . और हम हर्षिल चल दिए. मेरे ख्याल से जोगी, ऋचा और कौस्तुभ के लिए तो ठीक था कि वह नज़ारे देख देख प्रफुल्लित हो रहे थे पर कसम से यही मौका होता है जब पहाड़ों में ड्राईविंग करने वाले मेरे जैसे मैदानी लोग अपनी किस्मत खूब कोसते हैं और दूसरों की किस्मत से रस्क खाते हैं क्यूंकि सामने नज़र रखते और हर मोड़ पर सतर्क रहते आधा सौन्दर्यबोध यूँ ही हवा रहता है लेकिन बाकी के आधे में मन कहता है -चरन्वं मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदुम्बरम् - चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है- सो चरैवेति चरैवेति - सो मैं भी चलता रहा आखिर पहाड़ी राजा विल्सन के इलाके के सेबों की मिठास और 2500 मीटर की ऊँचाई के देवदारों, सेबों के बागान और महार और जाट रेजिमेंट के बीच से गंगा को नीचे देखते जाने की कबसे तमन्ना थी जो एक बार बीए में पूरी हुई सो अब तक बदस्तूर जारी है. फिर मेरे लिए कैशोर्य अवस्था से वह पोस्ट ऑफिस भी तो एक बड़ा आकर्षण रहा है जहाँ गंगा हँसते हुए पोस्टमास्टर बाबू को यह कहते हुए निकल जाती कि पहाड़ों की डाक व्यवस्था अजीब है. हाय! राजकपूर ने भी क्या खूब जगह चुनी. गंगा और बंगाली भद्र मानुष नरेन के मिलन बिछुरन वाले प्रेम कथा के लिए. इस जगह से मुफीद जगह क्या ही होती. किस्से पर वापसी - उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर चढ़ते हुए 4 से थोड़ा ऊपर का समय हो या था तिस पर अक्टूबर और पहाड़ों में अँधेरा वैसे ही तेजी से उतर जाता है और यदि वह पहाड़ी रास्ता उतरकाशी से हर्षिल-गंगोत्री रूट पर हो, शाम ढल रही हो, सर्दियों का उठान हो और गाड़ी चलाने वाला एक ही व्यक्ति हो तो आगे की सोच कर चलना ही ठीक रहता है. हमने थोड़ी देर उत्तरकाशी से थोड़ा ऊपर रूककर चाय और मैगी गटकने के बाद तय किया कि जिस तरह ऋषिकेश से यहाँ तक आए हैं उस लिहाज से आगे 3 साढ़े 3 घंटे में हर्षिल पहुँचकर ही आराम करेंगे. मुझे कुछ ख़ास थकान नहीं लग रही थी और सच कहूँ तो मन के कुहरे में वह बात साफ़ थी कि अब रुकें तो हर्षिल ही, सो चल पड़े. शाम उतरने लगी थी,वातावरण में ठंडक बढ़ रही थी और गाड़ी के भीतर इसका अहसास हो रहा था. सब खुश थे पिकू महाराज भी एक गहरी नींद मार जाग चुके थे और उनके लिए मैंने उनके पसंद के गीतों को चला दिया था. इस पूरे रास्ते में मैंने अतिउत्साह में एक गलती की थी जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वह खामियाजा भी एक नया और अलग अर्थ में सुखद याद बन गया. सुकी मठ हर्षिल से थोड़ा पहले है और उससे पहले आईटीबीपी का कैम्प है. यह जगह हर्षिल से भी ऊँची है और इस गाँव में भी सेब खूब होता है पर इस जगह कोई यात्री नहीं रुकता वह या तो हर्षिल , धराली या सीधे गंगोत्री ही रुकता है जो यहाँ से 2 घंटे आगे है. इसी सुकी मठ गाँव से 2 किमी नीचे कार ने एकाएक धुआँ देकर चुप्पी साध ली बेचारी सुबह से लगातार टेढ़े मेधे ऊँचे नीचे अच्छे ख़राब रास्तों पर चल रही थी वह उस सांझ, वीरान जगह पर मुँह फुला झटके बैठ गई - मैंने ध्यान नहीं दिया था उसका हीट लेवल बढ़ा हुआ था और मैं बतकुच्चन में बिना ध्यान दिए गाड़ी को तेजी से राम तेरी गंगा मैली के इलाके में खींचे जा रहा था. गाड़ी का वाटर पम्प पता नहीं कैसे टूट गया था. सारा कूलेंट पानी स्वाहा. थोड़ी देर बाद बगल से गुजरते डम्पर वाले ने देखा कि शहरी बाबु लोग किसी दिक्कत में हैं तो उस संकरे रस्ते पर आकर उसने अपना बेशकीमती आधे घंटे का समय हमारे हिस्से खर्च किया. किस्मत अच्छी थी कि ठीक बगल में एक पहाड़ी नाला ऊपर से आता हुआ तेजी से नीचे खाई में चिल्लाता हुआ गंगा में उतर रहा था. उसके पानी से कार का गुस्सा ठंडा किया गया और अब गाड़ी इस हालत में आ गयी थी कि सुक्की तक चली जाए पर आईटीबीपी कैम्प तक चढ़ते चढ़ते गाड़ी ने अजीब चीखें मारनी शुरू की और हर्षिल गंगोत्री जाने वाले समझ सकते हैं कि उस रास्ते पर सुकी गाँव के पास निहायत खड़ी चढ़ाई है, जैसे मसूरी में लैंढूर से चार दूकान की ओर जाते हुए का रास्ता. खैर कैम्प के आगे बलवंत सिंह जी की चाय की दूकान लगभग बंद हो ही गई थी पर हमें देख उनकी उम्मीद बढ़ी कि थोड़ी देर और रुक गया तो कुछ आमदनी हो जाएगी. उनकी उम्मीद गलत नहीं थी. हमनें दबा के मैगी और ग्लास भर निम्बू चाय पी, दूकान के जलतीनुमा आग में सम्भावना तलाशते हुए सुकी में रुकने का मन बना लिया. वहाँ होटल जैसा कुछ नहीं था कमरे मिल गए थे जिसमें शौचालय था और खाना बनाने का रिवाज होटल वाले ने सीखा नहीं था-रात पूरे चाँद की थी. उस पर फिर कभी लेकिन कार के खड़ी किए जाने की जगह से रुकने की जगह भी 3 किमी थी पर सुविधा यह थी कि कमरे के बाहर आकर सामने झाँकों तो ताज़ी झरी सफेदी ओढ़े हिमालय उसके पैताने उत्तरकाशी, महादानव टिहरी बांध, देवप्रयाग को जाती भागीरथी और उसके आगे जाती गंगा तो दाहिनी ओर नीचे दिखते हरियल छत के कैम्प के कोने में बलवंत जी के टपरी के मुहाने अगले दिन आने 70 किमी दूर नीचे उत्तरकाशी से आने वाले मिस्त्री की और उपकरणों की उम्मीद मे हमारी डिजायर 1040.और हाँ उस जगह हमने मज़बूरी में शरण ली और तीन दिन रुके उसी जगह ख़ुशी ख़ुशी जी वही जगह जहाँ रात को खाना भी खुद ही बनाने में होट-ल वाले भले युवक के परिवार का सक्रिय सहयोगी बनना पड़ता था .इतनी दफे गंगोत्री गया हर्षिल गया दो बार आगे गोमुख और तपोवन तक गया पर हर्षिल इ थोड़ा ही पहले पड़ते इस जगह पर नजर ही नहीं जाती थी.सच ही तो है जीवन में कई बड़ी दूर की आसन्न खुशियों और चीजों के फेर में हम छोटी और पास की चीजों को कैसे अनदेखा कर देते हैं अनजाने ही ...(क्रमशः)
हर्षिल डायरी - 2
स्क्रीन पर दर्दीली कविता की उपस्थिति : म्यूजिक टीचर
एक थे रसूल मियाँ नाच वाले
रसूल पर अपना शोध-पत्र लिखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार सुभाषचंद्र कुशवाहा कहते हैं ''मेरे पिताजी नाच देखने के शौक़ीन थे । मैंने रसूल और उनके नाच के बारे में बचपन से पिताजी कथा सुनी थी कि उन्होंने तमकुही राज (उत्तरप्रदेश और बिहार का सीमाई इलाका) में रसूल का नाच देखा था । वहाँ नाच में रसूल ने गीत गाया था “इ बुढ़िया, जहर के पुड़िया, ना माने मोर बतिया रे,अपना पिया से ठाठ उड़ावे, यार से करे बतिया रे”किसी ने रानी को यह चुगली क्र दी कि रसूल ने इस गीत में आप पर तंज कसा है । फिर क्या था रानी ने रसूल को बुलवाया और उनकी पिटाई करवा दी, जिसकी वजह से रसूल के आगे के दांत टूट गए । लेकिन बाद में शोध के क्रम में मैंने पाया कि यह मामला तमकुही नहीं बल्कि हथुआ स्टेट (महाराजा ऑफ़ हथवा) दरबार से जुड़ा हुआ था । बाद में रानी ने रसूल को खेत और कुछ और इनाम देकर सम्मानित किया । लेकिन एक जरुरी बात इसमें यह भी है कि रसूल के ऊपर कोई लिखित दस्तावेज मौजूद ना होने की वजह से मैंने जो उनके समकालीनों से सुना और जो थोड़ा बहुत मिला, उसी के आधार पर एक मौखित इतिहास को लिखित फॉर्म में सामने लाया ।" |
यह प्रामाणिक सत्य है कि दोनों ही सट्टा लिखाकर नाच दिखाते थे। प्रसिद्ध नचनिया(नर्त्तक) के नाम पर रसूल के पास राजकुमार थे तो भिखारी ठाकुर के पास रामचंद्र। दोनों में एक बड़ी समानता अभिनय क्षमता की भी थी।दोनों ही अपने नाटकों में मुख्य भूमिका निभाते थे।भिखारी ठाकुर जहाँ ‘बिदेसिया’ में ‘बटोही’, ‘गबरघिचोर’ में ‘पञ्च’, ‘कलियुग प्रेम’ में ‘नशाखोर पति’, ‘राधेश्याम बहार’ में ‘बूढ़ी सखी’ तथा ‘बेटी वियोग’ में ‘पंडित’ की भूमिकाक निभाते थे, वहीं रसूल ‘आज़ादी’ में ‘जमींदार’, ‘गंगा नहान’ में बुढ़िया, ‘चंदा कुदरत’ में ‘शराबी’, ‘शांति’ में ‘मुनीम’, सेठ-सेठानी’ में ‘मुनीम’ धोबिया-धोबिन’ में ‘धोबी’ की भूमिका निभाते थे - सन्दर्भ : लोकरंग-1 |
खाओ कसम कि अब किसी ... लाली (शॉर्ट फिल्म)
लहसनवाँ हीराबाई के यहाँ क्यों टिका? मालूम है? उसने हिरामन और साथियों को बताया था कि ‘हीराबाई के कपड़े धोने के बाद कठौत का पानी अतर गुलाब हो जाता है. उसमें अपनी गमछी डुबाकर छोड़ देता हूँ. लो सूँघो ना कैसी खुशबू आती है.’ – यही खुशबू तो शिवपूजन सहाय बाबू के धोबी को मिली है उसको भी एक दिन संयोग की बात ऐसी सनक सवार हुई कि वह कबूल बैठा ‘मैं उर्वशी और रंभा की साड़ियों और कुर्तियों को एकांत में सूंघ रहा था. उनकी मानसोन्मादिनी सुरभि से मस्तिष्क ऐसा आमोदपूर्ण हो गया कि आँखों में मादकता की गहरी लाली उतर आयी.’ – शार्ट फ़िल्म “लाली” ( Laali Review ) देखते हुए हम उसके मुख्य नायक के साथ इन मानवीय भावों और उसके मनोविज्ञान को महसूसते हैं जिसे रेणु या शिवपूजन सहाय ने कभी लिखा था. इसमें अनायास ही कथानायक पंकज त्रिपाठी के एकाकी जीवन में यह भाव शामिल हो गया है, जहाँ वह लाली के लालित्य को सूँघता आत्मसात करने लगा है. यह साधारण कथा नहीं है बल्कि इसके हर फ्रेम में चिन्हशास्त्र का अद्भुत आख्यान है. लेखक ने अपने निर्देशन में एक मुकम्मल साहित्यिक पाठ रचा है, जो शब्दों से अधिक इशारों में संवाद करती है और अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने निर्देशक की सोच को अपने अभिनय कौशल से लोक की नैसर्गिक सरसता में रूपांतरित करके साहित्यिक सिनेमाई भाषा में ढाल दिया है.

अभिरुप बसु लिखित निर्देशित शार्ट फ़िल्म “लाली” आधे घंटे से थोड़े ऊपर जाती है और पूरी कथा का चक्र पंकज त्रिपाठी के किरदार के आसपास चक्कर काटता है. एकावली खन्ना बेहद कम किन्तु जरूरी हिस्से के रूप में आती हैं. निर्देशक को अपनी लिखी कथा और उसके गढ़े दृश्यों में इतना भरोसा और महारत है कि उन्होंने संवाद और दृश्य भी तोल के रखे हैं, न सूत भर कम न, धेले भर ज़्यादा. हम इस फ़िल्म के फ्रेम दर फ्रेम में अभिनेता पंकज त्रिपाठी के अभिनय कौशल की मिश्री को घुलकर आबे-हयात होते देखते हैं. आपको उनका किरदार याद रहता है, उसका मायावी नाम नहीं. शुरुआत ही लंबे वन टेक शॉट के साथ होती है और आप लगातार किरदार के एक्शन्स में खुद भी किस्से के बहाव को तलाशने लगते हैं. किस्सा क्या है – ऊपरी तौर पर बस एक अकेला शख्स, एक जनाना ड्रेस और उसके साथ उस आदमी का जिया गया चंद पहरों में कुछ क्षण. जिनमें वह किरदार है और उस लाली की मधुर स्मृतियाँ, एक बिम्ब, जिसमें उसका, उससे यूँ ही मन का करार था.
बिहार के भोजपुरी इलाकों से कलकत्ते की ओर गए बिदेसियों की एक आधी हकीकत और आधे फसाने की ज़िंदगी का एक सच यह भी रहा है- एककी जीवन में एक लाली का स्वप्न. धर्मतल्ला के आसपास पतुरिया का नाच देख नौजवान बिदेसिया के पास बर बुता जाने को क्या था – देह! उढ़रिया ऐसे ही तो शामिल हुई उसके खालीपन में. और लेखक अभिरुप कलकत्ते की जमीन पर उगे इस दृश्य के एक हिस्से से अपने कथानायक का एकांत और उसकी जिंदगी के एकरसता को चुनते हैं. पंकज त्रिपाठी के लिए कहा जाए तो यह अतिशयोक्ति न होगी कि लाली का यह अभिनेता कोई और ही है, जिससे अपने सिनेजगत का परिचय न था. रेडियो में बेचैन मन का सुकून तलाशते ‘चैन आये मेरे दिल को दुआ कीजिए’ वाला किरदार, एक कमरे और चंद फ्रेम की ज़िंदगी में एक पोस्टर की कोमल कल्पना के साथ उस ड्रेस को शामिल कर दर्शकों को यह बताने में सफल होता है कि हम सब अपने साथ कुछ आद्य स्मृतियाँ रखते हैं और उनके सहारे एक स्वप्न देखते हैं और जीवन कट जाता है. प्रकाश, लेंस, संगीत और सबसे प्रभावी पंकज त्रिपाठी का अभिनय एकाएक मणिकौल के ‘उसकी रोटी’ जैसा प्रभाव पैदा करने लगता है. हालांकि तुलना असंगत है और अभिरुप को अभी अपने को भी सिद्ध करना बाकी है लेकिन वह खालीपन जो सुच्चा की बीवी के हिस्से के इंतज़ार में दिखता था, उसका सबसे जटिलतम और महीन विन्यास पंकज त्रिपाठी के अभिनय में लाली में उभरता है. खासकर उस किरदार के सपने के टूटने और उन चंद घड़ियों की लाली के टूट जाने के क्रम में जब पंकज त्रिपाठी हारकर थसमसा कर बैठते हैं तो लगता है गोया वाकई जीवन का एक हिस्सा ही खत्म हो गया. रेत आखिर कब तक मुट्ठी में ठहरती. मारे गए गुलफाम के किस्से से गुजरते वह बात जेहन में उभरती है “भूख वही अच्छी जो पूरी हो, प्यास वही अच्छा जो मिट सके, प्यार वही अच्छा जहाँ जुनून हो, प्रेमी वही अच्छा जो जोगी हो और कथा वही अच्छी जो अधूरी हो.” वैसे एक बार जो मन को भा गया , वो तन से साथ न हो, मन में हमेशा रहता है…पूरी तरह से…लेकिन एकाकी और खुद में घुलता. और फिर लाली का कथा नायक तो आईने में झलके अक्स को अपना समझ बैठा है. सो लाली को जाना ही था. यह काव्यात्मक शार्ट फ़िल्म है इसमें उदासी का काफ्काई इफेक्ट है और भावनाओं का ओ हेनरी सिग्नेचर भी.
इस एक मेटाफर को अभिरुप ने बड़ी कमाल और नफासत से रचा है और पंकज त्रिपाठी ने इसे बड़ी खूबसूरती से मूर्त किया है. आखिर गुलफाम के मारे जाने की पीड़ा उनके अध्ययनशील अभिनेता मन ने महसूसा है. ‘मन मतवाला, भोला भाला, भूला जग की रीत . प्रीत की रीत में ऐसा डूबा, प्रीत मिली ना मीत.’…पोस्टर पर गोपालगंज वाली लाली धीरे से अपने नायक को कहती लगती है ‘तुम्हारा जी छोटा हो गया है. है ना मीता? तुम्हारी महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद लिया….’ पर फिर पंकज त्रिपाठी का किरदार सुन कहाँ रहा है –
‘जो ग़मे हबीब से दूर थे वो खुद आग में जल गए/
जो ग़मे हबीब को पा गए वो ग़मों को हँसके निकल गए.”
लाली धीमे स्वर में बतियाती कविता की तरह का आख्यान है. इसका कथानायक करे क्या! उसके जीवन में एक बिजली की कौंध सुख की, कामना की, एक हल्की रूमानी मादकता साया हुई और तुरंत फना भी. लाली अपने कथा ट्रीटमेंट से मुस्कुराने पर मजबूर करती है. यह देखने लायक जरुरी शार्ट फ़िल्म है. अभिरुप बसु भविष्य की बड़ी उम्मीद जगाते हैं और पंकज त्रिपाठी का यह अनजाना, अनचीन्हा अभिनय है, जिसे अब तक देखा नहीं गया है. एक अभिनेता के लिए लाली का टेक्स्ट और ट्रीटमेंट एक परीक्षा है, पंकज त्रिपाठी ने इसे निभाया भी उसी तरह है. लाली का अंतिम दृश्य हिरामन की कसम की तरह जान पड़ता है. पर किरदार का भाव और प्रसाद की उन काव्य पंक्तियों की तरह है ‘मिला कहाँ वह सुख, जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया, आलिंगन में आते आते मुस्कयाकर जो भाग गया.’ – जब पंकज त्रिपाठी का किरदार गोधूलि के सूर्य सा काउंटर पर दूल्हे की शेरवानी डाले बैठा है. रेत घड़ी ने कहीं सारा रेत उलट कर समय घड़ी को उस पल में रोक दिया है और उसी समय कहीं किसी जगह एक हिरामन बैलों को डपटते हुए कह रहा है – ‘उलट उलट कर क्या देखते हो ? खाओ कसम की अब किसी…और तभी एक बारात सामने से गुजर जाती है. यह दर्शन मन कहाँ समझता है कि सवारी तो अपने मंजिल पर गयी, इसमें उदास होने की क्या बात है. पर मन…मन तो समझते हैं ना आप?
यह पंकज त्रिपाठी के प्रशंसकों के लिए उनके अभिनय का जादुई सरप्राइज है और लेखक निर्देशक अभिरुप बसु के साहित्यिक सिनेमाई सूझ और कौशल का प्रमाण.
-Munna K Pandey
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भोजपुरी के पहले ऑर्केस्ट्रा बैंड वाले 'मोहम्मद खलील'
विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान -डॉ. रामजीलाल जांगिड
(यह लेख स्वतंत्र लेखन श्रेणी का लेख है। इस लेख में प्रयुक्त सामग्री, जैसे कि तथ्य, आँकड़े, विचार, चित्र आदि का, संपूर्ण उत्तरदायित्व इस लेख के लेखक/लेखकों का है भारतकोश का नहीं। लेखक- डॉ. रामजीलाल जांगिड)
विश्व भर में बोलचाल के लिए लगभग 3,500 भाषाओं और बोलियों का प्रयोग किया जाता है, किंतु एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक लिखकर बात पहुँचाने में इनमें से 500 से अधिक भाषाओं या बोलियों का इस्तेमाल नहीं होता। मौखिक और लिखित दोनों प्रकार के संचार के लिए काम आने आने वाली भाषाओं में से लगभग 16 भाषाएँ ऐसी हैं, जिनका व्यवहार 5 करोड़ से अधिक लोग करते हैं। विश्व की ये 16 प्रमुख भाषाएँ हैं: अरबी, अंग्रेजी, इतालवी, उर्दू, चीनी परिवार की भाषाएँ, जर्मन, जापानी, तमिल, तेलुगु, पुर्तग़ाली, फ्रांसीसी, बांगला, मलय-बहासा (भाषा), रूसी, स्पेनी और हिन्दी। यह गौरव की बात है कि भारत ही ऐसा एकमात्र देश है, जिसकी पाँच भाषाएँ विश्व की 16 प्रमुख भाषाओं की सूची में शामिल हैं। भारतीय भाषाएँ बोलने वाले व्यक्ति भारत सहित 137 देशों में फैले हुए हैं। लेकिन यह दु:ख की बात है कि इस सूची में शामिल भारतीय भाषाओं में प्रमुख हिन्दी का व्यवहार करने वालों की प्रामाणिक संख्या अब तक नहीं जानी जा सकी है। विश्व की प्रमुख भाषाओं का व्यवहार करने वालों के बारे में पश्चिमी देशों के कई विद्वानों ने सर्वेक्षण किए हैं, किंतु इन सब के निष्कर्षों में हजारों का अंतर है। दुर्भाग्यवश एक भी पश्चिमी विद्वान ऐसा नहीं है, जिसने भारत की जनगणना में मातृभाषाओं के बारे में एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण करके और अन्य देशों के हिन्दी भाषियों के आंकड़ों का विश्लेषण करके और अन्य देशों के हिन्दी भाषियों के आंकड़े जमा करके विश्व की प्रमुख भाषाओं की सूची में हिन्दी का सही स्थान निर्धारित किया हो। अन्य देशों के विद्वानों को ही क्यों दोष दें, जब स्वयं भारत और अन्य 136 देशों में रहने वालें करोड़ों भारतवासियों में से किसी ने भी अब तक इस दिशा में वैज्ञानिक ढंग से शोध नहीं किया है। विश्व भाषाओं में हिन्दी का सही स्थान तलाशने का काम तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन से ही शुरू कर दिया जाए तो अच्छा रहेगा। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सिडनी कुलबर्ट द्वारा 1970 में जमा किए गए आंकड़ों के अनुसार बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से विश्व की प्रमुख भाषाओं में (चीन और अंग्रेजी के बाद) हिन्दी का तीसरा स्थान था। अमरीका और फ्रांस के कुछ विद्वानों ने (चीनी, अंग्रेजी और रूसी के बाद) हिन्दी को स्पेनी के साथ चौथा स्थान दिया है। किन्तु मेरी मान्यता है कि विश्व की प्रमुख भाषाओं में (चीनी के बाद) हिन्दी का दूसरा स्थान है। मुझे लगता है कि पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय भाषाएँ बालने वालों के आंकड़ों का गहराई से विश्लेषण नहीं किया। मैं अपने उक्त निष्कर्ष पर दो ढंगों से पहुँचा हूँ: पहले, भारत के राज्यों और संघ क्षेत्रों की 1971 की जनसंख्या का विश्लेषण करके, दूसरे विभिन्न भारतीय भाषाओं और बोलियों का व्यवहार करने वालों की संख्या की जांच-पड़ताल करके। विदेशी विद्वानों ने भारती की जनगणना (1971) के आंकड़ों के आधार पर अपनी तालिकाएँ बनाई हैं, इसलिए पहले यह जांच करना जरूरी है कि भारत की जनगणना (1971) में हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के साथ क्या बर्ताव किया गया है? जनगणना करने वालों ने यह प्रश्न पूछा होता कि क्या मातृभाषा के अलावा आप हिन्दी जानते, बोलने या समझते हैं तो हिन्दी का व्यवहार करने वालों की सही स्थिति सामने आ जाती। किंतु जनगणना विभाग ने भाषाओं और बोलियों के आंकड़े तैयार करते समय कई विचित्र भारतीय भाषाओं की ही खोज कर डाली है। उदाहरण के लिए जनगणना विभाग द्वारा प्रकाशित आंकडों के अनुसार 1971 में भारत में 73,847 लोग ‘किसान’ भाषा, 25,066 लोग ‘क्षत्रिय’ भाषा, 24,624 लोग ‘इस्लामी’ और 5,111 व्यक्ति ‘राजपूती’ भाषा बोलते हैं। वास्तव में किसान खेती करने वाले को कहते हैं, जबकि क्षत्रिय या राजपूत जातिसूचक शब्द हैं और इस्लाम एक संप्रदाय है। व्यवसाय, जाति या धर्म को मातृभाषा बना देना कैसे उचित कहा जा सकता है? इन आंकड़ों का खोखलापन इससे ज्यादा क्या प्रकट होगा कि राजस्थानी के विभिन्न रूपों— मारवाड़ी, ढूंढारी, मेवाड़ी और हाड़ौती को स्वतंत्र मातृभाषाएँ मानते हुए, इनका व्यवहार करने वालों के अलग आंकड़े दिए गए हैं। राजस्थान में सरकारी कामकाज, जनसंचार, व्यापार और शिक्षा का माध्यम हिन्दी है, इसलिए इन्हें हिन्दी परिवार में ही शामिल किया जाना चाहिए था। यही व्यवहार ब्रज, अवधी, बिहारी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, पूर्वी, नागरी और हिन्दुस्तानी के अंतर्गत दिए गए आंकड़ों के साथ किया जाना चाहिए था। कुछ शहरों के नाम से भी ‘भाषाएँ’ दे दी गई हैं। जैसे: भागलपुरी, विलासपुरी, नागपुरी, मुजफ्फरपुरी, हजारीबाग और जयपुरी। इस दोषपूर्ण सूचना या नासमझी का परिणाम यह हुआ कि 1971 की जनगणना में 54.78 करोड़ से कुछ अधिक भारतीयों में हिन्दीभाषियों की संख्या घटकर केवल 15.37 करोड़ से कुछ ज्यादा रह गई। जबकि उस समय वास्तव में हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 40 करोड़ थी। हिन्दी को चौथा स्थान देने वाले विद्वान चीनी, अंग्रेजी, रूसी, और हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या क्रमश: 70,30,20 और 16.5 करोड़ मानते हैं। इसी सूची में बिहारी, राजस्थानी, भीली और गोंडी बोलने वालों की संख्या क्रमश: 4 करोड़, 1.5 करोड़, 20 लाख और 15 लाख दी गई है। जिन राज्यों में इन बोलियों का व्यवहार होता है, उनमें राजकाज, जनसंचार, शिक्षा, व्यापार और घर के बाहर संपर्क की भाषा हिन्दी ही है। इसलिए जिस तरह चीनी के विभिन्न रूपों को ‘चीनी भाषा परिवार’ के अंतर्गत गिना गया है, उसी तरह से इन बोंलियों को ‘हिन्दी भाषा परिवार’ के अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिए। इन बोलियों का व्यवहार करने वालों की संख्या हिन्दी भाषियों की ऊपर दी गई संख्या (16.5 करोड़) में शामिल होने से योग रूसी भाषियों की संख्या (20 करोड़) और गुजराती बोलने वालों की संख्याओं का योग 16.6 करोड़ है। इन भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले भी हिन्दी फिल्मों, हिन्दी प्रसारणों, हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों से आसानी से लाभ उठाते हैं। दसरे शब्दों में इनके दैनिक व्यवहार में हिन्दी की पैठ है। यदि इन्हें हिन्दी परिवार में शामिल कर लिया जाए, तो योग अंग्रेजी का व्यवहार करने वालों (30 करोड़) से 8.95 करोड़ अधिक पहुँच जाता है। इन क्षेत्रों में हिन्दी क्षेत्रों के लोग भी काफ़ी संख्या में बसे हुए हैं। इसलिए यदि पूरी तरह इन्हें शामिल करने में हिचकिचाहट हो तो इनके आधे (8.3 करोड़) लोगों को भी हिन्दी जानने समझने वालों की सूची में रख लिया जाए तब भी योग अंग्रेजी भाषियों से आगे चला जाता है। अब हम राज्यों की दृष्टि से विचार करते हैं। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार की 1971 में संयुक्त जनसंख्या 22.99 करोड़ से कुछ अधिक थी। यह संख्या भी हिन्दी-भाषियों की संख्या 16.5 करोड़ मानने के मार्ग में बाधा है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दमन व दीव तथा अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में कुल जनसंख्या 9.61 करोड़ से कुछ अधिक थी। इन क्षेत्रों में हिन्दी से अपरिचित शायद ही कोई हो, यदि हिन्दी का व्यवहार करने वालों में इनकी संख्या मिला दें तो योग 32.60 करोड़ हो जाता है। भारत की 1971 की जनसंख्या (54.79 करोड़ से कुछ अधिक) में यह संख्या घटाने पर 22.19 करोड़ का आंकड़ा बचता है। ये लोग 15 राज्यों और संघ क्षेत्रों में बिखरे हुए थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं: 1. मिजोरम, 2. मणिपुर, 3. नागालैंड, 4. अरुणाचल, 5. असम, 6. मेघालय, 7. त्रिपुरा, 8. पश्चिमी बंगाल, 9. ओड़िशा, 10. तमिलनाडु, 11. पांडिचेरी, 12. लक्ष द्वीप व मिनिकोय द्वीप समूह, 13. केरल, 14. कर्नाटक और 15. आंध्र प्रदेश। इनमें से एक तिहाई लोग भी हिन्दी बोलने व समझने वाले माने जाएँ तो भारत में ही हिन्दी बोलने वालों की संख्या 40 करोड़ हो जाती है। ओड़िशा, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और पश्चिमी बंगाल में हिन्दी क्षेत्रों के काफ़ी लोग बसे हुए हैं। यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए। इस तरह हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 1971 में रूसी का व्यवहार करने वालों से दुगुनी और अंग्रेजी का उपयोग करने वालों से सवा गुनी मानी जा सकती है। पश्चिमी विद्वानों ने चीनी भाषा का मुख्य क्षेत्र चीन, अंग्रेजी का अमरीका, कनाडा, इंग्लैंड, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड, रूसी का सोवियत संघ तथा हिन्दी का केवल भारत माना है। 15 जुलाई 1980 के आंकड़ों के अनुसार एक करोड़ 10 लाख भारतीय 136 देशों में बिखरे हुए थे। इनमें नेपाल, श्रीलंका, मलेशिया और मॉरीशस में भारतवंशियों का विशेष जमाव था। उदाहरण के लिए केवल नेपाल में ही 38 लाख भारतीय बसे हुए थे। इसलिए हिन्दी जानने वालों की सही संख्या निर्धारित करते समय इन देशों को भूल जाना ठीक नहीं होगा। इसी प्रकार पाकिस्तान और बंगला देश में उर्दू तथा बंगला राजभाषाएँ होने के बावजूद हिन्दी या हिन्दुस्तानी आम तौर पर समझी जानी वाली विदेशी भाषा है। यदि अंग्रेजी के प्रभाव क्षेत्र में ऊपर दिए गए देशों के अलावा अंग्रेजों के भूतपूर्व उपनिवेशों के दो प्रतिशत अंग्रेजी बोलने या समझने वालों को भी जोड़ लिया जाए तब भी अंग्रेजी का व्यवहार करने वालों की संख्या हिन्दी जानने-समझने वालों की तुलना में कम ही रहेगी। हम लोग स्टेट्समैन इयरबुक के 119 वें संस्करण (1982-83) को आधार मानें तब पता चलता है कि अंग्रेजी के मूल क्षेत्र माने जाने वाले देशों अमरीका (1980 की जनसंख्या 22.65), ग्रेट-ब्रिटेन (1981 की जनसंख्या 5.593 करोड़), कनाडा (1981 की जनसंख्या 2.42 करोड़), आस्ट्रेलिया (1980 की जनसंख्या 1.462 करोड़), आयरलैंड (1979 की जनसंख्या 33.7 लाख), और न्यूजीलैंड (1981 की जनसंख्या 32 लाख) की संयुक्त जनसंख्या 1981 के आस-पास 32.782 करोड़ थी। जबकि इसी वर्ष भारत की जनसंख्या 68.39 करोड़ थी। भारत के लगभाग 70 प्रतिशत लोग राजकाज, जनसंचार, शिक्षा, व्यापार या घर के बाहर संपर्क के लिए हिन्दी का प्रयोग करते हैं। यह मानने पर हिन्दी का व्यवहार करने वालों की संख्या 47.87 करोड़ बन जाती है। जो विश्व भर में अंग्रेजी के गढ़ देशों की कुल जनसंख्या के लगभग डेढ़ गुना के बराबर है। यदि भारत में आधे लोगों को भी हिन्दी व्यवहार करने वालों में गिना जाए तब भी अंग्रेजी की तुलना में हिन्दी का ही पलड़ा भारी पड़ता है और हिन्दी विश्व की दूसरी प्रमुख भाषा बन जाती है।
साभार : भारत कोश (केवल छात्रोंपयोगी ज्ञान हेतु अव्यवसायिक एवं ज्ञान संपदा विस्तार हेतु प्रकाशित)
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साभार bhartdiscovery.org
मैं तारिक शाह को मोहब्बत इनायत करम की वजह से याद करता हूँ।
1990 के आसपास एक फ़िल्म आयी थी - बहार आने तक। दूरदर्शन के जमाने में उस फिल्म के गानों ने धूम मचा दिया था। उसका एक गीत रुपा गांगुली और सुमित सहगल पर फिल्माया गया था 'काली तेरी चोटी है परांदा तेरी..इस गीत को मेरे देखे शादियों में वही दर्जा मिला जो 'मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियां'को प्राप्त था। इस फ़िल्म में एक और अभिनेता थे, जिनको नोटिस करना मेरे लिए आज तक आसान इसलिए रहा क्योंकि सुमित सहगल के सामने मझोले से थोड़े चवन्नी कद का एक अभिनेता भी था जो मुनमुन सेन के साथ एक गाने में दिखा और ऋषि कपूर वाली उदात्तता के किरदार को निभाने आया था। उस हीरो का गाना भी खासा हिट हुआ था - 'मोहब्बत इनायत करम देखते हैं, कहाँ हम तुम्हारे सितम देखते हैं'- बहार आने तक के दोनों गाने लंबे समय तक रेडियो और टीवी के चार्ट बस्टर में खूब चले। नब्बे के दशक की रूमानी दुनिया में तैराकी करने वाले अधिकतर लोग तारिक शाह पर फिल्माए इस गाने को जरूर सुनते हैं।
वह अलग बात है कि दूसरी ओर ग़ज़लों के उस्ताद सुनने वाले इस गाने को खास तवज़्ज़ो नहीं देते उल्टा इसमें वह अपनी एक उस्तादी जरूर ठूस देते हैं कि छोड़ो मियाँ ! यह फ़राज़ साहेब के 'सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं / सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से / सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं'- ऐसे लोगों को हमने बनी-बनाई खीर में नमक डालने वाला माना है और हम भी इस बात पर अड़े हुए हैं। और रही बात गीतों पर ऐसे प्रभावों की तब तो नब्बे छोड़िए आज तक ऐसे गीतों पर प्रभाव ढूंढने पर आएँ तो दुनिया ही कॉपी - पेस्ट- प्रभावित लगने लगे। फिर बेचारे तारिक और मुनमुन का इसमें क्या, पूछने वाले इब्राहिम अश्क से पूछें जिन्होंने यह गीत लिखा। हमारे लिए अनुराधा पौडवाल और पंकज उधास का साथ पाया यह गीत उस दौर का सिग्नेचर गीत बन गया है। वैसे भी जीवन में कुछ ऐसी भी सफलताएं है जिन्होंने मूल के बजाए जेरोक्स से भी टॉप किया तो इसे वैसा मानकर इस बहस से बाहर निकलते हैं, वरना तसव्वर खानम अपना पोटली लिए बैठी हैं, उसी दौर के आशिकी के लिए।
तारिक शाह के हीरो होने पर मुझे माक़ूल शक था क्योंकि वह पसंद नहीं आये थे। जनता सिनेमा में ही सुमित सहगल की सौतन की बेटी, नागमणि जैसी फिल्में देख हम पसंद कर चुके थे। लेकिन केवल इस एक गाने और लाउड ड्रामा वाले विशुद्ध नब्बे की इस फ़िल्म में तारिक के एक गीत और उसके कथ्य में उनके किरदार में पैवस्त ऋषि कपूराना इफेक्ट की वजह से वह भी न चाहते हुए याद रह गए। हालांकि यह मेरी सोच में रहा कि ऐसे औसत अभिनय वाले और औसत दिखने वाले आदमी की, जिसकी सिनेमाई उपस्थिति सीनियर एक्टर मनमोहन कृष्णा की पुअर कॉपी जैसी है, उसकी कास्टिंग कैसे हुई होगी तो बाद में पता चला तारिक शाह अभिनेता ही नहीं थे बल्कि निर्देशक भी रहे।
दूरदर्शन के दौर में उनके कुछ चर्चित कामों में 'कड़वा सच', 'एहसास'वगैरह हैं और उनके उल्लेखनीय फिल्मी कामों में 'जन्मकुंडली', 'महानता', 'भेदभाव', 'करवट', 'मुम्बई सेंट्रल'जैसी कुछ दर्जन भर के आसपास फिल्में रही हैं। तारिक के बारे में कहा जाता रहा कि वह दिलीप कुमार की खोज थे और अस्सी के शुरू में सत्य नाम की किसी फ़िल्म को वह दिलीप कपूर के साथ बनाने वाले भी थे पर किन्हीं कारणों से उस प्रोजेक्ट ने कभी उड़ान ही नहीं भरा। किस्से हैं किस्सों का क्या, मायानगरी में ऐसे किस्से और घटनाएँ आम हैं, समय के पहिए के साथ चलते हीरो को जोकर नान जाना पड़ता है। नीरज बाबा ने सही तो लिखा है - ए भाई। तारिक जल्दी ही चरित्र भूमिकाओं में आ गए थे। तारिक ने शोमा आनंद से शादी की थी और काफी दिनों से किडनी की समस्या से जूझते बीते तीन अप्रैल को मुम्बई के एक निजी अस्पताल में उन्होंने इस दुनिया को वि दा कह दिया।
व्यक्तिगत तौर पर तारिक शाह अपने केवल एक गीत से ही याद रह गए हैं जबकि उनके छोटे या बड़े पर्दे पर आने पर यह जरूर लगता है कि यह आदमी भला किरदार ही होगा। वैसे भी एक दृश्य काफी है किसी की याद के लिए मेरे लिए तारिक शाह का वही गीत बहुत है - 'मोहब्बत इनायत करम देखते हैं/ तुम्हें कितनी चाहत से हम देखते हैं।
अलविदा तारिक शाह, नब्बे के दीवाने जब जब तुम्हारे इस गीत को देखेंगे, तुम्हें बेहद चाहत से देखेंगे।
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गढ़वाल का नीलम : हर्षिल
हर्षिल पहली बार मेरी जेहन में राजकपूर की फ़िल्म 'राम तेरी गंगा मैली'की वजह से आया था । बाद में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के क्रम में जब गंगोत्री-गोमुख-तपोवन ट्रेकिंग पर गया तो इस इलाके में दो हफ्ते से अधिक समय तक रहा । फिर तो यह जगह उत्तराखण्ड के मेरे महबूब जगहों में से एक हो गई । देवदारों में खो जाना, दूर तक फैले साफ और इस ऊँचाई पर आश्चर्यजनक रूप से लगभग मैदानी इलाकों की तरह समतल भागीरथी के किनारों पर कैंपिंग करना, देर तक टहलना, बतकुच्चन करना, आग जलाना, अहले सुबह दूर दूधिया हिमालय पर सूरज की पहली रोशनी को आंखमिचौली खेलते देखना, कभी धुंध को देवदारों में अटका हुआ देख देर तक निहारना, रेजिमेंट से शाम की घंटी सुनकर ठंड को महसूसते लौटना । शाम को बाजार में पकौड़ियाँ और चाय - क्या ही कहना, हर्षिल के । रात के भोजन के बाद स्टीरियो पर कानों में 'हुस्न पहाड़ों का क्या कहना कि बारह महीने यहां मौसम जाड़ों का'को हल्की आवाज में सुनते किसी मदहोशी में टहलना एक अलग ही दुनिया में ले जाता । सच कहा जाए तो यही वह समय है जब आप दुनिया की सबसे प्यारी जगहों में से एक दुनियावी दाँव-पेंचों से अलग,सुंदर का सपना देखते तारों के नीचे भटकती हुए सुंदर आत्मा होते हैं । असल में इस बार हर्षिल जाना लिस्ट में नहीं था, पर हर्षिल ने फिर से पुकार ही लिया । गंगोत्री को जाते पर्यटको को हर्षिल घाटी से गुजरते भागीरथी की नीली धारा नीलम की तरह लगती है ।
• जाना हर्षिल की ओर
विश्वविद्यालय में अक्टूबर की दस दिनों वाली छुट्टियाँ हो गयी थीं और मेरे कुछ पुराने स्टूडेंट्स भी आ गए थे । उन सबके साथ एक शाम की चाय के बाद बिना किसी बड़ी योजना के यूँ ही मेरे एक छात्र जोगिंदर ने हमें तैयार कर लिया कि चलिए कम से कम चीला होकर आ जाएँगे । लेकिन चीला में दो रातों के बाद ऋषिकेश के पहाड़ों ने ऊपर आने के लिए डाक देना शुरू किया और यह काम वह पहले दिन की सुबह से ही करने लगे थे । उन्हें पता था कि इस आदमी (मेरे) के भीतर बेचैनी बैठी रहती है कि गढ़वाल हिमालय के दुर्गम इलाकों की झलक ना ली तो क्या उतराखंड आए । मुझे हमेशा लगता है हरिद्वार ऋषिकेश आना गढ़वाल आना नहीं,बस गंगा दर्शन और डुबकी, संध्या आरती के लिए आना भर ही है । यह मुहाने से लौटना है, कुछ अधूरापन रह ही जाता है । इसलिए ऋषिकेश से उपर चढ़ते लगता हूँ तो लगता है गोया किसी डूबती नब्ज़ वाले रोगी को ऑक्सीजन दे दिया गया हो । नीत्शे बाबा ने कभी कहा था 'मैं यायावर हूँ और मुझे पहाड़ों पर चढ़ना पसंद है ।'मेरे लिए भी सच यही है । चीला से आगे जाने की बात सुन चीला के फारेस्ट गेट के टपरी वाले चाय दूकान पर पंडित जी ने पूछा था कहाँ की ओर ? अनमने ढंग से पहले कहा - सोचा है खिर्सू । लेकिन हम हर्षिल (गंगोत्री) चल दिए । वैसे हर्षिल वाली बात सुनकर पंडित जी ने वही कहा होता जो खिर्सू सुनकर मुस्कुराकर कहा था - शुभास्तु पंथान : । हम हर्षिल चल दिए । मेरे ख्याल से जोगी, ऋचा और कौस्तुभ के लिए तो ठीक था कि वह नज़ारे देख-देख प्रफुल्लित हो रहे थे पर कसम से यही वह वक़्त होता है,जब पहाड़ों में ड्राईविंग करने वाले मेरे जैसे मैदानी लोग अपनी किस्मत खूब कोसते हैं और दूसरों की किस्मत से रस्क खाते हैं क्योंकि सामने नज़र रखते और हर मोड़ पर सतर्क रहते आधा सौन्दर्यबोध यूँ ही हवा रहता है लेकिन बाकी का आधा मन कहता है - चरन्वं मधु विन्दति, चरन्स्वादुमुदुम्बरम् - चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है - सो चरैवेति चरैवेति - सो मैं भी चलता रहा । आखिर पहाड़ी राजा विल्सन के इलाके के सेबों की मिठास और 2500 मीटर की ऊँचाई के देवदारों, सेबों के बागान और महार और जाट रेजिमेंट के बीच से गंगा को नीचे देखते जाने की कबसे तमन्ना थी,जो एक बार बीए में पूरी हुई सो अब तक इस इलाके में यह यात्रा बदस्तूर जारी है । फिर मेरे लिए कैशोर्य अवस्था से वह पोस्ट ऑफिस भी तो एक बड़ा आकर्षण रहा है,जहाँ राज कपूर की नायिका गंगा हँसते हुए पोस्टमास्टर बाबू को यह कहते हुए निकल जाती कि पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है । हाय! राजकपूर ने भी क्या खूब जगह चुनी ! गंगा और बंगाली भद्र मानुष नरेन के मिलन बिछुरन वाले प्रेम कथा के लिए । इस जगह से मुफीद जगह क्या ही होती ।
किस्से पर वापसी - उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर चढ़ते हुए साँझ के चार से थोड़ा ऊपर का समय हो आया था,तिस पर अक्टूबर का महिना । पहाड़ों में अँधेरा वैसे ही तेजी से उतर जाता है और यदि वह पहाड़ी रास्ता उतरकाशी से हर्षिल-गंगोत्री रूट पर हो, शाम ढल रही हो, सर्दियों का उठान हो और गाड़ी चलाने वाला एक ही व्यक्ति हो तो आगे के राह की सोच कर चलना ही ठीक रहता है । हमने उत्तरकाशी से थोड़ा ऊपर रूककर चाय गटकने और मैगी लीलने के बाद तय किया कि जिस तरह ऋषिकेश से यहाँ तक समय से आ गए हैं, उस लिहाज से आगे आराम से तीन-साढ़े तीन घंटे में हर्षिल पहुँचकर ही आराम करेंगे । मुझे कुछ ख़ास थकान नहीं लग रही थी और सच कहूँ तो मन के कुहरे में वह बात साफ़ थी कि अब रुकें तो हर्षिल ही, सो चल पड़े । शाम उतरने लगी थी,अक्टूबर का पहला ही हफ्ता था, वातावरण में ठंडक बढ़ रही थी और गाड़ी के भीतर इसका अहसास भी हो रहा था । सब खुश थे । मेरे सुपुत्र कौस्तुभ महाराज भी एक गहरी नींद मार जाग चुके थे और उनके लिए मैंने उनके पसंद के गीतों को चला दिया था । गाड़ी उत्तरकाशी से हर्षिल की ओर सर्पीले रास्तों पर चढ़ती चली जा रही थी ।
इस पूरे यात्रा में मैंने अतिउत्साह में एक गलती की थी, जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन वह खामियाजा भी एक नया और अलग अर्थ में सुखद याद बन गया । सुक्की गाँव हर्षिल से थोड़ा पहले है और उससे भी पहले आईटीबीपी का कैम्प है । यह जगह हर्षिल से ऊँची है और इस गाँव में सेब भी खूब होता है पर इस जगह पर अमूमन कोई यात्री नहीं रुकता । वह या तो हर्षिल, धराली या सीधे गंगोत्री ही रुकता है । इसी सुक्की गाँव से दो कि.मी. नीचे कार ने एकाएक धुआँ देकर चुप्पी साध ली बेचारी सुबह से लगातार टेढ़े-मेढ़े,ऊँचे-नीचे,अच्छे-ख़राब रास्तों पर चल रही थी । सो वह उस सांझ, एक वीरान जगह पर मुँह फुला झटके बैठ गई । मैंने ध्यान नहीं दिया था उसका हीट लेवल बढ़ा हुआ था और मैं बतकुच्चन और हर्षिल पहुँचने की झोंक में बिना ध्यान दिए गाड़ी को तेजी से इस दुर्गम पर्वतीय इलाके में खींचे जा रहा था । इस दौरान गाड़ी का वाटर पम्प पता नहीं कैसे और कहाँ टूट गया था । सारा कूलेंट,पानी स्वाहा । हम सब उतर कर कार को निहार ही रहे थे कि बगल से गुजरते डम्पर वाले ने देखा कि शहरी बाबु लोग किसी दिक्कत में हैं । उस संकरे,एकांत रास्ते पर उसने अपना बेशकीमती आधे घंटे का समय हमारे हिस्से खर्च किया. किस्मत अच्छी थी कि ठीक बगल में एक पहाड़ी नाला ऊपर से आता हुआ तेजी से नीचे खाई में चिल्लाता हुआ गंगा में उतर रहा था. उसके पानी से कार का गुस्सा ठंडा किया गया और अब गाड़ी इस हालत में आ गयी थी कि सुक्की तक चली जाए पर आईटीबीपी कैम्प तक चढ़ते चढ़ते गाड़ी ने अजीब चीखें मारनी शुरू की और हर्षिल गंगोत्री जाने वाले समझ सकते हैं कि उस रास्ते पर सुकी गाँव के पास निहायत खड़ी चढ़ाई है, जैसे मसूरी में लैंढूर से चार दूकान की ओर जाने का रास्ता। खैर कैम्प के आगे के रास्ते एक कोने पर बलवंत सिंह जी की चाय की टपरी थी,जो लगभग बंद हो ही गई थी पर हमें देख उनकी उम्मीद बढ़ी कि थोड़ी देर और रुक गया तो कुछ आमदनी हो जाएगी । उनकी उम्मीद गलत नहीं थी । हमने बीमार कार वहीं खड़ी की और वहाँ दबा के ऑमलेट, मैगी और ग्लास भर निम्बू चाय पी । दुकान की बुझती हुई आग में गर्मी की सम्भावना तलाशते हुए हमने कार ठीक होने तक सुक्की में ही रुकने का मन बना लिया । ऊपर की ओर एक इमारत थी जिसे एक तरह से होटल कह भी सकते थे और एक लिहाज से सरायनुमा भी कहा जा सकता था । वहाँ ऐसे कमरे मिल गए थे, जिसमें शौचालय अटैच्ड था । आज चाहे मैं जो कहूँ पर उस वक़्त वह जगह हमारे लिए ईश्वरीय थी । खाना बनाने का रिवाज होटल वाले ने इसलिए नहीं सीखा था क्योंकि वहाँ चार धाम यात्रा के अतिरिक्त कभी कोई रुकेगा इसकी उम्मीद उसे भी नहीं थी । वहाँ खाने के नाम पर मैगी,चाय, बिस्कुट,अंडे का सीमित इंतजाम था । लेकिन जैसा कि हमारे साथ अधिकतर यह हुआ कि गढ़वाल में ऐसी किसी भी जगह ठहरे तो पूरा परिवार साथ हो लेता है । यहाँ भी यही हुआ । मुझे जल्दी ही लग गया कि किस्मत ने किसी वजह से हर्षिल से पहले इस अज्ञात-कुल शील जगह पर रोका था । सुक्की की वह रात पूरे चाँद की थी । हमने अपनी कार जिस बैंड पर खड़ी की थी उस जगह से रिहाइश घूमकर दो किलोमीटर थी पर सुविधा यह थी कि कमरे के बाहर आकर सामने झाँकों तो ताज़ी झरी सफेदी ओढ़े हिमालय,उसके पैताने उत्तरकाशी, महादानव टिहरी बांध, देवप्रयाग को जाती भागीरथी के प्रबल अबाध प्रवाह की ध्वनि और दाहिनी ओर नीचे दिखते हरियल छत वाले कैम्प के कोने में बलवंत जी की टपरी के मुहाने पर अगले दिन सत्तर कि.मी. दूर नीचे उत्तरकाशी से आने वाले मिस्त्री की उम्मीद में हमारी कार खड़ी दिख रही थी । और हाँ ! उस जगह हमने मज़बूरी में शरण ली पर तीन दिन रुके ख़ुशी-ख़ुशी । जी ! वही जगह जहाँ रात को खाना भी खुद ही बनाने में होटल वाले भले युवक के परिवार का सक्रिय सहयोगी बनना पड़ता था । मैं इतनी दफे गंगोत्री गया, हर्षिल गया और दो बार आगे गोमुख और तपोवन तक गया । पर हर्षिल से थोड़ा ही पहले पड़ते इस खूबसूरत जगह पर कभी नजर ही नहीं गयी थी । सच है जीवन में हम कई बार बड़ी दूर की आसन्न खुशियों और चीजों के फेर में छोटी और पास की चीजों को जाने-अनजाने अनदेखा कर देते हैं । यकीन जानिए, अब यह परेशानी हमारे लिए एक अलग ही सुख का अनुभव करा रही थी । कौस्तुभ वहाँ के स्थानीय बच्चों के लिए खिलौना हो गया था, उसकी उम्र को यह कहाँ पता था कि माता-पिता यहाँ क्यों रुके हैं । आखिर यह भी तो रामनारायण उपाध्याय की कविता को अनजाने में छुटपन से ही समझने लगा है -धरती से मुझे प्यार है और आसमान जी को बहुत भाता है/एक से मेरे शरीर का और दूसरे से मन का नाता है । हिमालय है ही ऐसा । आप आते अपरिचित हैं पर थोड़े ही समय में लगता है आप यहीं के हैं,यहीं के थे । मेरे ऐसा समझने के पीछे यह भी तो हो सकता है कि हमारे पूर्वज कभी इन्हीं रस्तों और पर्वतों-देवदारों की छांव में गुजर कर अपनी तीर्थयात्राएँ पूरी की हों ।
सुक्की गाँव में दिल्ली वाले नेटवर्क को समस्या हो रही थी सो बीती शाम को ही ऋचा के सलाह अनुसार होटल वाले के फ़ोन से मैंने नीचे देहरादून में ऋचा के पिता जी को अपनी लोकेशन और गाड़ी की स्थिति बता दी थी । उन्होंने जोर का ठहाका लगाया कि हमलोग जाकर एक जगह फंस गए हैं । मामला यह था कि मैंने चंबा से आगे आते समय उनको फ़ोन करके खूब चिढ़ाया था कि आप देहरादून ही रह गए और देखिए हम बिना प्लान के गंगोत्री तक का रास्ता नापने निकल गए और उसी बातचीत में ऋचा के पापा ने कहा आज रात आप उत्तरकाशी रुकोगे तो सुबह हमलोग आपको पीछे से ज्वाइन कर लेंगे । लेकिन मैंने कहाँ अजी कहाँ ! आज की रात तो यह गाड़ी हर्षिल ही रुकेगी और संयोग देखिए, न उत्तरकाशी ना हर्षिल,गाड़ी सुक्की गाँव के पास सुस्ती में आई और शायद विधाता ने यही मिलने का करार तय किया हुआ था । शायद इसे ही कहते हैं अपना चेता होत नहीं प्रभु चेता तत्काल । ऋचा के पापा-मम्मी भी देहरादून से सुबह दस बजे के करीब सुक्की आ गए और नीचे उत्तरकाशी में एक मिस्त्री को बोल आए थे । एक और कमाल बात समझने की है कि इधर के इलाके में सहयोग बिना अतिरिक्त प्रयास के मिल जाता है । हमारे साथ यही हुआ,बाहर के नम्बर की ख़राब कार को देखते हुए तक़रीबन हर दूसरे सवारी वाहन या मालवाहक वाहन वाले ने उत्तरकाशी में किसी न किसी मिस्त्री को हमारे होटल वाले का नम्बर दे दिया था ताकि उसके हिसाब से बात करके वह सुक्की आकर आईटीबीपी कैम्प के पास खड़ी दिल्ली नम्बर की गाड़ी की मरम्मत कर जाए । पहाड़ों की यह व्यवस्था चमत्कृत करती है । देर शाम तक एक मिस्त्री अपनी गाड़ी से सुक्की आया और हमारी कार की मरम्मत में जुट गया । मैकेनिक कितना दक्ष था यह तो मालूम नहीं पर उसके उत्साह और उसकी गाड़ी की सजावट को देखते हुए,उसे सलाम करने का जी कर रहा था । उसकी कार दशहरे की झांकी सरीखी बनी ठनी थी । खैर ! चार से पाँच घन्टे की मेहनत और चांदनी रात में सामने वाले पर्वत से बारीक़ से वृहतर होते चाँद और उसकी चांदनी को पसरते और पूरे इलाके को दूधिया रोशनी में नहाते देखना भी एक अलग ही अनुभव ही था । उस दृश्य को बयान करना मुश्किल है, जब एकाएक उजाला बढ़ते-बढ़ते सामने वाले पर्वत की नोक से एक नगीने की तरह क्षण पर टिका फिर मुकुट की तरह बढ़ा और समूचे वैली और हमारी पीठ की ओर वाले पहाड़ की तीखी ढलान पर पसरे हुए सेब के खेतों में भीतर तक छा गया । कार अब ठीक थी, लेकिन जिस रास्ते पर हमें आगे जाना था, उस लिहाज से इस मिस्त्री पर मेरा भरोसा पता नहीं क्यों टिक नहीं रहा था । जोगिन्दर की भी यही राय थी, तिस पर सत्रह सौ के वाटर पम्प के साढ़े पाँच हजार चुकाने के बाद मिस्त्री का उदार होकर दिखाना कि 'वह तो भला हो जो मैं ही था अन्यथा कोई और होता तो शायद ही इतने में करता', मूड को थोड़ा ख़राब कर ही गया था लेकिन मन के एक कोने में यह बात संतोष के साथ साँसे ले रही थी कि कल की सुबह हर्षिल में बीतेगी । अफ़सोस इस बात का भी नहीं था कि दो रातें सुकी में बीत गयीं वह भी किसी अन्य वजह से ।
• जाना पहाड़ी विल्सन राजा के घर हर्षिल में
हर्षिल के पास है मुखबा गाँव । सर्दियों में गंगोत्री धाम की डोली की यहीं पर पूजा अर्चना की जाती है । हर्षिल सेना के दो रेजिमेंट्स के बीच में भागीरथी के सुरम्य तट पर बसा एक बेहद खूबसूरत गाँव है । इसकी ऊँचाई 2500 मी. है और यहाँ के रसीले सेब नीचे खूब मशहूर हैं । कहते हैं इस इलाके में सेबों की फसल से पहला परिचय अंग्रेज फ्रेडरिक विल्सन ने कराया था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग पहाड़ी विल्सन के नाम से पुकारते हैं । हर्षिल आने का एक बड़ा कारण यह विल्सन भी रहा । वह अंग्रेज जिसका इस इलाके में आना, झूले वाले पुल का बनाना, स्थानीय युवती से विवाह बंधन में बंधना और फिर उस पर राबर्ट हचिन्सन का द राजा ऑफ़ हर्षिल नाम से किताब लिखना, अपने आप में मिथकीय और जासूसी कथाओं की तरह रोमांचक है । विल्सन का पुराना कॉटेज एक दुर्घटना में जल गया था लेकिन जंगलात वालों ने उस जगह पर लगभग उसी तरह का एक कॉटेज बनवाया हुआ है,जिसमें उत्तरकाशी और नीचे से आने वाले अधिकारी वगैरह ठहरते हैं । हर्षिल के पुराने निवासी कहते हैं-आज जो कॉटेज आप देख रहे हैं हैं,वह तो कुछ भी नहीं,जो विल्सन के समय की थी । वैसे भी हर पुरानी चीज जो केवल मौखिक कथाओं में बच गई हो,अपने किस्सों में अलग-अलग और बड़ा आकार ले ही लेती है । संभव है विल्सन के कॉटेज के साथ ही यह रहा हो । अलबता, हर्षिल की ख़ूबसूरती ने राजकपूर सरीखे फिल्मकार को अपनी ओर आकर्षित किया और गंगोत्री धाम जाने वालों तीर्थयात्रियों को भी । पर कायदे से इस हर्षिल गाँव को देखने के लिए एक दिन भी पूरा है और महसूसने के लिए हफ्ता भी कम है । हर्षिल महसूसने की जगह है । हम अब हर्षिल में थे,वह साथी मिल गया था जिसे पाने को पिछ्ले कुछ दिनों से जी बेकरार था । अब हमारे कुछ सुकून के दिन हर्षिल में बीतने वाले थे ।
• हर्षिल का राजा - फ्रेडरिक 'पहाड़ी'विल्सन :किस्सा अनूठा उर्फ़ जितने मुँह उतनी बातें
हालाँकि फ्रेडरिक 'पहाड़ी'विल्सन को पहाड़ी विल्सन का पुकार नाम उसके इस इलाके के प्रति प्यार की वजह से मिला है । यह ऐतिहासिक रूप से इस इलाके में आया सच्चा किरदार है लेकिन राबर्ट हचिसन ने लिखा है कि यदि आप इस इलाके में विल्सन की कथा सुनने निकलते हैं तो सबसे बड़ी समस्या यह है कि छह लोगों के पास छह किस्म की कहानी है लेकिन उनमें किंचित समानता होते हुए भी पर्याप्त भेद भी है । पर यह ज्ञात तथ्य है कि उसकी दो पत्नियाँ थी जो पास के ही पड़ोसी गाँव मुखबा की थीं । पहली रैमत्ता से कोई संतान न होने की स्थिति में उसने सुगरामी(गुलाबी) से विवाह किया और जिससे उसके तीन बेटे - नथनिअल, चार्ल्स और हेनरी हुए । हर्षिल और मुखबा के स्थानीय नागरिक उन्हें स्थानीय उच्चारण के हिसाब से नाथू, चार्ली साहिब और इंद्री कहा करते थे । हर्षिल में विल्सन की आमद कैसे हुई थी यह बात बहुत स्पष्ट नहीं है । कोई कहता वह अंग्रेजों की पलटन का निकाला हुआ सिपाही या अधिकारी था तो कोई किसी और कथा का आधार देता । मसलन, वह योर्कशायर के मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता था और अपने को व्यापारी, फोरेस्टर या कॉन्ट्रेक्टर कहा करता लेकिन इतना जरुर है कि इधर के इलाके में सेब की खेती और झूला पुल बनाने की कारीगरी विल्सन की प्रसिद्धि का बड़ा कारण रही है । विल्सन ने गंगोत्री और हर्षिल के बीच भैरोघाटी के पास एक संस्पेंशन ब्रिज का निर्माण किया था, जिस पर से आरपार जाने में स्थानीय नागरिकों की आनाकानी और अविश्वास को देखते हुए उसने अपने घोड़े पर चढ़कर इस पार से उस पार जाकर जनता में वह विश्वास बहल किया कि इस झूला पुल से घाटी और नदी के प्रबल और भयावह प्रवाह को पार किया जा सकता है । उस रात की डिनर के समय मेरे, ऋचा, पीकू, ऋचा के मम्मी-पापा ने विल्सन के बारे जानना चाहा । कमरे में रात के लिए गर्म पानी पहुँचाने आए मध्यवय वाले वेटर से जब मैंने यह सवाल किया कि पहाड़ी विल्सन के बारे में कुछ बताओ? उसने फ़िल्मी रहस्य ओढने के बाद मुझसे ही पूछा - 'आप कैसे जानते हो पहाड़ी राजा विल्सन के बारे में ? रात में उसके बारे में बात नहीं करना । वह आज भी हर चांदनी रात को अपने घोड़े पर बैठकर रस्सी के झूले वाले पुल से गुजरता है । हर्षिल और मुखबा के अनेक ग्रामीणों ने उसके घोड़े की टापों की आवाज़ देर रात गए सुनी है । वह आज भी इन्हीं पहाड़ों में घूमता है । '- मुझे उसके बताने के तरीके में मजा आ रहा था और वह वेटर अपनी पूरी कथाशक्ति और आंगिक अभिनय से हमें डराने में लगा हुआ था । विल्सन की कथा हर्षिल के शानदार हिस्सों में से है । एक तो इस किस्से को इस इलाके में आने वाले लगभग सभी ट्रेवेलर्स ने कमोबेश पढ़-जान रखा है । दूसरे एक दूर-दराज के अंग्रेज के स्थानीय महिलाओं से विवाह स्थिर कर ताउम्र यहीं ठहर जाने की प्यारी-सी कथा का सुयोग जो इसमें ठहरा है, जहाँ वह विल्सन से स्थानीय 'हुल्सेन साहिब'बन गया । गढ़वाल के इस हिस्से में यह अंग्रेज साहिब संभवतः रुडयार्ड किपलिंग के उस कथा 'द मैन हु वुड बी किंग'का आधार बना था, यह मैं नहीं कहता, हचिसन साहिब का कहना है । पर यह तो तय जानिए कि ब्रिटिश आर्मी का एक युवा अधिकारी पहले अफगान युद्ध से लौटकर हिमालय के इस इलाके में आता है और इस इलाके में एक बदलाव की जमीन तैयार करता हुआ किंवदंती बन जाता है । मैं सपरिवार और अपने स्टूडेंट जोगी के साथ हर्षिल बार-बार लौटने की भूमिका रचता हुआ नीचे उतरता हूँ । एक डोर-सी बंधी है मेरे और गढ़वाल के बीच,जो दिल्ली रहकर भी लौटा लाने को आतुर है हमेशा । पंच केदार की जमीन हो कि गंगोत्री-गोमुख-तपोवन । हर्षिल वाकई यात्रा का अंत नहीं बल्कि शेष है जो कई दफे भी उस 'शेष'को बचाकर ही रखती है । सम्पूर्णता वैसे भी मृत्यु है और हर्षिल तो जीवन ही जीवन है ,उसका शेष होना ही श्रेयस है । यात्रा का दुर्गम हर्षिल में इतना रमणीय हो जाता है कि फिर-फिर लौटने की प्रबल उत्कंठा उस दुर्गम के सुगम मान लेती है । चीला वाली टपरी पर खिर्सू सुनकर हंसने वाले,फिर गंगोत्री जाना समझ उस पंडित जी ने किसी दैवयोग से ही कहा होगा - शुभास्तु पंथान: और देखिए वही रहा । तो देर किस बात की है आप भी हो आइए हर्षिल, फिर यह जगह आपकी पसंदीदा जगहों में शुमार हो जाएगी । जिसे आप बार-बार जीना चाहेंगे ।
• यहाँ की सुबह-दोपहर-शाम तय कीजिए
सुबह का आरंभ जल्दी कीजिए । सुबह की चाय के बाद भागीरथी के फैलाव के साथ किनारे-किनारे दूर तक ढलानों पर तने खड़े खुशबूदार देवदार से बतियाते और उनकी सुगंधी को अपने नथुनों में भरते जाइए और लौटते हुए मुख्य सड़क पर किसी छोटी काठ की पुरानी दीवारों वाली टपरी के बाहर ताज़ी उतर रही धूप में दालचीनी,अदरक वाली चाय को बंद बटर और ऑमलेट के साथ स्वाद लेते हुए अपने रुकने की जगह लौट आइए । मुख्य बाजार से एक पतली-सी गली हर्षिल के डाकघर तक जाती है । यह डाकघर के नाम पर पुरानेपन का एकमात्र ढांचा भर दिखता है पर है सक्रिय । सिनेमाप्रेमी खासकर 'राम तेरी गंगा मैली'वाले इस डाकघर के पास अपनी तस्वीर खिंचवाने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि जब समय और बाज़ार ने जीवन में, प्रकृति में हर ओर एक तरह की तब्दीली कर दी है, वैसे में यह डाकघर समय के उसी बिंदु पर वैसे ही अक्षुण्ण खड़ा है जैसा कि राजकपूर ने अस्सी के दशक में सिनेमा बनाते हुए छोड़ा था । डाक विभाग को भी मोबाइल के ज़माने में इस चालू डाकघर को बदलने की बहुत जल्दी नहीं है । इस छोटे और समय के एक बिंदु पर ठहरे हुए से सुंदर दृश्यों को यहाँ की चाय की दुकान के बाहर के पटरे पर बैठे घंटों ताका जा सकता है क्योंकि हर्षिल आपसे आपका परिचय तब कराता है,जब आप शहराती भागमभाग में खुद को भी भूल चुके होते हैं । यहाँ आकर लगता है कुछ चीजें ठहरी हुई अधिक सुंदर लगती हैं । अब बेशक चिट्ठियाँ बहुत नहीं आती-जाती पर सुदूर इलाके में इस जगह के खम्भे पर टिके लेटरबॉक्स का मुँह मुस्कुराते हुए खुला रहता है । राजकपूर की नायिका ने इसी के पास डाकबाबू को दिक् किया था - 'पहाड़ों की डाक व्यवस्था भी अजीब है डाक बाबू, आने वाले पहले आ जाते हैं और उनके आने की खबर देने वाली चिट्ठियाँ बाद में'। हर्षिल का वह सुंदर डाकघर व्यक्तिगत तौर पर मुझे और ऋचा को बेहद पसंद है ।
हर्षिल की दुपहरी बाजार से बाहर रेजिमेंट एरिया से निकल कर विल्सन के कॉटेज के पीछे बहते पहाड़ी झरने को पार करके उस गाँव की ओर जाने का समय है,जहाँ स्थानीय बुनकर ऊनी दस्ताने, स्वेटर, बंडी, मोज़े, मफलर, टोपी, अचार, मुरब्बे आदि बनाकर बेचते हैं । यह सब हर्षिल के स्थानीय बाजार के अलावा बाहर भी भेजी जाती हैं । मेरे लिए इस इलाके का सबसे सुन्दर समय अक्टूबर तय है क्योंकि ठण्ड की बहुतायत न होने की वजह से मौसम और नदी-झरने साफ,सफ़ेद धूप खिली मिलती है । आसपास सस्ते सेब खूब मिलते हैं और रास्ते खुले होने की वजह से आप उन जगहों पर आसानी से घूम आते हैं,जो सामान्यत: बर्फ के मौसम में आप नहीं देख सकते । वैसे भी पहाड़ों में बर्फ एक किस्म का रंग भर देती है और आप उसके परे जाकर उस इलाके की वास्तविक ख़ूबसूरती नहीं देख पाते हैं । हालांकि इसकी अपनी सुंदरता है । हर्षिल में भी खूब बर्फ़बारी होती है लेकिन हर्षिल के रंग अक्टूबर-नवंबर में ही वैविध्य लिए अधिक चटख दिखेंगे । दोपहर की गढ़वाली कढ़ी, चावल के भोजन के बाद, शाम दूसरी दुनिया में ले जाती है । वैसे रात को आप अपने होटल वाले से मड़ुवे की रोटी वाले स्थानीय भोजन की मांग करें । हर्षिल वैसे भी आपको बहुत एडवेंचर्स के लिए आमंत्रित नहीं करती बल्कि वह आपको अपने भीतर की कृत्रिमता से बाहर खींच लेती है । जहाँ आपके शहर का जंग लगा इंसान झटके से नया हो उठता है । यहाँ विज्ञापनों वाली दुनिया से अलग एक इत्मीनान है । यही कारण है कि हर्षिल के लिए अपना प्यार और दैवीय आकर्षण बनाये रखा है । तभी तो उस शाम मुख्य सड़क से टहल कर आते भागीरथी के पुल के ऊपर सनसन बहती बर्फीली हवा और नदी के शोर से अधिक उस पुल पर बंधे कपड़ों के तिकोनों की फरफराहट के बीच जोगी रुक कर बोला 'सर यहाँ न माल रोड जैसी चहलकदमी है, न बिजली लट्टुओं की जगमग, न बहुत सुविधाएँ लेकिन कुछ ऐसा है, जिसे मैं हमेशा यहाँ आकर जीना चाहूँगा । शायद यही वह 'कुछ'था,जिसके लिए सुकी में दो रातें खराब कार के ठीक होने की उम्मीद में टिके होने के बावजूद हमें हर्षिल ले आया ।
• कैसे जाएं :
यदि आप देहरादून से हर्षिल जाते हैं तो सुवाखोली से सीधे उतरकाशी का रास्ता लें । एक दूसरा रास्ता धनौल्टी, कनाताल, टिहरी, चंबा होते हुए, उत्तरकाशी और हर्षिल को जाता है । ऋषिकेश से आप नरेंद्र नगर, चंबा, होते हुए उत्तरकाशी और हर्षिल पहुँच सकते हैं । हर्षिल गंगोत्री मुख्य मार्ग पर है ।
• कहाँ ठहरें :
हर्षिल में हर वर्ग के लिए हर बजट में किफायती जगहें मौजूद हैं । मुख्य बाजार और उसके आसपास छोटे-छोटे होटल हैं,जिनमें आप खासा मोल-तोल करके रुक सकते हैं । इसके अतिरिक्त होम स्टे और गढ़वाल मंडल का गेस्ट हाउस भी अन्य विकल्प है । हर्षिल छोटी-सी जगह है । यहाँ वैसे तो भीड़ नहीं होती पर यात्रा सीजन में भीड़ होने की स्थिति में आप हर्षिल से थोड़ा आगे गंगोत्री मुख्य मार्ग पर धराली में भी रुक सकते हैं ।
• क्या देखें :
हर्षिल में पहाड़ों की शांति और गंगा के विस्तार को देवदारों के साथ टहलते हुए देखिए । स्थानीय गाँवों तक यात्रा कीजिए और उनके हस्तकारी के काम को देखिए और खरीदिए । यह सब उत्पाद उत्कृष्ट और किफायती हैं । ट्रेक करने वाले तिब्बती मंदिर तक चढ़ाई कर सकते हैं । थोड़ी दूर की यात्रा कर मुखबा गाँव में गंगा माँ की शीतकालीन गद्दी के दर्शन किया जा सकता हैं । हर्षिल में अंग्रेज राजा फ्रेडरिक पहाड़ी विल्सन का आवासीय परिसर यहाँ का एक दर्शनीय स्थल हैं । हालांकि अब इसकी रंगत पूर्ववत नहीं और यह फोरेस्ट वालों की देख रेख में हैं । किसी शाम अलाव के पास बैठ चाय पीते किसी स्थानीय बुजुर्ग से विल्सन के कारनामें सुनिए । हिमालयी वृक्षों फूलों और उनपर पलता वन्य जीवन निहारिए । भागीरथी के साथ टहलते हुए फेफड़ों को ताजगी दीजिये और प्रकृति का संगीत सुनिए ।
• यात्रा का बेहतरीन मौसम :
हर्षिल उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित चार धाम यात्रा के गंगोत्री धाम वाले रास्ते में गंगोत्री से 25 कि.मी. पहले स्थित है । यहाँ आने के लिए मार्च से नवम्बर का समय सर्वथा उचित है । जब भी आयें गरम कपड़े लेकर आएं । गर्मियों में यहाँ की रात ठंडी ही होती है । सर्दियों में हर्षिल में बर्फबारी बहुत होती है और लगभग यह इलाका मुख्यालय से एक तरह से कटा हुआ रहता है फिर भी एडवेंचर के शौकीन इस मौसम में भी यहाँ आना पसंद करते हैं ।
तो देर किस बात की है हो आइये गढ़वाल के इस नीलम के साथ अपनी यादें जीने के लिए । हर्षिल भागीरथी के इलाके का नीलम ही है,सुंदर और बेशकीमती ।
(c) डॉ॰ मुन्ना कुमार पांडेय
सहायक प्रोफेसर
हिन्दी-विभाग,सत्यवती कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
(यह संस्मरण हिमालयी सरोकारों के लिए समर्पित पत्रिका "हिमांतर"के वर्ष -1, अंक - 3, अप्रैल - सितंबर, 2021 (संयुक्तांक) में प्रकाशित है। इसे www.himantar.com पर भी पढ़ा जा सकता है। इस लेख को बिना लेखक के संज्ञान में लाए छापना और अपने ब्लॉग पर शेयर करना मना है ।)
यादें: दो बाँके, एक फिल्म और जूही चावला की "मैं तेरी रानी तू राजा मेरा"
डिस्केलमर : ग्लोब के किसी हिस्से में नब्बे के दो दीवाने हुए। दो असल गंजहे। पर कानूनन यही कहना है कि इस किस्से का मजमून काल्पनिक माना जाए और किसी से इसका कोई हिस्सा जुड़ता है तो वह महज संयोग है।
वह तीन भाई थे। पर बीच वाले और छोटे वाले की उम्र में महज एक साल का फासला होने की वज़ह से उनका रिश्ता बड़े-छोटे के बजाए दोस्ताना अधिक था। बड़े वाले भाई कुछ अधिक ही बड़े थे और इसकी वजह उनके और बाकी दो भाईयों के बीच तीन बहनों का लम्बा फ़ासला था। इस कारण वह अनुभव एवं व्यवहार में पिता के आसपास ठहरते थे। किस्से में दोनों छोटों का नाम लेना ठीक नहीं है पर ये जानने की बात है कि दोनों के शौक में इतनी साम्यता थी कि वे आपस में फिल्मों, नाच और तिरंगा/पांच हजार गुटखा के ईमानदार साझीदार थे। सिनेमची ऐसे कि उनसे राजा बाबू, दिलवाले, जान तेरे नाम, मोहरा,बाजीगर, चीता से लेकर नसीब और रंग जैसी एक फ़िल्म न छूटी थी। उनको दौर-ए-नब्बे के तमाम नशीले गीत कंठस्थ थे। सिनेमा देखने के लिए वह कैसा भी झूठ रच लेते, प्रपंच कर लेते। हालांकि परिवार में उनकी शराफत का आलम यह था कि उनकी आँखों में दिखाने को ही सही पर बाबूजी और भैया का डर अवश्य था। उनके बाबूजी के पास ईंट भट्ठा, जिले के दो चीनी मिलों के फ्रेस और भीतरी सड़कों का ठेका समेत आसपास के जरूरतमंदों को सूद पर पैसे दिए जाने जैसे काफी काम थे। इन सबसे घर में ठीक-ठाक पैसा आता था। उनसे इलाके के बीसेक घर जीते-खाते भी थे। सब ठीक चल रहा था। यहाँ तक सब नार्मल था। उथल-पुथल वहाँ से शुरू हुई, जब उनके दोनों मस्ताने छोटे लाडलों ने कटेया बाज़ार स्थित राज चित्र मंदिर में सन्नी देओल, जूही चावला वाली 'लुटेरे'देख ली। फ़िल्म तो कोई ऐसी मारक नहीं थी, जिसका नशा इन पर चढ़ता पर उन बाँको ने जूही चावला का समुद्री गीत 'मैं तेरी रानी तू राजा मेरा/ सपनों में देखा है चेहरा तेरा / आ तू बसा दे ये जीवन मेरा" - देख लिया। जूही का झूमकर, नहाकर गाया हुआ यह गीत सीधे कलेजे में जा धँसा। उधर छोटे भाई को "तूने दिल पर जो डाले हैं डोरे, ओ लुटेरे ओ लुटेरे ओ लुटेरे'अपने लिए गाया हुआ लग गया। यह घटना जीवन के ऐसे क्षण में घटित हुई कि दोनों सामान्य न रह सके।
उनको जूही की धुन सवार हुई या कि उस गीत की, यह तो वही जाने। पर उसी रोज दोनों ने यह तय किया कि यह फ़िल्म टॉकीज से नहीं उतरनी चाहिए। मन पक्का हुआ। अब इस इरादे को कोई समझौता नहीं रोक सकता था, हालांकि यह इक आग का दरिया था और डूबके जाना था । टॉकीज मालिक भी दबंग और रसूख वाला था। मामला कैसे सेट हो? पर प्रेम में पतझड़ कहाँ - दो दिनों तक लगातार आठ शो में जूही के पुकार से जी को बसंत किया गया। दिल को बहलाने की भरपूर कोशिशों के बाद भी मन की दहक शांत न हुई। जैसे ही पर्दे पर जूही घोषणा करती "मैं तेरी रानी तू राजा मेरा", मन सीट छोड़ पर्दे में समा जाता और छोटे वाले बड़े भाई के लिहाज में किनारे छुपकर "ओ लुटेरे ओ लुटेरे"में अपनी तपिश को भोगते। दोनों शो देखकर हर बार बाहर आते, बिस्तर पर लेटे इस चंद दिनों की ही तड़प को वही महसूस कर सकता है, जिसने बारहमासा पढ़ा हो। इनका बारहमासा दो दिनों में उरूज पर आ गया था। दोनों अपने कमरे में सोते तो दूर से जूही पुकारती लगती। उस पर्दे वाली जूही चावला को क्या पता था वह क्या कर गई है। कुछ दिन और बीते अब दोनों को फिल्म का हर संवाद, दृश्य तक याद हो गया था। बेचैनी कम न होती थी। सिनेमचियों ने एक रोज यह इशारा दिया कि जल्दी नई फिल्म लगने वाली है।
अब कोई और राह न सूझती देख एक रोज इरादा पक्का हुआ कि सिनेमा हॉल खरीदा ही जाएगा । यह फ़िल्म किसी सूरत में हॉल से उतरनी नहीं चाहिए। वह नशेड़ी नहीं थे पर उनपर इस वाले नशेके असर पक्का हो गया था। उनका इरादा चौथे दिन के नाईट शो के बाद से ही पक्का हो गया था। अगली सुबह हिम्मत करके यह बात बैठक में बैठे पिता को कह दी गयी। पिताजी ने एक उड़ती-सी नज़र उनके चेहरे पर फेंकी और मोटा-सा विशेषण धर दिया। बैठक में बैठे जन- मजूर तक हँस दिए।
दोनों बेइज्जत होकर भारी मन से बाहर निकले और टंडैली करने की आदत से मजबूर दोनों फिर राज टॉकीज के टिकट काउंटर जा पहुँचे। आज भी जूही चावला उनके इन्तज़ार में समुंदर से निकल पोस्टर पर थी। कानों में गीत बज रहे थे- मैं तेरी रानी तू...। आग और भभक उठी। अब क्या हो? छोटे ने मचलकर कहा - "भाई जी ! बाबूजी तो बहुत बेइज्जत किए । हम लोग बेटा हैं और वह समझ नहीं रहे कि बेटे घी का लड्डू होते हैं। और हमारी ही इच्छा का सम्मान... हॉल खरीदना ही है, क्या कहते हो?"- साल भर बड़े ने टोक दिया - "बस बबुआ! आज रात ही फैसला होगा। या तो हम या बाबूजी।"
रात हुई, बाबूजी दुनिया भर से सूद वसूल चैन से खर्राटे मारते अपने पलंग पर लेटे थे। तभी उनकी कनपटी पर ठंडे धातु का स्पर्श हुआ। बेटे के हाथ में सजा बाबूजी का लाइसेंसी रिवॉल्वर बाबूजी की ही कनपटी पर था। पिताजी हड़बड़ा कर जागे। दोनों बेटे 'लुटेरे'की जूही चावला के फेर में, 'डर'का शाहरुख खान बने हुए थे। बड़े ने दाँत पीसते हुए कहा - "बाबूजी! किरिया खाइए कि राज टॉकीज खरीदेंगे। हम जानते हैं कि आपके पास बहुत पैसा है। देखिए नहीं मत कीजियेगा, वरना हम लोग भूल जाएंगे कि आप हमारे बाबूजी हैं।"- छोटे ने इमोशनल कार्ड खेला -"किसके लिए कमा रहे हैं जी? हमारे लिए ही न? संतान का सुख नहीं पसंद है, आपको? कहिए! अब हॉल ख़रीदाएगा।"-
पिताजी हड़बड़ी में बोले - "ख़रीदाएगा एकदम ख़रीदाएगा बेटा।"- दोनों का प्लान सफल हुआ। पिताजी मान गए - "बिल्कुल ख़रीदाएगा।"-
इस सृष्टि का नियम है रात की कहानी और सुबह की कहानी से अलग होती है। दोनों नायक दुनियादारी के खिलाड़ी पिताजी के दाँव-पेंचों से गहरे वाकिफ न थे। उनके पिता जी ने इस जीरे भर की जगह में कैसे अपना साम्राज्य विस्तार किया था, उनको पता नहीं था। वह रात का करार था, अब दिन निकल आया था।
उधर दोनों बाँके इस मौज में थे कि अब 'राज'में केवल 'लुटेरे'चलेगी। अठनिया तिरंगा गुटखा मुँह में फेंक बड़े ने टिकट काउंटर वाले सुदामा से कहा - "ऐ सुदामा ! अब तुम हमारे लिए टिकट काटोगे कल से। हॉल खरीद रहे हैं हमारे बाबूजी।"- सुदामा इन निठल्लों को जानता था पर मुस्कुराकर बोला - "ठीक है देवता, हमारा भी ख्याल रखिएगा।"- उसकी यह बात सुन दोनों के भीतर का 'होने वाला'हॉल मालिक जाग गया। वह अब जूही को उम्र भर नचा सकते थे, 'लुटेरे'चलती रहेगी।
जैसा कि उनके पिताजी के लक्षण थे, वह खानदानी लक्षण सामने उभर आए।
पर कहा न! रात और दिन का फसाना अलग है। उस रोज दोपहर के शो के बाद हॉल के अंधेरे से बाहर निकलते उनकी आँखें अभी सेट ही हो रही थीं कि एक करारा थप्पड़ छोटे के मुँह पर पड़ा। पिताजी और पिताजीनुमा बड़े भैया सामने खड़े थे। जूही को कौन याद करे, सन्नी देओल भी बेचारा क्या करता। वह अपने रकीबों से दूर पोस्टर पर ही जमा रहा। दोनों बांके पब्लिकली पीटा गए। उनको भी रात और दिन का फर्क समझ आ गया था। दोनों को पकड़ कर गरियाते हुए घर लाया गया। ऐसे इलाकों में पिक्चर जुमे की मोहताज नहीं होती, सिनेड़ी समाज के उम्मीदों के अनुसार, अगले ही रोज वहाँ 'खलनायक'लगा दी गयी थी।
गाँव वालों ने इस कांड के बाद दोनों को लखेरा और पागल घोषित किया। कुछ रोज तक सपनों में जूही बुलाती रही । 'ओ लुटेरे ओ लुटेरे''मैं तेरी रानी'और थक-हारकर, नाच-गाकर पर्दे और मन से उतर भी गयी। हालांकि जाते-जाते एक रोज सपने में वह छोटे वाले से शिकवा भी कर गयी थी "कुछ भी ना कहके हम तो हारे हैं, तुम हमारे हो, हम तुम्हारे हैं"- पर असल हार तो इन दोनों बाँको की ही हुई थी। कहने वाले कहते हैं कि वैसे बांके सिनेमची पूरे इलाके में न हुए। वह तो शुक्र है बाप ने उन्हें अलगा दिया वरना जूही को क्या पता कि उनके लिए किन्हीं दो दीवानों ने हॉल तक खरीदने की कोशिशें की थी। गोपालगंज के एक इलाके को यह गौरव एक अदद खलनायक पिता की वादाखिलाफी के कारण मिलते मिलते रह गया। एक को सऊदी की ओर भेज दिया गया दूसरा बाप के साथ चीनी मिल के फ्रेस की ठेकेदारी में मन मारकर हाथ बंटाने लगा। अरमानों की कली फूल न बन सकी। कौन कहता है आज मुगल-ए-आज़म नहीं होते और शहज़ादे सलीम को अनारकली से जबरिया अलग नहीं किया जाता? ऐसे कितने ही 'मासूम'सपने हवा हुए हैं। खैर, "ओ लुटेरे ओ लुटेरे ओ लुटेरे...मेरे अपने भी जो गए तेरे"- जो कभी जूही ने कही, वह उन दीवानों के गाँव वालों द्वारा मजाक बनाये जाने पर खत्म हुई लेकिन वह अपने मन को समझाते रहे - "प्रीत की रीत सदा चली आयी, हीर पे रांझा मरता है।"- एक रोज छोटे से बात हुई तो वह खैनी रगड़ कर मुँह में डालते हुए बोले - "बड़े भाई न रहे, हमारी जोड़ी टूट गयी। नहीं तो कहाँ-कहाँ जाकर न देखें थे, एक से एक सिनेमा। अब क्या देखे फ़िल्म भाई, छत्ता में से मध (शहद) निकल गया। अब जो सिनेमा हैं, वह अपना नहीं।"- धानरोपनी करवा रहे उस दीवाने को हमने देखा हैं। उनका ड्राइवर बताता है-"भैया के स्कार्पियो में खाली वही सब गीत बजता है"। हद है, ऐसे दीवानों के अरमानों के भी 'लुटेरे'कोई 'सुक्खी लाला'रहे हैं उफ्फ्फ!!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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